सर्वोच्च न्यायालय की एक संवैधानिक पीठ ने उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र सरकार के विवादास्पद मराठा आरक्षण के उस फैसले को असंवैधानिक करान दिया जिसमें लंबे समय से स्थापित कुल आरक्षण को 50 प्रतिशत की अधिकतम सीमा से पार जाकर देने का प्रावधान किया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने पाया था कि इस अधिकतम सीमा की सीलिंग को भंग करने के लिए कोई असाधारण परिस्थिति नहीं थी। इसी आलोक में महाराष्ट्र सरकार के फैसले को असंवैधानिक करार दिया गया था।

इसके अतिरिक्त अदालत ने मराठों को सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के रूप में घोषित करने के लिए राज्य सरकार द्वारा लाये गये संशोधन को इस आधार पर भी खारिज कर दिया गया था कि यह समानता के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। पीठ ने कहा कि इंदिरा साहनी मामले में 9-न्यायाधीशों की पीठ के फैसले द्वारा निर्धारित आरक्षण पर 50 प्रतिशत की उच्चतम सीमा पर फिर से विचार करने की आवश्यकता नहीं है।

महाराष्ट्र सरकार और केंद्र दोनों ने उस ऐतिहासिक मामले में फैसले पर पुनर्विचार के लिए दबाव डाला था। 1992 के इंदिरा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय की नौ-न्यायाधीशों की पीठ ने 'असाधारण परिस्थितियों' को छोड़कर, नौकरियों और शिक्षा में 50 प्रतिशत की 'लक्ष्मण रेखा' निर्धारित थी। परन्तु वह स्थिति अब बदल गयी है।

हालांकि मराठा आरक्षण के फैसले में आरक्षण के मुद्दे को बदलने की आवश्यकता पर गहराई से विचार नहीं किया गया था, अदालत ने सुनवाई के दौरान इस बात का संकेत दिया था कि आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण को छोड़कर सभी आरक्षणों के जाने का समय हो सकता है। आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10 प्रतिशत कोटा से संबंधित ताजा मामले में भी यही भावना अधिक ठोस शब्दों में व्यक्त की गयी है, जिसे अदालत ने कहा कि यह संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं करता है।

न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला, इस मामले के पांच न्यायाधीशों में से एक, जिन्होंने ईडब्ल्यूएस कोटा को 3-2 बहुमत से बरकरार रखा। उन्होंनेआरक्षण कोटा नीति को एक नये ढंग से फिर से देखने का आह्वान किया और कहा कि आगे बढ़ गये लोगों के लिए आरक्षण को जारी रखना बंद कर देना चाहिए। “पिछड़े वर्गों को निर्धारित करने के तरीकों को फिर से देखने की जरूरत है ताकि आज के समय में अपनाये जाने वाले तरीके प्रासंगिक हों। आरक्षण अनिश्चित काल तक जारी नहीं रहना चाहिए अन्यथा यह निहित स्वार्थ बन जायेगा," उन्होंने कहा।

आरक्षण कोटा सार्वजनिक नीति के सबसे अधिक दुरुपयोग वाले उपकरणों में से एक है क्योंकि राजनीतिक दल शिक्षा और रोजगार में आरक्षण प्रदान करके वोट बैंकों को लुभाना चाहते हैं, जिसके परिणामस्वरूप यह आम जनता के लिए उपलब्ध अवसरों को गंभीरता से प्रभावित करता है, भले ही गैर-आरक्षित श्रेणियों से संबंधितउम्मीदवारों की आर्थिक स्थिति कुछ भी हो। इतना ही नहीं, आरक्षण पात्रता में हर नया जोड़ मौजूदा लाभार्थियों के लिए एक खतरा है और इससे प्रभावित पक्षों के बीच गंभीर संघर्ष हुआ है।

इस तथ्य से कोई इंकार नहीं है कि एससी-एसटी और अन्य पिछड़े वर्गों के साथ सदियों से अन्याय हुआ है और वे सभी जीवन में आगे आने के लिए मदद के पात्र हैं। लेकिन काफी लंबे समय के बाद, जो कि हम काफी आगे निकल चुके हैं, कोटा प्रणाली पर एक बार फिर से विचार करना चाहिए यह देखने के लिए कि क्या हाथ पकड़कर आगे बढ़ाने के प्रयास (हैंडहोल्डिंग) वास्तव में इन वर्गों को प्रतिस्पर्धा में खड़े होने के लिए सशक्त बनाने के अपने मूल उद्देश्य की पूर्ति कर रहे हैं, या यह महज एक शगूफाबाजी (स्टंटिंग) है जो वृद्धि और विकास के लिए उनकी क्षमता पर ही अवरोधक का काम करती है। न्यायमूर्ति पारदीवाला ने सुझाव दिया कि जब देश ने आजादी के 75 साल पूरे कर लिए हैं, तो अब तक की नीति की प्रभावशीलता पर विचार करने का समय संभवतः आ गया है।

दुर्भाग्य से, कोटा तेजी से एक विशेषाधिकार और अधिकार के रूप में माना जाने लगा है जिसे विरासत में प्राप्त किया जा सकता है। यह आरक्षण प्रदान करने के मूल उद्देश्य को नकारता है। यदि व्यवस्था लाभार्थियों की क्षमता को एक स्तर तक नहीं उठाती है जहां वे अन्य से मुकाबला कर सकें तो इस तरह की नीति को जारी रखने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। यह न्याय का उपहास होगा यदि आरक्षण के आधार पर सेवा में आये एक आईएएस अधिकारी के पोते-पोतियों को भी वही वरीयता दी जाये, जब वे बाकी के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं।

आरक्षण की मांग न केवल अवसरों तक प्रारंभिक पहुंच के लिए की गयी है, बल्कि जीवन सुधार के लिए पसंदीदा गारंटी के रूप में की गयी है। प्रतिष्ठित नौकरियों या पदों के लाभों का आनंद लेने के बाद, ऐसे कई मामले सामने आये हैं जहां लाभार्थी पदोन्नति के मामले में भी समान सुरक्षा की मांग करते हैं। इस आशय के कई निर्णय हुए हैं कि आरक्षण श्रेणियों से संबंधित कर्मचारी पदोन्नति की मांग को अधिकार के रूप में नहीं कर सकते हैं और यह सरकार के विवेक पर छोड़ दिया गया है। लेकिन राजनेता वोट बैंक बनाये रखने की अपनी हताशा में ऐसी मांगों का समर्थन करना जारी रखते हैं। (संवाद)