ब्रेंट कच्चा तेल अब अस्सी डालर प्रति बैरल पर मिल रहा है, जो जून में 124 डॉलर तर चढ़ गयी था। घटी हुई कीमतों के नीचे आने के कोई संकेत भी नहीं हैं क्योंकि ओपेक+ उत्पादन को कर, यदि और स्पष्ट कहें तो आपूर्ति के एक लाख बैरल प्रति दिन कर,कीमतें ऊंची बनाये रखने में सफलता नहीं पायी। विश्लेषक बाजार में अत्यधिक आपूर्ति के बने रहने के दुष्परिणाम के रूप में आपूर्ति की सुनामी का इंतजार कर रहे हैं।
अत्यधिक आपूर्ति बने रहने की संभावनाओंने स्विंगउत्पादक सऊदी अरब, जो उत्पादन में कमी-बेशी कर पूरे खनिज तेल बाजार को प्रभावित करने की क्षमता रखता है, को अपनी उस भूमिका पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर कर दिया है और पहला विचार बाजार में उसकी हिस्सेदारी की रक्षा करना है, जो पहले से ही बाजार की गत्यात्मकता में बदलाव के कारण झटका खा चुका है। अत्यधिक आपूर्ति की स्थिति अंततः मूल्य युद्ध में समाप्त होता है, जो वास्तविक खतरा है और जिसका सामना अब खनिज तेल कार्टेल के सदस्यों को करना पड़ रहा है।
बाजार की नयी गत्यात्मकता ने भारत और चीन जैसे देशों की मदद की, जिन्होंने क्रेमलिन के खिलाफ प्रतिबंधों के माध्यम से पश्चिमी देशों द्वारा वांछित दायित्वों के आगे अपने वाणिज्यिक हित और सुरक्षा को महत्व देने का फैसला किया। स्थिति यह है कि प्रतिबंध लागू करने वाले देश, विशेष रूप से यूरोपीय राष्ट्र, ऊर्जा लागत के साथ-साथ आपूर्ति बाधाओं दोनों के मामले में बुरी तरह प्रभावित हुए हैं।
भारत पहले ही रूस का नंबर 2 तेल खरीदार बन गया है, चीन शीर्ष स्थान पर है, क्योंकि मॉस्को ने अपने यूराल क्रूड को कम कीमतों पर बेचना शुरू किया है। इस प्रक्रिया मेंइराक के बाद रूस भारत का दूसरा सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता बन गया। दीर्घावधि अनुबंधों की मेहरबानी से इराक अपनी स्थिति पर बना हुआ है। भारत और चीन द्वारा रूसी तेल के बढ़े हुए उठाव ने, वास्तव में, पश्चिमी प्रतिबंधों पर अंकुश का काम किया, जिसके परिणामस्वरूप रूस के कच्चे तेल का उत्पादन युद्ध पूर्व के स्तर से बढ़ गया, जिसका अर्थ है पुतिन की वित्तीय शक्ति को निचोड़ने के अमेरिकी कदम का कमजोर पड़ जाना।
प्रकाशित अनुमानों के अनुसार, भारत ने रियायती रूसी कच्चे तेल का अधिक आयात करके 35,000 करोड़रुपये का अप्रत्याशित लाभ कमाया। नई दिल्ली को रूस से आयातित कच्चे तेल पर औसतन 30 डॉलर प्रति बैरल की छूट मिली। ऊपर सेयूराल क्रूड खरीद का मध्य पूर्वी से परंपरागत आयात पर भी समान प्रभाव पड़ा। दरअसल, भारतीय रिफाइनरी कंपनियों ने मध्य पूर्वी कच्चे तेल के बदले रूसी तेल मंगया जिससे उन्हें बड़ा मुनाफा हुआ।
लेकिन इन सभी लाभों का लाभ उपभोक्ताओं को नहीं मिला, क्योंकि तेल कंपनियों ने अपनी कीमतों को कम नहीं किया, इसके बावजूद कि भारत ने खुले बाजार की नीति अपना रखी है, और वे हमेशा कीमतों में वृद्धि के लिए खुली बाजार नीति का हवाला देती हैं। जहां तक भारतीय उपभोक्ताओं का संबंध है, उनके लिए खुली बाजार नीति तभी लागू होती है जब कीमतें बढ़ानी होती हैं, उस समय नहीं जब कीमतें घटाने का समय आता है। तेल कंपनियां अपनी जेबें भर रही हैं, जाहिर तौर सरकार के साथ मिलीभगत के कारण।
अधिक से अधिक, कंपनियों के पास भारी मुनाफ जमा हो रहा है जिससे वे उस समय भरपायी कर सकते हैं जब केन्द्र सरकार चुनावों से पहले कंपनियों के कहे कि वे चुनाव हो जाने तक अब कीमतें न बढ़ायें। अतीत में भी ऐसा हो चुका है जब केन्द्र सरकार को आभारी बनाने के लिए कम्पनियों ने तेल की कीमतें बढ़ानी बंद कीं। लेकिन जैसे ही चुनाव समाप्त हो गये, वे पुराने रवैया पर वापस आ गये, तथा तेल की कीमतें बढ़ाकर अपनी तिजोरी भर ली और लाभ में कमी की भरपाई कर ली।
विधानसभा चुनावों का एक महत्वपूर्ण दौर आ रहा है, जिसमें मोदी के अपने राज्य गुजरात में भी हिमाचल प्रदेश के साथ-साथ चुनाव होने वाले हैं। फिर मेघालय में भी चुनाव होंगे। पंजाब में लगभग तख्तापलट करने के बाद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भाजपा के लिए एक गंभीर चुनौती बन गयी है।मोदी सरकार के लिए दांव पर बहुत कुछ है और पेट्रोलियम कंपनियों के साथकीमतें घटाने बढने का खेल खेलने की उम्मीद है। भारत की खुले बाजार की पेट्रोलियम मूल्य नीति इसी तरह चल रही है: लोगों से धोखाधड़ीके साथ । (संवाद)
कच्चे खनिज तेल की कीमतें घटीं पर उपभोक्ताओं को कोई राहत नहीं
चुनाव आने के पहले खूब कमा रही हैं तेल कंपनियां
के रवीन्द्रन - 2022-09-29 14:29
अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में खनिज तेल की कीमतें यूक्रेन युद्ध शुरू होने के पहले के स्तर पर नीचे आ गयी हैं, जिसका अर्थ है कि बाजार ने न केवल आपूर्ति में व्यवधान के झटके को अवशोषित कर लिया है, बल्कि तेल कार्टेल के खेल का अंतिम दौर आ रहा है। हालाँकि, युद्ध ने तेल बाजार की गतिशीलता में व्यापक परिवर्तन किया है जिससे भारत को बड़ा लाभ हुआ, लेकिन भारतीय तेल उपभोक्ताओं को नहीं।