इस पृष्ठभूमि में उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के सैफई गांव में विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं का दौरे का राजनीतिक महत्व बढ़ गया है। अखिलेश यादव को राष्ट्रीय और क्षेत्रीय नेताओं के साथ बातचीत करने का अवसर मिला, जिससे उन्हें संसद में तीसरे कार्यकाल के लिए भी जीत की आकांक्षा रखने वाले मतदादाओं के लिए कुछ करने का अवसर प्राप्त हुआ। भाजपा का सामना करने के लिए मतदाताओं को व्यवहार्य विकल्प प्रदान करने के लिए ऐसे टिकाऊ विपक्षी गठबंधन की रणनीति तैयार करने में उन्हें मदद मिलेगी।

अखिलेश यादव से बातचीत करने के लिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गांव सैफई के दौरे को काफी अहमियत दी जा रही है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जनता दल के पूर्ववर्ती गुटों के विलय के लिए बहुत मेहनत कर रहे हैं ताकि लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा को टक्कर देने के लिए अन्य समान विचारधारा वाले दलों के साथ गठबंधन करने के लिए इसे मुख्य विपक्षी दल के रूप में पेश किया जा सके।

वह चाहते हैं कि उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव, हरियाणा में ओम प्रकाशचौटाला, कर्नाटक में देवेगौड़ा और उनकी अपनी जद (यू) अन्य समान विचारधारा वाली पार्टियों और अन्य राज्यों में समूहों के नेतृत्व वाली पार्टियां एक मंच पर एक साथ आयें और जल्द से जल्द एकजुट विपक्ष के लिए चर्चा शुरू करें।

यहां यह उल्लेखनीय है कि कुछ साल पहले इसी तरह के प्रयास किये गये थे लेकिन पूरी प्रक्रिया को कुछ नेताओं ने विफल कर दिया था।गौरतलब है कि अपने पिता के निधन तथा13 दिनों के शोक के बाद अखिलेश यादव को पार्टी संगठन और राज्य व जिला इकाइयों को मजबूत करने पर ध्यान देना होगा। अखिलेश यादव को अब निष्क्रिय पड़े फ्रंटल संगठनों को फिर से संगठित करना होगा।
अखिलेश यादव के सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी का सामाजिक आधार बढ़ाना है। हालांकि यूपी विधानसभा और वोट शेयर प्रतिशत में विधायकों के मामले में वृद्धि हुई है, लेकिन समाजवादी पार्टी को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति, उच्च जाति और एमबीसी में पैठ बनाने की जरूरत है।

अखिलेश यादव को यह महसूस करना चाहिए कि 2014 के लोकसभा चुनावों से लगातार भाजपा की जीत ने साबित कर दिया है कि भगवा ब्रिगेड द्वारा सोशल इंजीनियरिंग एक बड़ी सफलता है। इतना ही नहीं, पश्चिमी यूपी में किसानों के आंदोलन और रालोद के साथ सपा के गठबंधन के बाद भी, जाट समुदाय के बहुमत ने भाजपा को वोट दिया।

18 से 20 प्रतिशत आबादी वाला मुस्लिम समुदाय चाहता है कि अखिलेश यादव उनके लिए लड़ते हुए उनके मुद्दों को उठायें। 1990 में जब मुलायम सिंह यादव ने बाबरी मस्जिद की रक्षा के लिए कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया, तब से वह कुछ ही समय में अल्पसंख्यकों के राष्ट्रीय नेता बन गये। उन्हें मुल्ला या मौलाना मुलायम कहलाने का डर नहीं था।

अगर अखिलेश यादव को मुस्लिम समुदाय का समर्थन लेना है तो उन्हें दिखाना होगा कि वह उनके लिये लड़ेंगे। अखिलेश यादव को मुस्लिम समुदाय से निपटने या संवाद करने के लिए बिचौलियों को खोजने की कोई आवश्यकता नहीं है। उन्हें यह काम खुद करना चाहिए।

अब यह देखना होगा कि अखिलेश यादव कैसे एक नेता के रूप में खुद को विकसित करते हैं ताकि गठबंधन में प्रवेश करने के लिए समान विचारधारा वाले दलों के साथ बातचीत की जा सके और यूपी विधानसभा और सड़कों पर भाजपा को टक्कर देने के लिए शक्तिशाली विपक्षी नेता के रूप में उभर कर लोकसभा चुनावों में पर्याप्त लाभ प्राप्त कर सकें। (संवाद)