“मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद को राज्यपाल को सलाह देने का पूरा अधिकार है। लेकिन अलग-अलग मंत्रियों के बयान जो राज्यपाल के पद की गरिमा को कम करते हैं, कार्रवाई को आमंत्रित कर सकते हैं, जिसमें राज्यपाल की खुशी के नाम पर जारी किये जाने वाले आदेशों (जिसमें उनके द्वारा की गयी नियुक्तियां तथा अन्य सुविधाएं देना भी शामिल रहते हैं) की वापसी भी शामिल है, ” खान ने पहले के अपने एक ट्वीट में कहा था।

फिर भी, सरकार के हाल के मानकों– राज्यपाल की छींटाकशी और खान के खुद के घिनौने रिकॉर्ड - के आधार पर कहा जा सकता है कि उनकी टिप्पणीउन मंत्रियों के लिए एक परदे के अंदर से दी गयी हल्की सी धमकी थी जिसका अर्थ निकाला जा सकता है कि उन मंत्रियों को बर्खास्त कर दिय़ा जायेगा। ध्यान रहे कि मंत्रियों की नियुक्तियां भी “राज्यपाल की खुशी” (ऑन गवर्नर्स प्लेजर) के नाम पर की जाती हैं, जैसी की परम्परा है। इसलिए राज्यपाल की खुशी की वापसी का अर्थ निकाला गया मंत्रियों की बर्खास्तगी। ऐसी धमकी को अनेक लोगों ने अनुचित माना और कहा कि राज्यपाल ने अपनी संवैधानिक सीमा और मर्यादा का उल्लंघन किया।

महामहिम आरिफ मोहम्मद खान ने सितंबर 2019 में केरल के राज्यपाल का पदभार ग्रहण किया था। उसके बाद से ही उनमें तथा सरकार के बीच टकराव होता रहा है। ऐसे टकराव बार-बार होते रहे हैं जिनके लिए कोई न कोई मुद्दा सामने आता रहा है। एक प्रकार से टकराव एक आवर्ती विषय बन गया है। मुद्दा चाहे कुलपतियों की नियुक्तियों पर असहमति के कारण सामने आया हो या कि दिसंबर 2019 में भारतीय इतिहास कांग्रेस के दौरान आरिफ मोहम्मद खान को शारीरिक हमले के लिए निशाना बनाने जैसे आरोप के कारण।

लेकिन पश्चिम बंगाल में जगदीप धनखड़ बनाम सीएम ममता बनर्जी की खुली लड़ाई या दिल्ली के एलजी वी के सक्सेना और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के बीच खुले विद्वेष के विपरीत खान ने इस महीने की शुरुआत में कई मौकों पर अपने विरोधियों को भी चौंका दिया है। ऐसा एक मामला था माकपा पोलित ब्यूरो सदस्य कोडियेरी बालकृष्णन के निधन का। आरिफ मोहम्मद खान उस दिग्गजअनुभवी नेता को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए कन्नूर की यात्रा की, सारे विवादों के बावजूद।

उनके करीबी लोगों का कहना है कि यह अनुकूलन क्षमता है जो एक राजनेता और अब एक संवैधानिक प्राधिकरण के रूप में खान के करियर का आवर्ती विषय रहा है। यह विशेषता, वे इंगित करते हैं, उनके दशकों के लंबे राजनीतिक करियर के दौरान आसानी से पार्टियों को बदलने के दौरान काम आया- कांग्रेस से जनता दल, बसपा और अंत में भाजपा तक पाला बदलने में।

एक सक्रिय छात्र कार्यकर्ता के रूप में अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआद करने के कुझ ही समय बाद वह 26 वर्ष की उम्र में जनता पार्टी की टिकट पर उत्तर प्रदेश के साइना विधान सभा क्षेत्र से चुनाव लड़े तथा जीतकर विधायक बन गये। 1970 के दशक की शुरुआत में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष और महासचिव के रूप में, ऐसा कहा जाता है, खान ने इस्लामी मौलवियों को विश्वविद्यालय में आमंत्रित करने से इनकार कर दिया था।

एक नव निर्वाचित विधायक के रूप में, खान को जनता पार्टी सरकार में उत्पाद शुल्क, मद्य निषेध और वक्फ का प्रभारी उप मंत्री बनाया गया था। लेकिन उन्होंने शियाओं और सुन्नियों के बीच लखनऊ के दंगों से निपटने के महीनों बाद इस्तीफा दे दिया। बाद में वह कांग्रेस के इंदिरा गुट में शामिल हो गये। सन् 1980 में, आरिफ, जो उस समय एआईसीसी के संयुक्त सचिव थे - ने पहली बार संसद में प्रवेश किया और जल्द ही उन्हें इंदिरा गांधी कैबिनेट में भी जगह मिली - सूचना और प्रसारण के प्रभारी उप मंत्री के रूप में।

राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार में उन्होंने जो रुख अपनाया, वह अटक गया। ऊर्जा, उद्योग और कंपनी मामलों के विभागों को संभालने वाले खान ने 1986 में इस्तीफा दे दिया, जब सरकार ने संसद में एक कानून लाकर शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को उलटने का फैसला किया।खान का रुख उन्हें दक्षिणपंथियों और प्रगतिशील के बीच एक वर्ग में लोकप्रिय बना दिया, लेकिन मुस्लिम मुल्लों और उनकी अपनी पार्टी के सहयोगियों को नाराज कर दिया। कुल मिलाकर आरिफ मोहम्मद खान का पूरा राजनीतिक जीवन ही विवादों से घिरा रहा है। (संवाद)