उस समय भोपाल को छोड़कर सभी पुरानी इकाइयां मध्यप्रदेश में राजी-खुशी शामिल हो गयीं। परंतु भोपाल के नवाब ने असहमति दिखायी, न सिर्फ मध्यप्रदेश का हिस्सा बनने के लिए वरन् स्वतंत्र भारत में शामिल होने के प्रति भी। भोपाल नवाब के इस निर्णय का भोपाल क्षेत्र की जनता ने तीव्र विरोध करते हुए आन्दोलन भी किया। फिर भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू व उपप्रधानमंत्री सरदार पटेल के प्रयासों के चलते अंततः 1 जून 1949 को भोपाल भी भारत में शामिल हो गया।

परन्तु 1956 में मध्यप्रदेश के गठन की घोषणा होते ही अनेक प्रकार की समस्याएं उत्पन्न हो गयीं।प्रमुख समस्या थी कि नये मध्यप्रदेश की राजधानी किस शहर को बनाया जाये। आयोग ने जबलपुर की सिफारिश की थी। परंतु अनेक कारणों के चलते जबलपुर को राजधानी बनाना मुश्किल था। उनमें सबसे बड़ा कारण जबलपुर में अनेक डिफेंस संबंधी कारखानों का होना था।वहां उपयुक्त भवनों का भी अभाव था और यही अभाव ग्वालियर तथा इंदौर जैसे शहरों में भी थी। उन शहरों में खाली जमीन भी यथेष्ट मात्रा में उपलब्ध नहीं थी।

मध्यप्रदेश के गठन के पूर्व आजाद भारत के पहले आमचुनाव संपन्न हो चुके थे। चुनाव में सेन्ट्रल प्राविन्स, ग्वालियर-इंदौर की मिलीजुली, रीवा और भोपाल की विधानसभाओं के चुनाव हुए और इन राज्यों में मंत्रीपरिषदों का गठन हुआ। सबसे छोटी विधानसभा - मात्र तीस सदस्यीय - भोपाल में गठित हुई। मंत्रिपरिषद भी उतनी ही छोटी थी। डॉ. शंकरदयाल शर्मा मुख्यमंत्री बने। वे पूरे देश में सबसे ज्यादा शिक्षित और सबसे युवा मुख्यमंत्री थे। उस समय उनकी आयु मात्र 34 वर्ष थी। उससे थोड़ी बड़ी विधानसभा रीवा की बनी। भोपाल में राज्यपाल की नियुक्ति नहीं की गई परंतु रीवा के राज्यपाल को लेफ्टिनेंट गवर्नर कहा गया। परन्तु अन्ततः इन इकाइयों को मिलाकर 1956 में नया मध्यप्रदेश राज्य किया गया।

विलय होने वाली इकाइयों के मुख्यमंत्रियों में सबसे शक्तिशाली रविशंकर शुक्ल थे। उन्हें डॉ. शर्मा ने भोपाल में राजधानी बनाने पर राजी कर लिया। इफरात में भूमि की उपलब्धता के अलावा दो और बातें भोपाल के पक्ष में गयीं - वे थीं विधानसभा और राज्यपाल के निवास के लिए उपयुक्त भवनों की उपलब्धता। जिस भवन को मिन्टो हॉल कहा जाता था उसका निर्माण भोपाल के नवाब ने लार्ड मिन्टो के सम्मान में करवाया था। कार्यालयों एवं निवास हेतु भी अनेक भवन उपलब्ध थे। इसके अतिरिक्त भोपाल भौगोलिक दृष्टि से मध्यप्रदेश के बीचों-बीच स्थित था।

भोपाल को राजधानी बनाने के बाद राज्य के भावनात्मक एकीकरण की चुनौती उपस्थित हुई। क्षेत्रीय प्रतिनिधियों के बीच राज्य के संस्थानों एवं कार्यालयों को अपने यहां स्थापित करने, प्रशासन के महत्वपूर्ण पदों को पाने, और मंत्रिपरिषद में महत्वपूर्ण विभागों को हासिल करने की दौड़ शुरू हुई। फलतः राज्य सरकार के विभिन्न विभागों के मुख्यालयों को अलग-अलग शहरों में स्थापित करने का निर्णय किया गया।किंतु इससे प्रदेश के बुनियादी हितों पर दुष्प्रभाव पड़ा।

मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय जबलपुर में स्थापित किया गया। अब इसकी दो बेन्चें ग्वालियर व इंदौर में हैं। परंतु राजधानी भोपाल इनसे वंचित है जिसके कारण नागरिकों को काफी असुविधा होती है। आम लोगों के अतिरिक्त शासन कार्य में भी बाधा होती है क्योंकि बड़ी संख्यामें मामलों का संबंध तो शासन से ही होता है जिनकी संख्या हजारों तक होती है। ऐसे मामलों में शासन के प्रतिनिधियों को जबलपुर जाना पड़ता है। सैकड़ों की संख्या में अधिकारियों को जबलपुर जाना पड़ता है। अनेक मामलों में उच्च न्यायालय राज्य के मुख्य सचिव या अन्य उच्चाधिकारियों को व्यक्तिगत रूप से हाजिर होने का आदेश देते हैं। ऐसी स्थिति में इन अधिकारियों का मूल्यवान समय जबलपुर जाने-आने में बर्बाद होता है।

महाधिवक्ता कार्यालय भी जबलपुर में स्थित है। महाधिवक्ता राज्य शासन का सबसे महत्वपूर्ण विधि सलाहकार होता है। जब भी कोई ऐसा उलझनपूर्ण मामला होता है जिसमें राज्य सरकार को महाधिवक्ता के परामर्श की आवश्यकता होती है, तो उन्हें भोपाल आना पड़ता है। संविधान के अनुसार महाधिवक्ता विधानसभा में उपस्थित होकर सरकार का कानूनी पक्ष रख सकता है। अपनी इस जिम्मेदारी को निभाने के लिए भी उन्हें भोपाल आना पड़ता है।

उच्च न्यायालय की सीट जबलपुर को देनी पड़ी जिसके सबसे बड़ा कारण था भोपाल में उपयुक्त भवन उपलब्ध न होना जबकि जबलपुर में ऐसा भवन उपलब्ध था। दूसरा कारण था महाकौशल के लोगों की नाराजगी दूर करना। नाराजगी इस वजह से थी कि मध्यप्रदेश में विलय होने वाली इकाइयों का सबसे बड़ा शहर होने के बावजूद जबलपुर को राजधानी नहीं बनाया गया था। आजादी के आंदोलन के दौरान जबलपुर राजनीतिक गतिविधियों का सबसे महत्वपूर्ण केन्द्र था। मध्यप्रदेश बनने के बाद उसका महत्व पूरी तरह समाप्त हो गया। इससे जबलपुर के नागरिक काफी आक्रोशित थे। सम्पन्न लोग कुछ ज्याद नाराज थे क्योंकि राजधानी बनने की संभावना के चलते अनेकों ने आसपास के किसानों की जमीनें अच्छी-खासी मात्रा में खरीद लीं थीं। जबलपुर को प्रसन्न करने के लिए उसे मध्यप्रदेश विद्युत मंडल का मुख्यालय भी बनाया गया जिसका लाभ राज्य को मिला क्योंकि विद्युत मंडल के अध्यक्ष को स्वतंत्र रूप से बिना राजकीय हस्तक्षेप के काम करने का मौका मिला। आज मध्यप्रदेश में यथेष्ट मात्रा में बिजली का उत्पादन होने लगा है।

उच्च न्यायालय और विद्युत मंडल के अतिरिक्त अन्य विभागों के मुख्यालय भी प्रदेश के अन्य शहरों में बनाये गये। इनमें इंदौर, ग्वालियर, रीवा और रायपुर शामिल थे। राज्य के गठन के पूर्व इन शहरों का अपना महत्व था। रीवा विंध्यप्रदेश की राजधानी था। उसकी अपनी पृथक विधानसभा, मंत्रिपरिषद और कार्यपालिका थी। विंध्यप्रदेश को ‘सी’स्टेट का दर्जा प्राप्त था, और जैसा कि पहले जिक्र किया गया है, वहां के राज्यपाल को लेफ्टिनेंट गर्वनर कहा जाता था।

