शुक्रवार, 1 जून, 2007

राजस्थान में गुज्जर आन्दोलन

क्या इन्हें अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिलना चाहिए ?

ज्ञान पाठक

नई दिल्ली: राजस्थान में गुज्जर आन्दोलन के चलते राज्य सुलग रहा है। राज्य के 30 में से 26 जिलों में हिंसा और उपद्रव का वातावरण है। आन्दोलन के तीसरे दिन तक पुलिस फायरिंग और भीड़ की हिंसा में 20 लोग मारे जा चुके हैं और सैकड़ों की संख्या में लोग घायल हैं। आन्दोलनकारी मांग कर रहे हैं कि राज्य के गुज्जरों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया जाये। हिंसा थमने के कोई आसार नहीं नजर आ रहे और केन्द्र की कांग्रेस के नेतृत्व वाली और राज्य की भाजपा के नेतृत्व वाली सरकारें एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगा रही हैं। इस स्थिति में पूरे मामले में नये सिरे से सोचने की आवश्याकता आन पड़ी है। ऐसी स्थिति आने के अनेक कारण हैं जिनमें रोजगार के घटते अवसर और आरक्षण की राजनीति प्रमुख हैं।

ध्यान रहे कि राजस्थान के गुज्जरों को अभी अन्य पिछड़ी जाति की तरह ओबीसी को देय आरक्षण का लाभ मिल रहा है, लेकिन वे इससे संतुष्ट नहीं हैं। वे चाहते हैं कि उन्हें अनुसूचित जनजाति या आदिवासी का दर्जा मिले। क्या उन्हें यह दर्जा दिया जा सकता है? यह विचारण का मुद्दा है। हमारे संविधान निर्माताओं ने इन्हें यह दर्जा नहीं दिया। हालांकि जम्मू और कश्मीर तथा हिमाचल प्रदेश में उनके समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला हुआ है। तो क्या हमारे संविधान निर्माताओं ने गलती की? क्या मंडल आयोग ने इन्हें 1979 में अन्य पिछड़ी जाति का मानकर गलती की और विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार (1989 – 92) के कार्यकाल में जब इन्हें ओबीसी का दर्जा मिला तो अनर्थ हो गया ?

आखिर गलती कहां से है यह जानने के लिए गुज्जरों के पूरे इतिहास पर एक नजर डालना होगा। आखिर ये गुज्जर हैं कौन?

गुज्जर, गुर्जर या गूजर एक ही समुदाय के लोग हैं। ये 500 से ज्यादा प्रकार के हैं। इनमें हिंदू , मुसलमान, सिख और ईसाई भी हैं। ये न सिर्फ भारत में बल्कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान और उक्रेन में भी पाये जाते हैं। भारत में ये उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक, जम्मू और कश्मीर, दिल्ली और उड़ीसा में बसे हैं। इनकी अधिसंख्य आबादी उत्तर प्रदेश, राजस्थान और गुजरात में है। जम्मू और कश्मीर तथा हिमाचल प्रदेश को छोड़कर ये किसी राज्य में अनुसूचित जनजाति या आदिवासी समुदाय में नहीं आते हैं। राजस्थान और अन्य राज्यों में ये अन्य पिछड़े वर्ग में आते हैं जबकि पारंपरिक हिंदुओं की वर्ण व्यवस्था में इन्हें क्षत्रिय अर्थात अगड़ी जाति का माना जाता है।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इस समुदाय का इतिहास परस्पर विरोधी संकेत देता है, जिससे यह नहीं पता चलता कि ये भारत के आदिवासी हैं या बाहर से आये हैं। ये क्षत्रिय हैं या कुछ और। संभवत: यह भी एक कारण हो सकता है कि आज तक इन्हें अनुसूचित जनजाति में शामिल नहीं किया गया। फिर भी इस बात पर इतिहासकार और समाजविज्ञानी सहमत हैं कि इनका इतिहास ग्राम्य या वन्य भी रहा है तथा इनकी एक अलग संस्कृति है और अलग अस्तित्व । यह सोचने वाली बात जरुर है कि जम्मू और कश्मीर तथा हिमाचल के गुज्जरों को यदि अनुसूचित जनजाति में रखा गया तो, इसी समुदाय के अन्य राज्यों के लोगों को अन्य पिछड़ी जाति में क्यों रखा गया।

गुज्जर समुदाय का एक वैभवशाली इतिहास भी रहा है। वे बहादुर होते हैं और जीवन के हर क्षेत्र में कुछ कर गुजरने की तमन्ना रखते हैं। ये कद काठी में भी हृष्ट-पुष्ट होते हैं। उनमें आत्म सम्मान भी कूट-कूट कर भरा होता है और अपनी सभ्यता और संस्कृति को बचाकर रखने में गौरव का अनुभव करते हैं। इस समुदाय ने दुनिया को अनेक महत्वपूर्ण लोग दिये। राजा मिहिर भोज, सरदार बल्लभ भाई पटेल, विजय सिंह पथिक और हाल के कांग्रेस नेता राजेस पायलट। सूची बहुत लंबी है। ये तो महज उदाहरण हैं।

भारत में इनका शासन रहा है। इन्होंने आठवीं और नौवीं शताब्दी में गुर्जर-प्रतिहार राज की स्थापना की थी जिसका क्षेत्रफल संपूर्ण दक्षिण एशिया के भूभाग के साठ प्रतिशत के बराबर था।

