1990 का दशक स्मरण करें, एक युग जो आर्थिक सुधारों का था और राजनीतिक संक्रमण का भी जिसकी मुख्य धारा सामाजिक न्याय की थी। स्वाभाविक तौर पर सामाजिक-आर्थिक मुद्दे पत्रकारिता के मुख्य मुद्दे थे। परन्तु उस समय हिंदी पत्रकारिता में आर्थिक मुद्दों पर मौलिक लेखन का अभाव हुआ करता था। आर्थिक मुद्दों पर हिंदी के मौलिक लेखक कम ही हुआ करते थे, तथा भारत के बड़े हिंदी समाचार पत्रों में भी आर्थिक मामले के लिए अलग से संपादक नहीं हुआ करते थे। हिंदी समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में अधिसंख्य आलेख तथा टिप्पणियां अंग्रजी से अनुवादित कर छापे जाते थे।

ऐसे दौर में उपेन्द्र प्रसाद दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स से पढ़कर निकले थे और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में उच्च्तर शिक्षा हासिल कर रहे थे। उन्होंने आर्थिक विषयों पर नवभारत टाईम्स में मौलित लेखन प्रारम्भ किया था। उस दौर के महान पत्रकार राजेन्द्र माथुर नवभारत टाइम्स के संपादक हुआ करते थे जिन्हें उपेन्द्र प्रसाद के लेख इतने पसंद आये कि उन्हें आर्थिक मामलों पर ही लिखने के लिए सहायक सम्पादक नियुक्त कर लिए। उस समय के लिए यह एक बड़ी घटना थी जो एक प्रकार से ऐतिहासिक भी थी, क्योकि हिन्दी पत्रकारिता में तबतक ऐसी नियुक्तियां सुनी नहीं जाती थी। वह वर्ष था 1990।

उसी वर्ष तत्कालीन प्रधान मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन की अनुशंसाओं को भारत में लागू किया था जिसने भारत के सम्पूर्ण सामाजिक-राजनीतिक ढांचे को प्रभावित किया। आर्थिक उदारीकरण का दौर 1992 में मनमोहन सिंह के वित्त मंत्रित्व तथा नरसिंहा राव के प्रधान मंत्रित्व में शुरी हुआ। इस प्रकार भारत के सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक जगत में एक प्रकार की सनसनी और अनिश्चितता फैली थी। ऐसे माहौल में उपेन्द्र प्रसाद के बड़े ही प्रभावकारी और उत्कृष्ठ आलेख और संपादकीय नवभारत टाइम्स में छपते थे, जो अपनी मौलिकता और दो-टूक टिप्पणियों के लिए जाने जाते थे, और समाज तथा राजनीतिक गलियारों में प्रभावशाली रहे।

एस सहायक सम्पादक के रुप में वह 1994 तक नवभारत टाइम्स दिल्ली में ही रहे। जब नवभारत टाइम्स ने पटना से अपना संस्करण प्रकाशित करने का निर्णय किया तो उसी वर्ष उन्हें स्थानीय सम्पादक बनाकर पटना भेज दिया गया। जो भी हो, परिस्थियों ने प्रबंधन को 1995 में पटना संस्करण को बंद करने पर विवश कर दिया। उसके बाद उपेन्द्र प्रसाद दिल्ली आ गये और 2001 तक नवभारत टाइम्स में रहे।

वह समाजिक न्याय के पक्ष में थे और आर्थिक सुधारों के भी, परन्तु जल्तबाजी में तथा वैसे निर्णयों को विरूद्ध रहे जो अंततः समाज का नुकसान करते हों। वह नीतियों को धीरे-धीरे सतर्कता से लागू करने के हिमायती रहे। उन्होंने आरक्षण का समर्थन किया परन्तु वह हमेशा यह कहते रहे कि इसका लाभ कुछ ही जातियां उठा पा रही हैं तथा अनेक अत्यंत पिछड़ी जातियों तथा महादलितों को इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है। उन्हों आरक्षण के मामले में नये सिरे से चिंतन की आवश्यकता पर जोर दिय ताकि सभी पिछड़ी जातियों और महादलितों को मुख्य धारा में लाया जा सके। वह क्रीमी लेयर को आरक्षण के पक्ष में नहीं रहे। उनके इस रूख ने सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले नेताओं, जैसे लालू यादव, नीतिश कुमार, शरद यादव, और मुलायम सिंह यादव को आकर्षित किया।

उपेन्द्र प्रसाद बिहार के विभाजन के भी विरूद्ध थे और वह चाहते थे कि झारखंड अलग न हो। उन्होंने बिहार के नेताओं के झारखंड के विरूद्ध रूख का भी विरोध किया जिसके कारण ही झारखंड अलग हुआ। उनका मानना था कि झारखंड और बिहार के एक साथ रहने में ही भलाई थी और अब जब दोनों राज्य अलग हो गये हैं तब भी उनकी एकता से ही दोनों के दुःख दूर हो सकते हैं। उनके इसी राजनीतिक दृष्टिकोण के कारण अनेक झारखंडी नेता, जैसे झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता सूरज मंडल, उनकी ओर आकर्षित हुए।

उन्होंने सामाजित आर्थिक और राजनीतिक विषयों पर, उनकी विषमताओं पर, और उनकी विरोधाभाषों पर दो-टूक लिखा जिसके कारण सामज तथा राजनीतिक गलियारों में उनके लेखन को गंभीरता से लिया जाता था।

2001 में नवभारत टाइम्स छोड़ने के बाद उन्होंने अनेक समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं के लिए लिखा। सन् 2008 में उन्होंने आईपीए की हिंदी सेवा संवाद से सम्पादक के रूप में अपना योगदान किया तथा 23 सितंबर 2022 को निधन होने तक यहीं रहे। ऐसे तेजस्वी पत्रकार और बहुत ही प्रिय व्यक्तित्व वाले ऐस व्यक्ति को खोना आईपीए-संवाद परिवार की अत्यंत दुःखद क्षति है।

भारत के सांस्कृतिक तथा धार्मिक जीवन के प्रति उनकी गहरी रूचि थी जिसके कारण उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय में नामांकन कराकर संस्कृत तथा कर्मकांड भी सीखा। उन्होंने योग भी सीखा। भारत की जाति व्यवस्था पर उनका गहरा अध्ययन था। इसी कारण उनके सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक लेखन में एक विशेषता थी।

वह बिहार के पटना जिले के बाढ़ अनुमंडल स्थित भटगांव पंचायत के दलिश मंद चक गांव में 4 मई 1963 को पैदा हुए थे। वह पटना कॉलेजिएट स्कूल में पढ़े तथा पटना कालेज से अर्थशास्त्र में स्नातक हुए। उसके बाद वह दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स पढ़ने चले आये जहां से वह आर्थिक मामलों में मौलिक लेखन करने लगे। बाद में उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी उच्चतर शिक्षा हासिल की। उनका लेखन अपने आप में विशिष्ठ श्रेणी का है।

आईपीए-संवाद परिवार उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है तथा कामना करता है कि उनकी पुत्री और पत्नी को इस दुःख पर विजय पाने की शक्ति प्राप्त हो।