किसी भी व्यक्ति के लिए काम करने और मानव-दिवस में पूरी क्षमता से योगदान करने के लिए स्वास्थ्य प्राथमिक आवश्यकता है। परन्तु चिंताजनक बात यह कि भारत में जीवित जन्मे प्रत्येक 1000 बच्चों में शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) 27.7 है, और 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों में यह 32 है जबकि मातृ मृत्यु दर (एमएमआर) 103 प्रति 100,000 है। यह शर्म की बात है कि विश्व भूख सूचकांक में भारत 120 देशों में से 107वें स्थान पर है। खराब योजना और बुनियादी ढांचे के कारण मलेरिया, तपेदिक, हृदय रोग, मधुमेह, कैंसर आदि जैसी बीमारियां कोविड महामारी के दौरान उपेक्षित रहीं। कोविड के कारण भी हमने 25 से 40 लाख लोगों को खो दिया।

इसलिए टुकड़ों में दृष्टिकोण रखने के बजाय नागरिकों के लिए व्यापक स्वास्थ्य देखभाल की व्यवस्था करने की आवश्यकता है। नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के बाद शुरू की गयी बीमा आधारित स्वास्थ्य प्रणाली लोगों को व्यापक स्वास्थ्य सेवा देने में विफल रही है, इसके बजाय यह सार्वजनिक धन से कॉर्पोरेट क्षेत्र में पैसा लगाने का साधन बन गयी है। आयुष्मान भारत सहित सभी बीमा प्रणालियाँ केवल इनडोर देखभाल को कवर करती हैं, जबकि लगभग 70% खर्च ओपीडी देखभाल पर होता है। केवल ईएसआई योजना, ईसीएचएस और सीजीएचएस रोगियों के बाहरी और इनडोर देखभाल दोनों को कवर करती है। सरकार स्वास्थ्य देखभाल की जिम्मेदारी लेने के बजाय विभिन्न स्वास्थ्य केंद्रों को निजी क्षेत्र को आउटसोर्स कर रही है। जिला अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) सहित सरकारी अस्पतालों को निजी नियंत्रण में लाने का प्रयास किया जा रहा है। यह आगे निम्न और मध्यम आय वर्ग के लोगों की गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल से वंचित करेगा।

इससे भी बुरी बात यह है कि इलाज के अवैज्ञानिक और गैर-साक्ष्य आधारित तरीकों को बढ़ावा दिया जा रहा है। तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन, जो आधुनिक वैज्ञानिक चिकित्सा में प्रशिक्षित ईएनटी सर्जन हैं, के सहयोग से गोमूत्र, गोबर और रामदेव के कोरोनिल को कोविड-19 सहित विभिन्न बीमारियों के उपचार के रूप में अनुशंसित किया गया था। यह मानना भोलापन होगा कि प्रधानमंत्री को इस सब की जानकारी नहीं थी, क्योंकि इस सरकार के तहत कोई भी निर्णय पीएमओ की जानकारी के बिना नहीं लिया जाता है।

स्वास्थ्य पर होने वाले कुल खर्च का करीब 67 फीसदी दवाओं पर खर्च होता है। लेकिन आज तक हमारे पास तर्कसंगत औषधि नीति का अभाव है। इससे फार्मास्युटिकल कंपनियां भारी मुनाफा कमा रही हैं। दवाओं की बिक्री में उच्च व्यापार मार्जिन पर रोक लगाने के लिए सरकार ने एक समिति नियुक्त की थी जिसने दिसंबर 2015 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। समिति ने व्यापार मार्जिन को सीमित करने की सिफारिश की थी। लेकिन सात साल बाद भी कोई कदम नहीं उठाया गया है।

इसलिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि साक्ष्य आधारित वैज्ञानिक स्वास्थ्य देखभाल के प्रति वचनबद्धता के साथ स्वास्थ्य की जिम्मेदारी सरकार की हो। दुर्भाग्य से स्वास्थ्य किसी भी राजनीतिक दल के लिए प्राथमिकता का एजेंडा नहीं है। इंडियन डॉक्टर्स फॉर पीस एंड डेवलपमेंट (आईडीपीडी) द्वारा आयोजित एक संगोष्ठी में पंजाब के पूर्व निदेशक स्वास्थ्य सेवाएं डॉ तेजबीर सिंह ने कहा था कि स्वास्थ्य सेवा को न्यायसंगत बनाया जाना चाहिए। इसके लिए स्वास्थ्य सेवा को मौलिक अधिकार घोषित करना होगा।

