गहलोत कुछ भी हो सकते हैं पर गजनी नहीं हो सकते। एक हाथी उसे उनकी स्मृति से ईर्ष्या करेगा। लेकिन गहलोत को बाजीगर और जादूगर भी बताया गया है। और जब से उनका नाम कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के लिए आया है, वह कुछ ज्यादा ही करतब दिखा रहे हैं, तथा लोगों के पूरे झुंडों को अनुमान लगाने पर छोड़ रखा है कि आखिर इस तरह के राजनीतिक खेल खेलने के पीछे उनका इरादा क्या है?
मसलन, अशोक गहलोत की वफादारी कहां है? पहला विचार जो दिमाग में आता है वह यह है कि गहलोत केवल गांधी परिवार के प्रति वफादार हैं, और उसी क्रम में कांग्रेस के प्रति। फिर, पिछले कुछ दिनों में, यह समझ में आया कि जब संकट की बात आती है तो एक आदमी केवल अपने प्रति वफादार होगा, और गहलोत इस मानक से अलग नहीं हैं।
बात यह भी सामने आयी कि अशोक गहलोत के लिए भी हाथ में एक पक्षी झाड़ी में दो के बराबर है। अक्टूबर 19, 2022के बाद चीजें बदल सकती हैं, क्योकि तब तक कांग्रेस अध्यक्ष का फैसला हो जायेगा, और उसके बाद पवित्र फरमान
यह विश्वसनीय सिद्धांत था। राजस्थान के मुख्यमंत्री का पद छोड़ने का फैसला करने से पहले गहलोत यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि वह कांग्रेस अध्यक्ष चुने लिये गये हैं। लेकिन लाइनों के बीच का अर्थऐसा लगता है कि गहलोत 'कांग्रेस अध्यक्ष' और साथ ही 'राजस्थान मुख्य मंत्री' दोनों पदों पर बने रहना चाहते थे।
अशोक गहलोत खुद को टू-इन-वन मानने लगे थे। उन्हें लगा कि राजस्थान की राजनीति में उनसे लंबे कद का कोई नहीं है, जिनके पास दूसरों को मारने के लिए जादुई जूते हैं। और वह छोटे युना नेता को चाहते भी नहीं हैं, जो वास्तव में वैसे पायलट हों जो उनके स्थान पर मुख्य मंत्री बन सकें। अशोक गहलोत तथा सचिन पायलट की दुश्मनी अनुमान से कहीं ज्यादा गहरी है।
अगर पायलट ने डींग नहीं मारी होती तो वही राजस्थान में कांग्रेस का नेतृत्व संभालते गहलोत नहीं। तो क्या महज इसी कारणउन्हें मुख्य मंत्री बनाया जाना चाहिए? और क्या अशोक गहलोत ने पायलट को 'निकम्मा' नहीं कहा था? इसके अलावा, अगर पायलट की एकिलिज हील (वह स्थान जो जानलेवा है) उनका बहुत ही युवा दिखना है तो मानेसर में उनकी वाटरलू (हार) अब भी इंतजार कर रही होगी।पायलट पर मानेसर में दाग लगा थाजहां वह 2018 में गहलोत के खिलाफ 25 साथी-योद्धाओं के साथ मोर्चा ले रहे थे, अंततः अनुभवी राजनीतिक युद्ध के योजनाकार से हारने के लिए जिसके जादू और शक्ति से पार नहीं पार नहीं पाया जा सकता था।
इस बार ऐसा लग रहा था कि गहलोत की मुसीबतों में सिर्फ सचिन पायलट ही नहीं हैं। कुछ कांग्रेसियों को यह असहज संकेत मिला कि गहलोत भी आलाकमान से जूझ रहे हैं। क्या पहले कांग्रेस अध्यक्षों ने एक ही समय में दो पदों पर कार्य नहीं किया था? इंदिरा गांधी प्रधान मंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष दोनों थीं। अशोक गहलोत ऐसे व्यवहार कर रहे हैं मानो उनके पास इंदिरा जैसा दिमाग है।
जब भी अशोक गहलोत को दुविधा होती है या वह किसी के साथ दुविधा में होते हैं तो मंदिर का दरवाजा खटखटाते हैं। 25 सितंबर कोजब पूरा जयपुर राजनीतिक अनिश्चितता में डूबा हुआ था, गहलोत अज्ञात में चले गये और कांग्रेस का संकट सत्ता के लिए उनकी बेलगाम चाहत का परिणाम था।
गहलोत शायद अपनी शक्ति को दोगुना करना चाहते थे। 'वन मैन-वन पोस्ट' उसका कोड नहीं है। यह राहुल गांधी की कल्पना है। अभी दो दिन पहले गहलोत भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहे थे।25 सितंबर को वह जैसलमेर के तनोट माता मंदिर में थे, जो न तो पाकिस्तानी बम और न ही मोबाइल टावर के पहुंच में थे।
पूरे दिन के लिए अशोक गहलोत गुप्त बने रहे। कांग्रेस पर्यवेक्षक अजय माकन और मल्लिकार्जुन खड़गे, जिन्हें सोनिया गांधी ने खुद जयपुर भेजा था ताकि दरारें पाटी जा सकें, भी उनसे बात न कर सके। वह कोई ढीली तोप नहीं बल्कि एक टिक-टिक टाइम-बम था जो उनके चुने हुए दिन और स्थान पर फूटना था।
क्या गहलोत अपने जूतों से बाहर हो रहे हैं और आलाकमान को चकमा देने के लिए तैयार थे? 26 सितंबर कोऐसी खबरें हैं कि गहलोत ने गांधी परिवार और कांग्रेस पार्टी के प्रति अपनी वफादारी को पुनः प्राप्त कर लिया है, जिसमें उन्होंने दशकों तक लगातार सेवा की है। रिपोर्टों में कहा गया है कि गहलोत ने सोनिया गांधी से कहा है कि वह 2023 में कांग्रेस के लिए राजस्थान को बनाये रखने के लिए किसी को भी "चुन" सकती हैं!जाहिर है, गहलोत को सुबह की कॉन्फ्रेंस कॉल में "नई पीढ़ी" का संकेत मिला, याउन्होंने स्वयं अपने आकलन को दुरूस्त कर लिया। (संवाद)