भारत में मुद्रा स्फीति की दर मुख्य रूप से खाद्य पदार्थों की कीमतों में वृद्धि से प्रभावित रही है, जिसका सीधा प्रभाव समाज के गरीब एवं कमजोर तबके पर पड़ता है। 2020 के लॉकडाउन के समय से ही भारत की 140 करोड़ आबादी में से 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन दिया जा रहा है। यदि उक्त योजना को 30 सितंबर के बाद जारी नहीं रखा गया तो देश की एक बड़ी जनसंख्या पर इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि उनमें से अधिकसंख्य लोगों के लिए खाद्य सामग्रियों के दाम उनकी पहुंच से बाहर हो चुके हैं।

यद्यपि गरीबों को बचाने के लिए सरकार के लिए वित्त नीति में परिवर्तन करना अत्यंत आवश्यक है,यह मुद्रास्फीति नियंत्रित करने वाली मुद्रानीति के विरूद्ध होगा। उल्लेखनीय है कि वित्त नीति भारत सरकार तय करती है, जबकि मुद्रा नीति रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया। केंद्र सरकार के लिए उदार वित्त नीति अनिवार्य दिखता है क्योंकि उसके बिना विपन्नों की सहायता नहीं की जा सकती, परन्तु इसके मुद्रास्फीति पर बढ़ेगा जिसे नियंत्रित करने के लिए रिजर्व बैंक पर ब्याज दर में वृद्धि करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा।

ऐसी परिस्थिति में एक तरफ तो मांग बढ़ेगी, जो महंगाई बढ़ायेगी, वहीं दूसरी ओर वित्त एवं मुद्रा नीति में कड़े प्रावधानों की आवश्यकता होगी। इस दुश्चक्र से लोगों एवं अर्थव्यवस्था को बाहर निकालने के लिए मोदी सरकार को इस नाजुक दौर में विकास के लिए उचित माहौल का निर्माण करना होगा जसके लिए मूल्य नियंत्रण एक नाजुक शर्त है। ऊंची ब्याज दर से निवेश तथा उत्पादन महंगा हो जायेगा जो फिर महंगायी बढ़ायेगी।

केन्द्रीय उपभोक्ता मामलों के विभाग की वेबसाईट पर उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि पिछले वर्ष की तुलना में चावल के अखिल भारतीय दैनिक औसत खुदरा मूल्य में 9.03 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि गेहूं के 14.39 प्रतिशत तथा गेहूं के आंटे के खुदरा मूल्य में 17.87 प्रतिशत। इसी प्रकार चावल के अखिल भारतीय दैनिक औसत थोक मूल्य में 10.16 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि गेहूं में15.43 प्रतिशत तथा गेहूं के आंटे के खुदरा मूल्य में 20.65 प्रतिशत।
चावल देश का प्रमुख भोजन है। भारत सरकार के कृषि मंत्रालय का अनुमान है कि इस वर्ष खरीफ मौसम में चावल का उत्पादन मात्र 104.99 मिलियन टन रहने वाली है, जो पिछले वर्ष की तुलना में 6 प्रतिशत कम है। यही कारण है कि मंत्रालय ने घरेलू बाजार में चावल की कीमतों में कम-से-कम एक वर्ष यानी अगले खरीफ मौसम तक बृद्धिकायम रहने की संभावना स्वीकार की है।

इससे राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत वितरित किये जाने वाले तथा जन वितरण प्रणाली के लिए चावल की खरीद में नयी कठिनाइयां उत्पन्न होंगी। ध्यातव्य है कि भारत सरकार ने हाल ही में चावल के निर्यात पर प्रतिबंध लगाया है, ताकि घरेलू बाजार में इसकी कीमतों को नियंत्रित रखा जा सके, लेकिन इसमें सफलता नहीं मिली। घरेलू बाजार में चावल के दाम लगातार बढ़ रहे हैं।

मंत्रालय ने कहा है कि खनिज तेल में इथैनॉल मिश्रण कार्यक्रम को प्रोत्साहन देकल आयात पर खर्च बचाने तथा पशुपालन एवं मुर्गीपालन जैसे क्षेत्रों को मदद कर दूध, मांस एवं अंडों की बढ़ती कीमतों से निपटने के लिए निर्यात पर रोक लगायी गयी थी। फिर भी पिछले चार वर्षों में टूटे चावल के निर्यात में 43 गुना वृद्धि हुई है, जो 2019 के 0.51 लाख मिट्रिक टन से बढ़कर अप्रैल-अगस्त 2022 के दौरान 21.31 लाख मिट्रिक टन हो गया। इसके परिणाम स्वरूप घरेलू बाजार में टूटे चावल का मूल्य 16 रुपये प्रति किलोग्राम से बढ़कर 22 रुपये प्रति किलोग्राम हो गया। इससे पशुपालन एवं मुर्गीपालन की लागत60 से 65 प्रतिशत बढ़ी, जिसके परिणाम स्वरूप मांस, अंडे एवं दूध के दामों में वृद्धि हई, जो खाद्य मुद्रास्फीति में वृद्धि का कारण बना।

