राज्य में राजनैतिक अस्थिरता की शुरुआत तो उसी दिन हो गई थी, जिस दिन सोरेन की सरकार भाजपा के समर्थन से बनी थी। विधानसभा में किसी का बहुमत नहीं था। सोरेन की पहली प्राथमिकता कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनााने की थी, लेकिन कांग्रेस ने उन्हें समर्थन करने से इनकार कर दिया था। श्री सोरेन ने भी कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार को समर्थन देने से इनकार कर दिया। भाजपा श्री सोरेन के समर्थन में आ गई और सरकार बन गई।

लेकिन बजट सत्र के दौरान श्री सोरेन ने भाजपा द्वारा बजट के खिलाफ लाए गए कटौती प्रस्ताव के खिलाफ मतदान कर दिया। इसके कारण भाजपा के तीन राष्ट्रीय नेता आग बबूला हो गए। लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली ने सोरेन सरकार से समर्थन वापस लेने का फैसला कर लिया। लेकिन उस फेसले के बाद भाजपा सत्ता के लोभ में डांवाडोल होने लगी।

हेमंत सोरेन ने भाजपा को सरकार का नेतृत्व करने का प्रस्ताव दे दिया। फिर क्या था भाजपा को उस संकट में फायदा दिखाई पड़ने लगा और वह अपने किसी नेता को मुख्यमंत्री बनानें के चक्कर में सोरेन सरकार से समर्थन वापसी के अपने प्रस्ताव को अमल में लाने का विचार स्थगित करने लगी। उसने सोरेन पद दबाव बनाना शुरू कर दिया और अंत में दोनों के बीच 28- 28 महीने के मुख्यमंत्री बनने की सहमति हुई।

लग रहा था कि भाजपा के लिए सबकुछ ठीकठाक चल रहा है लेकिन श्री सोरेन ने मुख्यमंत्री का पद छोड़ने से साफ इनकार कर दिया। उसके बाद भाजपा ने राज्य सरकार से समर्थन वापस ले लिया। समथ्रन वापसी के बाद सरकार अल्पमत में आ गई है। राज्यपाल ने सोरेन सरकार को एक सप्ताह के अंदर विधानसभा में समर्थन हासिल करने के लिए कहा है।

भाजपा के साथ साथ जनता दल(यू) के विधायकों ने भी सोरेन सरकार से समर्थन वापस ले लिया है। अब उनके पास मात्र 25 विधायकों का समर्थन हासिल है। 18 विधायक तो उनके अपने हैं। 5 विधायक आल झारखंड स्अुडेंट्स यूनियन का है। दो अन्य विधायक भी उनका समर्थन कर रहे हैं। सोरेर सरकार तभी समर्थन हासिल कर सकती है, यदि कांग्रेस का उसे सहयोग मिले, लेकिन कांग्रेस भी श्री सोरेन को मुख्यमंत्री बनाए रखने के पक्ष में नहीं है। कांग्रेस यदि मान भी ले, तो उसके सहयोंगी झारखंड विकास पार्टी झामुमों सरकार को समर्थन देने के लिए किसी भी हालत में तैयार नहीं है।

जाहिर है श्री सोरेन की सरकार बचती हुई नहीं दिखाई पड़ रही है। इस सरकार के गिरने के बाद किसी वैकल्पिक सरकार के गठन की उम्मीद भी नहीं दिखाई पड़ रही है। सरकार का नेतृत्व करने को लेकर कांग्रेस और उसके सहयोगी नेता बाबूलाल मरांडी में भी मतभेद है। कांग्रेस अपने नेतृत्व में सरकार बनाना चाहती हैख् तो बाबूलाल मरांडी अपने नेतृत्व मंे। कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार को ज्यादा से ज्यादा बाहर रहकर समर्थन देने की बात बाबूलाल करते हैं। कांग्रेस के पास एक और फार्मूला है। वह चाहती है कि बाबूलाल कांगेस में शामिल हो जाएं और उसके बाद झारखंड सरकार का नेतृत्व करें, लेकिन इसके लिए भी बाबूलाल तैयार नहीं हैं।

यानी सोरेन सरकार के गिरने के बाद कोई सरकार बनने की भी कोई संभावना नहीं है। वैसी हालत में राज्य में राष्ट्रपति शासन ही एकमात्र विकल्प दिखाई पड़ता है। (संवाद)