क्या ये भारत के आदिम जाति समुदाय में थे? इस सवाल के जवाब में अनेक तरह के परस्पर विरोधी विचार हैं। संभवत: यही कारण है कि इन्हें अनुसूचित जनजाति में रखने में हमारे नेताओं को मुश्किलें आयीं। फिर ये अपेक्षाकृत विकसित भी रहे और इन्हीं समुदायों में से अनेक अपने को क्षत्रिय, आदिम जानजाति, या पिछड़ी जातियों के मानते हैं। समस्याएं अनेक रही हैं। यहां यह भी बताना जरुरी है ताकि कोई गलतफहमी न रहे कि भारत के लगभग सवा तीन करोड़ से ज्यादा गुज्जरों में से अधिकांश गरीब ही हैं और उन्हें अन्य दुर्दशा प्राप्त समुदायों की तरह सहायता की आवश्यकता है।

जब गुज्जरों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की बात उठी है तो स्वाभाविक तौर पर उनके आदिम जाति होने या न होने का सवाल भी सामने है।

इतिहासकारों में इस बात के लेकर मतभेद है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार ये प्राचीन गोर्जिया (आधुनिक जार्जिया) के रहने वाले थे । यही गोर्जिया बाद में गुर्जर या गुज्जर बन गया। इन इतिहासकारों का माना है कि 476 में श्वेत हूणों के साथ भारत आये और स्थानीय क्षत्रिय समुदाय में घुल-मिल गये। इस सिद्धांत को मानने वाले प्रमुख इतिहासकारों में हैं जार्जिया के ही डा. हुथी। वे भारत में अध्ययन के लिए आये और बताया कि किस तरह उनके देश के लोगों की बोलचाल की ध्वनि और भारत के गुर्जरों की बोलचाल की ध्वनियां मिलती जुलती हैं। संस्कृति में भी उन्होंने समानता पायी और कहा कि यह समुदाम मध्य एशियाई देशों – जार्जिया, चेचेन्या और उक्रेन आदि – से भारत आया है। उन्होंने दावा किया कि दुनिया भर के गुज्जरों, चाहे वे किसी भी धर्म या क्षेत्र में क्यों न रह रहे हों, में काफी समानताएं हैं। यदि इस सिद्धान्त को माना जाये तो गुज्जरों को अनुसुचित जनजाति का दर्जा देने में और भी समस्याएं खड़ी हो जायेंगी।

एक अन्य सिद्धान्त के अनुसार तिमुर के आतंक से मुकाबला न कर पाने के कारण ये गुज्जर भारत आ बसे। ध्यान रहे कि इस समुदाय के लोगों ने अनेक लड़ाइयां लड़ीं हैं और बहादुरी का परिचय दिया है। यहां तक कि आजादी के समय जम्मू और कश्मीर में कबाईली हमलों या पाकिस्तानी हमलों का जवाब भी इन्होंने जमकर दिया और राज्य को हमलावरों के कब्जे में नहीं जाने दिया था।

इतिहासकारों का एक तबका ऐसा भी है जो मानते हैं कि पांचवीं या छठी शताब्दी में बेहतर जगह की तलाश में ये मध्य एशिया से भारत पंजाब और राजपूताना को पार करते हुए गुजरात तक गये और वहीं बसे भी। इसी कारण गुजरात को पहले गुर्जरात्र कहा जाता था। वहां अनेक सदियों तक उनका शासन रहा।

उन्होंने स्वयं को रघुकुल वंशी भी कहा है, अर्थात भगवान राम का वंशज। कुछ इतिहासकार इन्हें सूर्यवंशी भी कहते हैं और इन्हें अग्निवंशियों से अलग बताते हैं। शुरु में इनका शासन पश्चिम राजस्थान में स्थापित हुआ और विस्तारित होकर पूर्व में कामरुप (असम) और पश्चिम में लाहौर तक गया। अरब आक्रमण का इन्होंने 300 वर्ष तक सफलता पूर्वक मुकाबला किया तब उसके बाद मुस्लिम आक्रमणकारी आये। दद्दा ने गुज्जर राज की स्थापन 650 में की थी और 1036 तक अनेक गुज्जर साम्राज्य रहा। ऐसी स्थिति में गुज्जरों को क्षत्रिय मानने वालों की भी कमी नहीं है।

जो भी हो, आज स्थिति भिन्न है। वे शासक वर्ग से नहीं हैं और आम जनता की तरह भारत की कुत्सित और संकीर्ण राजनीति में पिस रहे हैं। उधर जाटों की भी समस्या बढ़ रही है जिन्हें भी कुछ इतिहासकार गुज्जरों की तरह सिथियन मूल का मानते हैं। गनीमत है कि जाट अभी आरक्षण की मांग तो कर रहे हैं लेकिन अनुसूचित जनजाति का दर्जा नहीं मांग रहे। ध्यान रहे दोनों समुदायों की संस्कृतियों में युद्ध और मार्शल परंपराएं अबतक कायम हैं।

और भी अनेक समुदाय आरक्षण की राजनीति और उसके विरोध की राजनीति में जल रहे हैं। हिंसा और प्रतिहिंसा का माहौल है। हमारे नेता जाति और धर्म के आधार पर राजनीति तो कर रहे हैं लेकिन कल्याण और विकास के लिए सुविधाएं देने के लिए उनके पास पर्याप्त और ताजा आंकड़े नहीं हैं। ऐसी स्थिति में मार-काट कोई समाधान नहीं हो सकता। यदि हमें जाति या धर्म आधारित कल्याण और विकास के कार्यक्रम चलाने हैं तो उनके भी आधार होने चाहिए। बेहतर तो यह होता कि ज्यादा निरपेक्ष (न्यूट्रल) मानदंडों के आधार पर नीतियां बनें और लागू हों। #