हार के बावजूद अभी वामदल विधानसभा में टक्कर देने की सोच सकते हैं, लेकिन यदि कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस की सम्मिलित शक्ति के आगे उनकी जब पूरी दुर्गति होती, तो वे फिर आगामी विधानसभा चुनाव में तो संघर्ष करने की स्थिति में भी अपने आपको नहीं पाते। पराजित होने के बाद भी वामदलों को इस बात की तसल्ली है कि उनका तंबू पूरी तरह उड़ा नहीं है और वे कोलकाता में फिर भी 33 सीटों पर चुनाव जीतने मे सफल रहे हैं। अन्य निकायों में भी कहीं उनकी जीत हुई है, तो कहीं हारें हैं और कहीं दोनों के बराबरी की टक्कर हुई है।

यदि ममता कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ी होतीं तो एक फायदा और होता। भारी पराजय के बाद शायद वामपंथी मोर्चे की राज्य सरकार को अपने पद पद बने रहने का नैतिक अधिकार नहीं रहता और वे इस्तीफा भी दे देती। इस तरह ममता बनर्जी का समय से पहले विधानसभा चुनाव करवाने की मांग पूरी हो जाती।

चुनाव नतीजों के बाद कामरेड को पता लग गया होगा कि 33 साल की उनकी सरकार के बाद लोगों का उनसे मोह समाप्त हो गया है। उन्हें अहसास हो गया होगा कि 2008 में पंचायती चुनावों में उनकी हार का जो सिलसिला शुरू हुआ था, उसे उलटना उनके लिए बहुत कठिन है।

यह बहुत संभव है कि ममता बनजीै चुनाव में अकेले जाने की अपनी गलती का अहसास करे और विधानसभा चुनाव में वामदलों को कांग्रेस के साथ मिलकर संयुक्त चुनौती दे। लेकिन अभी इसके बारे मे कुछ भी नहीं कहा जा सकता। वामदल अभी यह देखना चाहेंगे कि ममता का कांग्रेस पार्टी के साथ कैसा संबंध रहता है और प्रधानमत्री मनमोहन सिंह के साथ उनकी कैसी निभती है। यदि दोनों के बीच तनातनी हुई और उनके बीच तालमेल टूटा, तों वामपंथियों को यह कहने का मौका मिल जाएगा कि ममता बनर्जी किसी के साथ मिलकर सरकार चला ही नहीं सकती और उनकी किसी के साथ पट ही नहीं सकती।

हालांकि केन्द्र की सरकार ने ममता बनर्जी को बहुत छूट दे रखी है। मंत्रिमंडल की बैठक में उनके अनुपस्थित रहने को नजरअंदाज किया जा रहा है। वे हफ्तों तक रेल भवन नहीं जातीे। इस पर भी एतराज नहीं किया जाता। इनके बावजूद ममता की नाक चढ़ी रहती हैं। माओवादियों से संबेधित उनकी नीति भी उनकी परेशानी का कारण बन सकती है। वामपंथी कह सकते हैं कि ममता के मुख्यमंत्री बनने पर दार्जिलिंग और गोरखा जैसी समस्या और भी गंभीर हो सकती हैं।

मतदाताओं को पता है कि ममता के साथ क्या क्या नकारात्मक बातें जुड़ी हुई हैं। इसके बाद भी यदि वे उनका साथ देती है तो इसका कारण वाममोर्चा की अपनी विफलताओं मे देखना होगा। वाममोर्चा ने अपनी पुरानी नीति से हटकर उद्योगपतियों को खुश करने वाले कुछ ऐसे निर्णय लेने शुरू कर दिएण् जो उसके पुराने और प्रतिबद्ध कैडर को पसंद नहीं थें। उन्हें पता नहीं चला कि आखिर सरकार निजी क्षेत्र को उतना तवज्जो क्यों दे रही है। सिंगूर और नंदीग्राम ने अनेक प्रतिबद्ध कार्यकर्त्ताओं को चकित किया। जिनकी जमीन ली जा रही थी, वे अलग से विरोधी हो गए। इतना ही काफी नहीं था। माकपा ने अपने कार्यकर्त्ताओं को गांवों के लोगों से भिड़ा दिया। पुलिस तमाशा देख रही थी और माकपा कार्यकर्त्ता गांव के लोगों पर हमले कर रहे थे। यही कारण है कि वाममोर्चा को चुनावी हार का सामना करना पड़ रहा हैण् हालांकि जीतने वाली ममता बनर्जी के बारे में लोगों की राय बहुत अच्छी नहीं है। (संवाद)