अपने स्वभाव के अनुरूप वह एक बार फिर वह पुलिस के लिए "एक राष्ट्र, एक वर्दी" का एक सुझाव लेकर आये हैं। उनके सुझाव के चरित्र और निहितार्थ को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि उन्होंने अपने विचारों को राज्यों के गृह मंत्रियों के चिंतन शिविर के सामने रखा था। हालाँकि उन्होंने यह कहकर सुरक्षित मार्ग को प्राथमिकता दी कि "मैं इसे राज्यों पर थोपने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ" लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने सूक्ष्म तरीके से राज्यों को बदलाव के लिए तैयार होने के लिए कहा।उन्होंने कहा कि “पुलिस के प्रति उनकी परिकल्पना भले आज साकार न हो, 5, 50, या 100 साल बाद साकार हो सकती है”, पर आज हम उनपर विचार करें।

यह निश्चित रूप से कोई संयोग नहीं है कि मोदी के प्रस्ताव के सामने आने से पहले, उनके करीबी विश्वासपात्र अमित शाह ने मई 2024 तक सभी राज्यों में एनआईए के कार्यालय खोलने के लिए अपने डिजाइन को उजागर कर दिया था। जिस अवसर पर उन्होंने इसका रहस्योद्घाटन किया वह थाराष्ट्रीय जांच एजेंसी के रायपुर शाखा कार्यालय के उद्घाटन का। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, एक गैर-राजनेता की तरह बोलते हुए, जो सरकार चलाने के लिए खुफिया एजेंसियों पर अधिक निर्भर है, शाह ने घोषणा की कि सरकार 2024 के आम चुनाव से पहले सभी राज्यों में कार्यालयों के साथ एक संघीय अपराध जांच एजेंसी बनना चाहती है।

अपने गठन के बाद से ही एनआईए स्वतंत्र रूप से काम कर रही है और सटीक रूप से दबंग तरीके से बोल रही है। किसी में भी इसके अधिकार और फरमान को चुनौती देने का साहस नहीं है। जाहिर है यह राज्य पुलिस व्यवस्था को निष्क्रिय और अप्रासंगिक बनाने के लिए एक अलग साजिश है।

एक पुलिस पर मोदी और शाह के जोर देने के पीछे एक ही सूत्र है -दोनों राज्यों को अधीनता में बदलने और कमजोर करने का इरादा रखते हैं। राज्य केंद्र की दया पर होंगे जैसा कि दिल्ली के मामले में है। राज्यों की स्वतंत्र संघटना बनी रहेगी इस पर भरोसे से नहीं कहा जा सकता। एक पुलिस की अवधारणा को लागू करने से देश भर में पुलिस की पहचान समान हो सकती है ऐसा कहा गया। मोदी ने यह भी कहा कि इससे अपराधों और अपराधियों से निपटने के लिए राज्यों के बीच घनिष्ठ सहयोग को बढ़ावा मिलेगा।

क्या उनका यह कहने का इरादा है कि वर्तमान स्थिति में राज्यों का प्रभावी सहयोग नहीं है? राज्यों में प्रतिकूल स्थितियों में अपने चुनावी हित के लिएमोदी और शाह का इरादा अपनी खुद की पुलिस रखने का है जो उनकी मदद और कॉल पर होगी। अपने डिजाइन को लागू करने की उनकी जल्दबाजी ने उनके इरादे को सवालों के घेरे में ला दिया। वे 2024 के लोकसभा चुनाव तक इंतजार कर सकते थे। वे वास्तव में इसे चुनावी एजेंडा बना सकते थे।

मोदी सरकार के राज में पुलिस की बदनामी हुई है। दिल्ली पुलिस की कार्यप्रणाली, जो सीधे शाह के अधीन है, अत्याचारी और जनविरोधी हो गयी है, जिसकीवैश्विक मंच पर चर्चा और बहस भी होती है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की तथ्यान्वेषी समिति ने इस सच्चाई को उजागर किया है कि इसका सांप्रदायिकरण किया गया है और अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों को फंसाने के लिए क्रूर षड्यंत्रों का सहारा लिया गया है।

