न सिर्फ इंदिरा गांधी को भुलाया जा रहा है परंतु उनके महान पिता स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता जवाहरलाल नेहरू को भी पूरी तरह से भुला दिया गया है। चौदह नवंबर को उनका जन्म दिन बड़े धूम-धाम से बाल दिवस के रूप में मनाया जाता था। सारे देश के बच्चे उन्हें ‘चाचा नेहरू’ के रूप में याद करते थे। अब सरकार के स्तर पर यह सब कुछ बंद है। अधिकांश समाचार पत्र अब 14 नवंबर को जवाहरलाल नेहरू को भी याद नहीं करते हैं। लगता है इन समाचार पत्रों के कर्ता-धर्ताओं का यह सोच होगा कि कहीं हमने नेहरूजी की फोटो छापी तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कहीं नाराज न हो जायें। यही स्थिति इंदिराजी के संबंध में है। उन्हें भी केन्द्र सरकार और भाजपा शासित राज्य सरकारें याद नहीं करती हैं।

परंतु इंदिराजी ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में कुछ ऐसे करिश्माई काम किये जो शायद एक साधारण राजनीतिज्ञ नहीं कर सकता। प्रधानमंत्री बनने के तीन वर्ष बाद उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया और राजा-महाराजाओं को मिलने वाला प्रीवी पर्स बंद कर दिया। देश के औद्योगिक घराने और सामंती ताकतें उसने काफी नाराज हुईं।

इसके कुछ समय बाद देश को पूर्वी पाकिस्तान की समस्या का सामना करना पड़ा। वहां के लोगों ने पाकिस्तान की केन्द्रीय सरकार के खिला बगावत कर दी थी क्योंकि वह पूर्वी पाकिस्तान पर उर्दू लादना चाहती थी और चुनाव में अवामी लीग की जीत के बावजूद पश्चिमी पाकिस्तान के नेताओं ने शेख मुजीबुर रहमान को प्रधान मंत्री नहीं बनने दिया था। मुक्ति वाहिनी का गठन कर पूर्वी पाकिस्तान के निवासियों ने पश्चिमी पाकिस्तान के विरूद्ध विद्रोह का झंडा उठा लिया था।इस विद्रोह को दबाने के लिए पश्चिमी पाकिस्तान के शासकों ने देश की सेना का उपयोग किया। सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में तरह-तरह की ज्यादतियां कीं जिससे जनता का आक्रोश और बढ़ गया। जुल्मों की इंतिहां इतनी हो गयी कि पूर्वी पाकिस्तान के नागरिक भारत में शरण लेने लगे। स्वाभाविक था कि ऐसी स्थिति में इंदिराजी मूक दर्शक नहीं बनी रह सकतीं थीं। उन्होंने पाकिस्तान की फौज के विरूद्ध पूर्वी पाकिस्तान की सहायता करना प्रारंभ कर दिया।

परिस्थितियों ने ऐसा मोड़ लिया कि अंततः पूर्वी पाकिस्तान अलग हो गया और बांग्लादेश के नाम से से दुनिया के नक्शे पर एक नये देश का उदय हुआ। उस समय अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद करने की कोशिश की। परंतु इसके बावजूद इंदिराजी ने जिस निर्भीकता से परिस्थितियों का मुकाबला किया उससे प्रभावित होकर अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें दुर्गा माता कहकर संबोधित किया। बांग्लादेश की समस्या का सफल निवारण करने के कारण इंदिराजी की लोकप्रियता आसमान छूने लगी। इसके बाद हुए चुनाव में उन्हें अभूतपूर्व सफलता मिली।

इस बीच एक ऐसी घटना घटी जिसकी इंदिराजी को उम्मीद नहीं थी। समाजवादी नेता राजनारायण ने उनके चुनाव को चुनौती देते हुए इलाहबाद उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल कर दी। याचिका को मंजूर करते हुए इलाहबाद हाईकोर्ट के जज जगमोहन सिन्हा ने उनके चुनाव को अवैध घोषित कर दिया। सारे देश में उनके इस्तीफे की मांग उठने लगी और अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गयी।

जयप्रकाश नारायण ने इस असंतोष का नेतृत्व संभाल लिया। उन्होंने देश की सेना और पुलिस से अपील की कि वह इंदिराजी के आदेशों को न मानें। यह अपील खतरनाक थी। इंदिराजी ने देश में आंतरिक आपातकाल लागू कर दिया।आपातकाल के दौरान कुछ अच्छी बातें भी हुईं। पर प्रेस सेंसरशिप और मूलभूत अधिकारों के निलंबन का काफी विरोध हुआ। फिर इसी दरम्यान संजय गांधी के मोर्चा संभालने से आपातकाल अलोकप्रिय हो गया। इंदिराजी ने पुनर्चिंतन प्रारंभ कर दिया और चुनाव की घोषणा कर दी जिसका सर्वत्र स्वागत हुआ। जिस समय इंदिराजी ने चुनाव की घोषणा की उस समय मैं मास्को में था। वहां एक राजनयिक ने यह दावा किया कि इंदिराजी ने यह जानते हुए चुनाव की घोषणा की है कि वह चुनाव हार जायेंगीं। मैंने उनसे पूछा कि इंदिराजी ने ऐसा खतरा क्यों मोल लिया है तो उन्होंने कहा– क्योंकि उनकी नसों में लोकतंत्र का खून बहता है।

