जाति जनगणना पर इतनी सारी बातें की जाने की बाद उम्मीद की जा रही थी कि सरकार मंत्रिमंडल की शुरुआती बैठकों में ही इस पर कोई निर्णय ले लेगी। बजट सत्र समाप्त होने के बाद मंत्रिमंडल की अनेक बैठकें हो चुकी हैं, लेकिन अभी तक इसके बारे में कोई निर्णय नहीं लिया जा सका है। पिछले बुधवार को हुई मंत्रिमंडल की बैठक में इस मसले को मंत्रियों के एक समूह के हवाले कर दिया गया। इस तरह से यह भ्रम को बरकरार रखा गया कि जाति जनगणना हो भी पाएगी या नहीं।

इस मामले में की जा रही देरी इसलिए भी उचित नहीं है, क्योंकि देश में जनगणना का काम शुरू भी हो चुका है। गणक घर घर जाकर जनगणना के आंकड़े इक्क्ट्ठें कर रहे हैं। यह सच है कि व्यापक जनगणना अगले साल के फरवरी महीने में होगी, लेकिन उसके पहले इसकी तैयारियों के लिए समय ज्यादा नहीं बचा है। इसलिए केन्द्र सरकार द्वारा जाति जनगणना में की जा रही देरी, बाद में समस्या पैदा कर सकती है।

वैसे सरकार के पास जाति जनगणना की उपेक्षा करने का विकल्प अब उपलब्ध भी नहीं रह गया है। संसद के बजट सत्र के समाप्त होने के बाद मद्रास उच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार को जाति जनगणना कराने के आदेश दिए हैं। यदि उस आदेश के खिलाफ केन्द्र सरकार सुप्रीम कोर्ट में अपील करके उस पर रोक नहीं लगवाती, तो उसे जाति जनगणना करनही ही होगी। फिलहाल केन्द्र सरकार ने यह संकेत नहीं दिया है कि वह मद्रास उच्च न्याायालय के उस फैसले के खिलाफ उच्चतम न्यायाला में अपील करेगी। इसलिए सह मानना चाहिए कि केन्द्र सरकार जाति आधारित जनगणना पर अपने कदम पीछे नहीं खीचेगी।

यह सच है कि केन्द्रीय मंत्रिमंडल में जाति जनगणना को लेकर मतभेद है। खुद गृहमंत्री पी चिदंबरम इसके पक्ष में नहीं है। मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल भी इसके खिलाफ हैं। खेल मंत्री एम एस गिल भी इसके खिलाफ बताए जा रहे हैं। आनंद शर्मा भी इसके खिलाफ थे, लेकिन उन्होंने अब अपना स्वर धीमा कर दिया है। कुछ लोगों के जाति जनगणना के खिलाफ होने के बावजूद मंत्रियों का बहुत बड़ा बहुमत जाति जनगणना के पक्ष में है। कानून मंत्री वीरप्पा मोइली इसका समर्थन कर रहे हैं। डीएमके के सभी मंत्री इसका समर्थन कर रहे हैं। एनसीपी भी इसके पक्ष में है। कांग्रेस के अन्य मंत्री भी जाति जनगणना के पक्ष में हैं। इसलिए केन्द्रीय मंत्रिमंडल द्वारा जाति जनगणना को लेकर निर्णय करने मे देरी का कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता।

जाति जनगणना का बौद्धिक तबकों में विरोध भी हो रहा है। इसके खिलाफ उनके अभियान भी चल रहे हैं। उन्हें लगता है कि इससे समाज में जातिगत कटुता और बढ़ेगीण् जिससे समाज का नुकसान ही होगा। उन्हें यह भी लगता है कि जाति जनगणना के बाद आरक्षण की सीमा को और बढ़ाने की मांग हो सकती है। इसलिए जो लोग आरक्षण का विरोध करते थे, वे जाति जनगणना का भी विरोध कर रहे हैं। आरक्षण का विरोध करते हुए कहते थे कि आरक्षण देने के लिए आंकड़े सरकार के पास नहीं हैख् इसलिए आरक्षण देना अनुचित है। और जब सरकार आंकड़े एकत्र करने के लिए जातिगत जनगणना का संकेत दे रही है, तो वे यह कहकर उसका विरोध कर रहे हैं कि इसके कारण आरक्षण की मांग और तेज होगी।

लंेकिन उनका यह डर गलत है। सुप्रीम कोर्ट का निर्णय है कि आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकती। यह निर्णय अब संविधान का एक प्रावधान की ताकत रखता है। इसलिए कोई सरकार आरक्षण की सीमा को 50 फीसदी से ऊपर नहीं बढ़ा सकती। इसलिए ज्यादा आरक्षण होने की तो कोई संभावना नहीं है। इसके कारण आरक्षण के अंदर आरक्षण की मांग तेज हो सकती है। जातिगत मांगे बढ़ सकती है, लेकिन उन सभी मांगों को सरकार को 50 फीसदी के दायरे में ही निबटाना होगा।

उदाहरण के लिए पिछड़े वर्गों के मुसलमानों को यह पता चल जाएगा कि उनकी कुल आबादी कितनी है और 27 फीसदी आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था में वे कितना आरक्षण पाते हैं। यदि उन्हें लगेगा कि वर्तमान व्यवस्था में उन्हें आरक्षण का समुचित लाभ नहीं मिल पाता, तो वे कह सकते हैं कि 27 फीसदी कोटे के अंदर उनका कोटा अलग से तय कर दिया जाय। यदि कुल पिछड़े वर्गों की आबादी 54 फीसदी होती है और पिछड़े वर्गो की आबादी 10 फीसदी, तो वे मांग कर सकते हैं कि 27 फीसदी के अंदर 5 फीसदी उनके लिए अलग से तय कर दिया जाए। पिछड़े वर्गो के अंदर जो तबके अत्यंत पिछड़े हैंए वे अपनी आबादी को देखते हुए उसी 27 फीसदी के अंदर अपने लिए अलग से कोटा तय करने की मांग कर सकते हैं। इस तरह की मांगों का सामना केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों को करना पड़ेगा। लेकिन उनकी पूर्ति 50 फीसदी के दायरे मे रहकर ही कनी होगी।

जाति जनगणना के जिन खतरों की ओर इशारा किया जा रहा है, उनमें से अधिकांश खतरे वास्तविक हैं। जाति का जिन्न हमारे लोकतंत्र को आज जितना परेशान कर रहा है, उससे ज्यादा परेशान कर सकता है। इसलिए जाति जनगणना के साथ ही केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों को इसे कमजोर करके समाप्त करने के प्रयास भी शुरू करने होंगे। जाति व्यवस्था ने हमारे लोकतंत्र की दलीय व्यवस्था को पराजित कर रख है। दलीय आधार के ऊपर जातीय आधार हावी हो रहें हैं और जाति आधारित दलो की आने वाले दिनो में बाढ़ आ सकती है। लेकिन अच्छी बात यह है कि केसी एक जाति की संख्या इतनी ज्यादा नहीं है कि वह चुनाव में सफल होने के लिए अन्य जातियों की उपेक्षा कर दे। इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि जाति जनगणना से निकले आंकड़े जाति को मजबूत नहीं, बल्कि कमजोर करेंगे। (संवाद)