जहां तक इंदौर और ग्वालियर का सवाल है, दोनों राज्यों की मिलीजुली विधानसभा और मंत्रिपरिषद थी। तदनुसार कभी इंदौर और कभी ग्वालियर क्षेत्र से मुख्यमंत्री बनाये जाते थे।इन दोनों शहरों में अनेक महत्वपूर्ण विभागों के मुख्यालय बनाये गये। परंतु संयोग यह हुआ कि इन दोनों शहरों में ऐसे विभागों, परिषदों और मंडलों के मुख्यालय बनाये गये जो मध्यप्रदेश सरकार की आय के प्रमुख स्त्रोत थे।

जैसे ग्वालियर को लें। ग्वालियर में राजस्व मंडल अर्थात रेवेन्यू बोर्ड, आयुक्त भू अभिलेख एवं बंदोबस्त, परिवहन आयुक्त, राज्य अपीलीय अधिकरण व आबकारी आयुक्त के कार्यालय स्थापित किये गये। परिवहन आयुक्त एवं आबकारी आयुक्त के कार्यालय राज्य सरकार की आय के प्रमुख स्त्रोत हैं परंतु इन दोनों कार्यालयों के मुखियाओं का काफी समय भोपाल में बीतता है। कभी-कभी इन दोनों अधिकारियों का निवास भोपाल और ग्वालियर दोनों शहरों में रहता है। इससे राज्य शासन और ग्वालियर स्थित अधिकारियों के बीच समन्वय में कठिनाई होती है और इन दोनों संस्थाओं की आय और बढ़ाने में बाधा उत्पन्न होती है।इसी प्रकार इंदौर में भी ऐसे कई कार्यालय हैं जो सरकार की आमदनी के बड़े स्त्रोत हैं। इंदौर में मध्यप्रदेश वाणिज्यिक कर अपील बोर्ड, आयुक्त वाणिज्यिक कर, श्रम आयुक्त, संचालक कर्मचारी राज्य बीमा सेवाएं, औद्योगिक स्वास्थ्य सेवाएं, मध्यप्रदेश वित्त निगम, शिकायत निवारण प्राधिकरण (सरदार सरोवर परियोजना), औद्योगिक न्यायालय, मध्यप्रदेश लोकसेवा आयोग आदि कार्यालय हैं। स्पष्ट है कि बेहतर शासन व्यवस्था के लिए इसमें से कुछ कार्यालयों को अब भोपाल लाने पर विचार करना चाहिए।

सन् 2000 में छत्तीसगढ़ के मध्यप्रदेश से अलग होने के बाद उस क्षेत्र के बड़े कारखानों जैसे भिलाई इस्पात संयत्र, एनटीपीसी के बिजली घरों आदि से प्राप्त होने वाले कर व लौह अयस्क, कोयले व अन्य खनिजों की खदानों की रायल्टी से मध्यप्रदेश वंचित हो गया। छत्तीसगढ़ क्षेत्र में इस्पात संयंत्र की स्थापना का मुख्य कारण था वहां लौह अयस्क के अपार भंडार का होना। इसके अतिरिक्त बस्तर में बेलाडीला कारपोरेशन की स्थापना की गयी जो लौह अयस्क और कोयले की खादानों की देखरेख करती थी। बिलासपुर के पास एल्यूमिनियम का बड़ा कारखाना था। सार्वजनिक क्षेत्र में स्थापित इन कारखानों का जो लाभ होता था उसका एक बड़ा हिस्सा मध्यप्रदेश को मिलता था।आमदनी में आई इस कमी की भरपाई करने के लिए नये उपाय करने होंगें।

कृषि के क्षेत्र में भी छत्तीसगढ़ का महत्वपूर्ण स्थान था। छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है। छत्तीसगढ़ में इतना चावल उत्पादित होता था कि प्रदेश में खपत के बाद उसका निर्यात भी होता था। इन सब साधनों की उपलब्धता के कारण मध्यप्रदेश की आर्थिक स्थिति काफी सुखद थी। छत्तीसगढ़ के पृथक होने के बाद मध्यप्रदेश की वित्त में काफी कमी आयी है।

मध्यप्रदेश का एक बड़ा हिस्सा आवगमन के लिए सड़कों पर ही निर्भर है। इस हिस्से में अब तक रेल पटरियों का जाल नहीं बिछ पाया है, जिससे राज्य का विकास वाधित है। रेल मार्ग के विस्तार के बिना राज्य का तेज गति आर्थिक विकास संभव नहीं। (संवाद)