मोदी और शाह के इस कदम की जड़ें उनके भय‘फियर सिंड्रोम’के कारण है। उन्हें डर है कि राज्य सरकारें अपनी पुलिस का इस्तेमाल भाजपा और मोदी सरकार के कदमों को विफल करने के लिए कर सकती हैं। यह एक ज्ञात तथ्य है कि विपक्षी दलों की एकता के कदम ने दोनों नेताओं को बेचैन कर दिया है। बंगाल में उनकी पार्टी की हार उनके लिए एक मिसाल रही है। वे अपने लाभ को जोखिम में डालने का इरादा नहीं रखते हैं।

ऐसा नहीं है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत ने सहकारी संघवाद की शुरुआत की है। यह एक केन्द्राभिमुख शक्ति रही है और राज्य संविधान में निहित अपने दायित्वों का निर्वहन करते रहे हैं। निःसंदेह वह कहने में बिल्कुल सही थे कि "राज्य सरकारों को पुराने कानूनों की समीक्षा करनी चाहिए और कानून और व्यवस्था और सुरक्षा की उभरती चुनौतियों का सामना करने के लिए सभी एजेंसियों द्वारा बेहतर समन्वित कार्रवाई के लिए उन्हें वर्तमान संदर्भ में संशोधित करना चाहिए।" लेकिन इसके लिए निश्चित रूप से एक अलग अखिल भारतीय पुलिस बल की आवश्यकता नहीं है।

एक और टिप्पणी,जो केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू की है, को भी गंभीरता से लिया जाना चाहिए। कानून मंत्री के रूप में उन्हें अपनी राय व्यक्त करने का अधिकार है लेकिन न्यायपालिका पर संविधान की भावना के अनुरूप काम नहीं करने का आरोप लगाना न्यायिक संस्था को बदनाम करने का एक प्रयास है। संभवत: रिजिजू एक आज्ञाकारी न्यायपालिका चाहते हैं। यह व्यापक रूप से ज्ञात तथ्य है और न्यायिक क्षेत्र में भी इस पर बहस होती हैकि कैसे सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी कार्यपालिका के इशारे पर कार्य कर रहे हैं।

यह स्तब्ध करने वाला है कि न्यायपालिका को उनके आदेशों का पालन करने के लिए मजबूर करने के लिए मंत्री किस हद तक नीचे गिर सकते हैं। आरएसएस के साप्ताहिक 'पांचजन्य' द्वारा आयोजित 'साबरमती संवाद' में उनका कहना कि आधे समय न्यायाधीश नियुक्तियों को तय करने में "व्यस्त" होते हैं, जिसके कारण न्याय देने का उनका प्राथमिक काम "बाधित" होता है, अरुचिकर और जुनूनीहै।वह बोले, "मैं जानता हूं कि देश के लोग जजों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली से खुश नहीं हैं। अगर हम संविधान की भावना से चलते हैं, तो जजों की नियुक्ति करना सरकार का काम है।"

ये घटनाक्रम इस बाद की ओर इंगित करते हैं कि मोदी सरकार राज्य के कामकाज को जब्त करने और नियंत्रित करने का इरादा रखती है और भारत को राष्ट्रपति शासन प्रणाली की ओर धकेलने की कोशिश कर रही है। इस पृष्ठभूमि में बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल राष्ट्रीय न्यायिक विज्ञान विश्वविद्यालय (एनयूजेएस) के दीक्षांत समारोह में बोलते हुए, भारत के मुख्य न्यायाधीश यू यू ललित की उपस्थिति में, जो विश्वविद्यालय के चांसलर हैं, न्यायपालिका से यह सुनिश्चित करने का आग्रह किया कि देश का संघीय ढांचा बरकरार रहे। मोदी और शाह का प्रस्ताव और कुछ नहीं बल्कि संविधान के संघीय ढांचे को खराब करने का एक प्रयास है। उनके सुझावों ने इस तथ्य को भी रेखांकित किया कि वे कानून और व्यवस्था को राज्य के विषय के रूप में जारी रखने की अनुमति नहीं देना चाहते हैं। पुलिस बलों को केंद्रीकृत करने के प्रधानमंत्री के कुटिल कदम के खिलाफ पूरे विपक्ष को एक स्वर में सामने आने का समय आ गया है। (संवाद)