विभिन्न राजनीतिक दलों के संविधान की समीक्षा करने के बाद उन्होंने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि किसी भी राजनीतिक दल ने स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार बनाने को नहीं कहा। भाजपा ने स्वास्थ्य बीमा प्रणाली के विस्तार की वकालत की है। कांग्रेस ने स्वास्थ्य का अधिकार अधिनियम और सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय को दोगुना करने की मांग की है। वाम दलों ने स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च को जीडीपी के 6% तक बढ़ाने की मांग की है। आम आदमी पार्टी मोहल्ला क्लीनिक की वकालत कर रही है।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) ने हाल ही में स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार के रूप में माँगने का संकल्प लिया है। यह एक स्वागत योग्य कदम है जिसका सभी राजनीतिक दलों को पालन करना चाहिए। राजनीतिक दलों को सभी के लिए एक व्यापक स्वास्थ्य सेवा के लिए प्रयास करना चाहिए, जिसके लिए उन्हें स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार घोषित करने की मांग के लिए मुखर रूप से आगे आना चाहिए। यह उनका मुख्य एजेंडा बनना चाहिए।

इसके साथ ही स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय को सकल घरेलू उत्पाद के वर्तमान 1.28% से बढ़ाकर 6% किया जाना चाहिए। सभी दवाओं, टीकों और चिकित्सा उपकरणों का उत्पादन केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों के माध्यम से किया जाना चाहिए ताकि एकमात्र उद्देश्य के रूप में लाभ के बिना दवाओं की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके। दवाओं के उत्पादन में आत्मनिर्भरता सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों द्वारा सक्रिय दवा सामग्री का भी उत्पादन किया जाना चाहिए।

बीमा आधारित स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली को त्याग दिया जाना चाहिए और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत किया जाना चाहिए। सभी उपचार, जांच और सेवाएं मुफ्त दी जानी चाहिए। चिकित्सकों, नर्सों, पैरामेडिक्स, आशा कार्यकर्ताओं और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं सहित चिकित्सा कर्मचारियों को स्थायी आधार पर नियुक्त किया जाना चाहिए। सभी अस्थायी कर्मचारियों को स्थायी किया जाये।

ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में डॉक्टरों का समान वितरण सुनिश्चित किया जाये। चिकित्सा शिक्षा राज्य क्षेत्र में ही दी जानी चाहिए। मिक्सोपैथी के बजाय केवल चिकित्सा प्रणाली के साक्ष्य आधारित वैज्ञानिक पद्धति की अनुमति दी जानी चाहिए। खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत उचित उपायों के माध्यम से अच्छा पोषण सुनिश्चित किया जाना चाहिए। विद्यालयों में मध्याह्न भोजन तथा सभी राज्यों में निःशुल्क नाश्ता योजना उपलब्ध करायी जाये।

सार्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रम (यूआईपी) का विस्तार वयस्कों तक किया जाना चाहिए। सर्विक्स कैंसर को रोकने के लिए सभी लड़कियों और युवा महिलाओं के लिए ह्यूमन पैपिलोमा वायरस (एचपीवी) टीकाकरण प्रदान करें। यूनिवर्सल टीकाकरण कार्यक्रम में इन्फ्लूएंजा के टीके, न्यूमोकोकल वैक्सीन, जोस्टर वैक्सीन जैसे नये टीकों को शामिल किया जाना चाहिए। राजनीतिक दल जनता की राय से चलते हैं। इसलिए नागरिक समाज में सभी के लिए स्वास्थ्य और स्वास्थ्य के मुद्दों पर अधिक मुखर होना एक मौलिक अधिकार है और प्रत्येक राजनीतिक दल को स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार के रूप में अपनी प्राथमिकता के एजेंडे के रूप में लेने के लिए मजबूर किया जाना चाहिए। (संवाद)