जैसा कि अनुमान था, चुनाव में उनकी हार हुई। परंतु उसके बाद प्रतिपक्ष ने जो शासन दिया वह ढाई साल से ज्यादा नहीं चल सकी और सन् 1980 में मध्यावधि चुनाव हुए और देश ने पुनः इंदिराजी के हाथ में सत्ता सौंप दी।

इस बीच इंदिराजी को एक और मुसीबत का सामना करना पड़ा। वह थी खालिस्तानीआतंकवाद की। वह सिर्फ आंतरिक समस्या नहीं थी। उसकी जड़ें विदेशों तक में फैली थीं। पंजाब की स्थिति की चर्चा करते हुए इंदिराजी ने देश को सचेत करते हुए कहा था ‘‘मैं आज यह कहने की स्थिति में हूं कि पंजाब की स्थिति अत्यधिक गंभीर है। इसके पहले देश की एकता के लिए इतना बड़ा खतरा पैदा नहीं हुआ और यह खतरा पंजाब की आंतरिक ताकतों से है परंतु इसकी जड़ें देश के बाहर भी हैं।’’

इस दौरान खालिस्तान की चर्चा जोरशोर से होने लगी। पूरे पंजाब से सिक्खों का आतंकवादी खेमा हिन्दुओं को खदेड़ने की तैयारी की तैयारी करने लगा। आये दिन हिन्दुओं पर हिंसक हमले होने लगे। इस कठिन परिस्थिति में इंदिराजी ने आपरेशन ब्लू स्टार का फैसला लिया। इस आपरेशन में सेना ने आश्चर्यजनक कार्य किया परंतु इंदिराजी को इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। राष्ट्र की एकता के लिए ऐसे बलिदान के उदाहरण इतिहास में कम ही मिलते हैं।

आपरेशन ब्लू स्टार के कुछ दिनों बाद जब इंदिराजी ने देखा कि उनकी सुरक्षा में जो लोग रहते हैं उनमें से सिक्खों को हटा दिया गया है तो उन्होंने उन्हें वापिस बुलवाया और अंततः उनके इन्हीं दो सिक्ख सुरक्षाकर्मियों ने ही उनकी निर्मम हत्या कर दी।

प्रसिद्ध अमरीकी कूटनीतिज्ञ हैनरी किसिंजर ने इंदिराजी के अद्भुत नेतृत्व की चर्चा करते हुए कहा, “महाशक्तियों के बीच संतुलन रखने के लिए असाधारण चतुराई की आवश्यकता होती है। यह गुण इंदिाजी में भरपूर मात्रा में था। उनके पास देश को एक रखने के लिए स्पष्ट दृष्टिकोण था। इसके लिए उन्होंने वह सब किया जो आवश्यक था।

इंदिराजी की प्रशंसा करते हुए उनके कटु आलोचक मीनू मसानी ने कहा ‘‘मैंने इंदिराजी की तारीफ करने में कभी कंजूसी नहीं की थी। विशेषकर खतरे मोल लेने की जो क्षमता उनमें थी वह कम ही नेताओं में पायी जाती है। मैंने एक दिन संसद में उनके गुणों का उल्लेख करते हुए कहा था कि वे अपनी पार्टी में एकमात्र मर्द हैं।”

प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आर. के. लक्ष्मण ने 12 नवंबर 1984 को टाईम्स ऑफ इंडिया में लिखा, "अब मैं समझता हूं कि उन्होंने हमारे देवियों और देवताओं को इतने मुख और बांहें क्यों दिये। ... इंदिरा के अनेक चेहरे और भुजाएं थीं। एक चेहरा कोमल, सहानुभूतिपूर्ण, और दयालू था। दूसरा चिंतनशील। तीसरा गंभीर, कभी-कभी तोनिषेधात्मक। चौधा आभा विखेरने वाला, राजशाही। इंदिरा का अर्थ होता है लक्ष्मी, परन्तु उनमें दुर्गा, चंडी, और पार्वती के गुण थे। वह भव्य और शुभकारी थीं। वह कमल और तलवार दोनों धारण करती थीं। ऐसी महीलाओं में सौंदर्य सामान्य आभूषण होता है। उनकी उपस्थिति उनके शरीर तक ही सीमित नहीं थी।”

हमारे देश को इंदिरा जी को याद रखना चाहिए क्योंकि सरदार पटेल ने यदि देश को बनाया तो इंदिराजी ने उसे बचाया। (संवाद)