धन के वितरण का इतना बड़ा अंतर निश्चित तौर पर बताता है कि प्रबध्ंान में गंभीर कमियां हैं। सरकार के इन्हीं कारनामों से पनपते गुस्से में मजबूर लोग हिंसक आंदोलनों की पनाह लेने लगते हैं। जनतंत्र पर काबिज होने के लिए कई बार आसानी से लोगों को बरगलाने में सफल हो जाते हैं। जिसके परिणाम हत्याओं के सिलसिले के रूप में सामने आते हैं। यह सब देश को ज्यादा असुरक्षित माहौल में डाल देते हैं। ऐसे खतरों का शिकार भी मूल तौर पर आम लोग ही बनते हैं। सरकारी तौर पर चाहे प्रशासनिक हो या राजनीतिक, पूरे देश की जनता व उसके कल्याण के लिए जिम्मेदार व समर्पित होता है। यहां लोग बेशर्मी से इन पदों पर बैठ भूखों मरती हुई जनता के आंकड़ो को झुठलाने व बरगलाने में लगे रहते हैं, इलाहाबाद के नजदीक गांव में मिट्टी खाकर भूख मिटाते परिवारों की खबर पाकर स्थानीय कुछ अधिकारियों ने दूसरे दिन जाकर ऐसी ही कुछ कार्रवाई की थी। उन परिवारों से कागज पर जाने क्या लिखवा-भरवाकर उन्होंने अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली थी। सरकार एक और महान कर्म अनुदान या खास वर्ग को सस्ता सामान मुहैया कराने के नाम पर करती है। उसका भी आधा या उससे ज्यादा सरकार के ही बाबू-भैया या नेता-मंत्री निबटा जाते हैं। वह सब अपने निचले स्तर के नेता व अधिकारियों को ही थोडा बहुत कमाने धमाने का मौका देने के लिए किया जाता है। आम जनता के पल्ले तो सडा-गला अंश ही पड़ता है।

वैसे भी ‘दान-दया’ की महिमा दरअसल कमजोरों और गरीबों को बनाए रखने में ही होती है। अगर कोई गरीब न हो तो आप दान किसे करेंगे और कमजोर न हो तो दया किस पर करेंगे। भाग्य भरोसे जिंदा रहने वाले इस समाज में ऐसी धारणाओं को जिंदा रखना एक षड्यंत्र के समान मालूम पड़ता है। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि दिनभर कड़ी धूप में खटकर भी मात्र 20 रूपये रोज पर जिंदा रहने वाले भी कभी विद्रोह पर उतारू नहीं होते हैं। भाग्य में यही बदा है, यही सोचकर-सुनकर वह सिर झुकाये पतितों सी जिंदगी गुजारते जाते हैं। कभी कभार ऐसे ही सरकार और साहूकार के दान-दया पर कुछ पा जाने की उम्मीद भी उन्हें जिलाए रखती है।

दूसरी तरफ दलाली, सट्टेबाजी, व्यापार आदि के नाम थोड़ी चालाकी भरी दिमागी कसरत से लाखों का वारा-न्यारा करनेे वाले वीभत्स ऐश की जिंदगी गुजारने लगे हैं। सितारों की संख्या या ब्रांड से उनका भी वर्गीकरण होता है। मसलन कितने सितारे होटल में जाकर आप खाते-पीते हैं। कौन से ब्रांड के कपड़े, जूते, बेल्ट आदि पहनते हैं, किस श्रेणी की गाड़ी का इस्तेमाल करते हैं, आदि आदि।