इस मामले में मोदी सरकार के पास बहुत कम विकल्प हैं। एक ओर सरकार को इथैनॉल उत्पादन के लिए अनाजों के उपयोग की स्वीकृति नहीं देनी चाहिए, क्योंकि 60 प्रतिशत से भी अधिक जनसंख्या को मुफ्त राशन देने की आवश्यकता है, जो बाजार मूल्य पर इसे खरीदने में सक्षम नहीं हैं, वहीं दूसरी ओर तेल की कीमतों को नियंत्रित रखने हेतु और विदेशी मुद्रा भंडार को बचाने हेतु सरकार कोस्वीकृति देने की आवश्यकता भी है। यह एक विकट स्थिति है।
ऐसा प्रतीत होता है कि मोदी सरकार के पास इसे सुलझाने के सूत्र उपलब्ध नहीं हैं। फिलहाल तो वह इंतजार करो और देखो की नीति पर चल रही है, जबकि मुद्रा स्फीति की दर 7 प्रतिशत बनी हुई है, जो पिछले आठ वर्षों में सर्वाधिक है, जो आरबीआई के चार से छह प्रतिशत की सह्य सीमा से अधिक है। मुद्रा स्फीति की ऊंची दर ब्याज दर बढ़ाने के लिए मजबूर करती दिख रही है परन्तु रिजर्व बैंक इसे चार प्रतिशत तक घटाने से डर रही है क्योकि इसे अर्थव्यवस्था को नुकसान होगा।

विकास तथा मुद्रस्फीति संतुलित रहना ही चाहिए इसलिए इसिलए वित्त तथा मुद्रा नितियों पर सावधानी से विचार करने की आवश्यकता है। केंद्र सरकार एवं रिजर्व बैंक के जिम्मेदार अधिकारी मुद्रा स्फीति को 6 प्रतिशत तक नीचे लाने पर सहमति जताते हैं, तथा उसके लिए कदम भी उठा रहे हैं फिर भी मुद्रा स्फीति की दर मई 2022 में आठ वर्षों के उच्चतम स्तर 7.79 प्रतिशत पर पहुंच गयी। उसके बाद भी मुद्रा स्फीति 7 प्रतिशत के आसपास बनी रही। इसके कारण ब्याज दरों को बढ़ाने का बहुत अधिक दबाव है। एक सप्ताह के भीतर हमें पता चल जायेगा, क्योंकि अगले 30 सितंबर को रिजर्व बैंक की रपट आने वाली है।

मोदी सरकार ने हाल के महीनों मेंवित्त नीति में सुधार लाने की कोशिश की, जिसमें पेट्रोल, डीजल के दामों में कमी लाना एवं चावल तथा चीनी इत्यादि के निर्यात पर प्रतिबंध लगाना शामिल है, परंतु मुद्रा स्फीति को वह 7 प्रतिशत से नीचे नहीं ला सकी। 2022-23 की प्रथम तिमाही में 13.5 प्रतिशत के आर्थिक विकास दर के साथ मोदी सरकार ने जनता को खुश करने के ले सुशासन का प्रचार किया जो कि विशुद्ध रूप से राजनीतिक है। सच्चाई यह है कि रिजर्व बैंक के पूर्वानुमानित16.2 प्रतिशत से यह नीचे है और पूरे साल के लिए सकल घरेलू उत्पाद7.5 प्रतिशत रहने की उम्मीद है, जबकि अनेक ताजा अन्तर्राष्ट्रीय अनुमानों के मुताबिक बढ़ी हुई मुद्रा स्फीति एवं बिगड़े वित्तीय कारणों से यह 7 प्रतिशत के आसपास ही रहेगी।

निश्चित रूप से भारत कठोर संकट के दौर से गुजर रहा है और गरीब एवं कमजोर लोग खाद्य पदार्थों की कमी के झटके से भीतर तक हिल गये हैं। मोदी सरकार को चाहिए कि वह इंतजार करो तथा देखो की नीति पर चलने के बजाय ऐसे रास्ते और तरीके ढूंढ़े जिससे यह संकट दूर हो सके, वरना झटके पर झटके लगते रहेंगे। (संवाद)