ऐसे देश में जहां के नागरिक मूलभूत जीवनावश्यक उपादानांे मसलन रोटी, कपड़ा व मकान से भी महरूम या वंचित हैं वहां विलासिता के ऐसे साधन संसाधनों पर बेहिसाब खर्च की अनुमति भी मानवाधिकारों का उल्लंघन है, जो मात्र नख-शिख संवारने, प्रदर्शन करने, अनुत्पादक कार्याे से जुड़ा हो। खाए-अघाये लोगों की पार्टियां जहां खान कम और नुक्ताचीनी ज्यादा हो, फैशन के नाम पर फूहड़ प्रदर्शन और जो यह अंतर्राष्ट्रीय खेलकूद होते हैं, इन आयोजनों की पार्टियों का हालचाल कभी लीजिए। अच्छे, पश्चिमी देश उतने विालासी किस्म की पार्टी आयोजन में मात खा जांएगे। दारू और भोजन की बाढ़ और रंगरेलियां से नाच गाने में सभी मदमस्त नजर आते हैं। सारा पैसा किसका खर्च होता है। कभी सोचा? यह उस जनता का पैसा है, जिसे अक्सर खाना नहीं नसीब होता, कपड़ा तो जैसे तैसे मयस्सर होती है और मकान का शायद वह सपने भी नही देखते हैं।

व्यापारी वर्ग पैसे का कैसा इस्तेमाल करता है, इसका उदाहरण और स्त्रोत दोनांे बता दूं। काफी साल पहले दूरदर्शन के लिए एक साक्षात्कार कार्यक्रम निर्देशन के दौरान एक महिला उद्योगपति का साक्षात्कार करने हमारी टीम पहुंची। वह एक बड़े होटल में उस जमाने में (1996-97) 30,000 रूपये प्रतिदिन पर सूइट लेकर रहती थी। कई महिने से वह वहां थी। मैंने कहा 30,000 रूपये महीने पर एक बड़ा बंगला आपको मिल जाएगा, यहां दो रूम के सूइट पर रोज इतने पैसे खर्चने का क्या औचित्य हैं? वह बेहद मुलामियत और दयानतदारी से मुस्कराई, फिर कंधे उचकाए और कहा, क्या करना है पैसों का? खर्च तो लगा ही रहेगा। दो ढाई साल बाद खबर आई कि सरकारी कर्ज पर फैक्टरी चलाने में कई सौ करोड़ कर घपला वह कर गई। तो ऐसा होता है, जनता का पैसा ऋण आदि के रूप में व्यापार के नाम पर लेकर उसी से निजी जिंदगी भी ऐश से गुजारते यह लोग लगातार ऐसा कुछ तिकड़म बंदर बांट के जरिए भिड़ाते रहते हैं। करोड़ों का ऋण लीजिए, फिर दो-चार साल बाद कुछ छूट करवा लीजिए या दूसरा ऋण ले लीजिए आदि आदि।

बहरहाल, एक छोटा सा प्रश्न है कि एक व्यक्ति अगर 5000 रूपये महीना कमाता है और उसके परिवार में सात-आठ सदस्य हैं तो वह पहले खाने पहनने व रहने का इंतजाम करेगा या कार-मोटर साइकिल खरीद कर घूमेगा या फिर एक समय बढ़िया होटल में जाकर सारा पैसा खर्च कर डालेगा। अगर उसका पड़ोसी लाख रूपये महीना कमाता है और घर में दो-ढाई आदमी ही हैं तो वह कार खरीद कर भले घूमे। हमारे देश की सराकर लोग अपने साधन-संसाधन व जरूरतों के मद्देनजर प्रबध्ंान के बजाय, जर्मनी-फ्रांस-अमेरिका जैसे देशों के नकल पर चलना चाहते हैं। ऐसे में दो चार उस प्रतिशत ही कार पर घूमेंगे, बाकी तो भोजन से भी जाएंगे। हमें स्टार होटल, विलासी साज सामान खर्चीले व्यर्थ आयोजनों, बड़ी-बड़ी तनखाहों, शिक्षा-स्वास्थ्य-आवास जैसे मूलभूत उपादनों को महंगा बनाते जाने जैसे कार्याे या उपायों की क्या जरूरत हैं। ‘कूड़े के ढेर से पत्तल-कप लेकर खाते चाटते भविष्य यानि होनहार बच्चों के मुंह देखता हूँ तो कलेजा बैठ जाता है। साहबी अंदाज मंे घूमते लोगों को देख कलेजा चाक हो जाता है।’