घरेलू हिंसा महिलाओं के खिलाफ एक अघोषित युद्ध है जिसने किसी भी पारंपरिक युद्ध की तुलना में वर्षों से अधिक को शिकार बनाया। तथाकथित विकसित देश, जो पूंजीवाद के केंद्र हैं, संयुक्त राष्ट्र की वेबसाइट पर उपलब्ध देश-वार आंकड़ों के अनुसार सबसे खराब रिकॉर्ड रखते हैं।

भारत में स्थिति गंभीर है। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो 2021 की रिपोर्ट के मुताबिक औसतन हर दिन 86 महिलाओं के साथ बलात्कार होता है और ये केवल वैसे मामले हैं जो पुलिस थानों में दर्ज होते हैं। आईपीसी के तहत दर्ज महिलाओं के खिलाफ हर घंटे 49 अपराध होते हैं, हर दिन औसतन 18 महिलाओं ने दहेज संबंधी घरेलू हिंसा में अपनी जान गंवायी। एक साल में 6,589 दहेज मौतें दर्ज की गयीं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण- 5 से पता चलता है कि सर्वेक्षण में शामिल सभी महिलाओं में से एक तिहाई ने कहा कि उन्हें घरेलू या यौन हिंसा का सामना करना पड़ा है।

ये ऐसे आँकड़े हैं जो किसी भी देश का सिर शर्म से झुका देंगे। लेकिन भारत में सरकार की ओर से एक भी शब्द नहीं आया है। कुछ लोगों ने इसे एक महामारी के रूप में वर्णित किया है- वास्तव में महिलाओं के खिलाफ हिंसा हमारी सामाजिक व्यवस्था का अंग हो गयी है। दलित महिलाओं को आक्रामक जातिवादी प्रथाओं से सबसे बुरी तरह की हिंसा का सामना करना पड़ता है।

इसका एक कारण यह भी है कि हिंसा करने वालों को एक जातिवादी और पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा दी गयी प्रतिरक्षा है, जिसके कारण महिलाओं के खिलाफ हिंसा के 75 प्रतिशत अपराधियों को सजा नहीं मिलती है। दोषसिद्धि की यह कम दर सीधे तौर पर पुलिस द्वारा पक्षपातपूर्ण जांच, अदालती व्यवस्था में लंबी देरी और हिंसा से बचे लोगों पर समझौता करने के लिए सामाजिक दबाव का परिणाम है।

घरेलू हिंसा को सामान्य बनाने वाली संस्कृतियों को वर्तमान शासन के तहत एक नया जीवन मिला है। एक पारंपरिक आदर्श महिला की उस धारणा को बढ़ावा देने के कारण ऐसा हो रहा है जिसमें उस महिला को आदर्श बताया जाता है जो अपने पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा की जाने वाली हिंसा को सहते रहे तथा ऊफ तक न करे। वैवाहिक बलात्कार को इस आधार पर आपराधिक अपराध के रूप में मान्यता देने से सरकार का इनकार कि यह परिवार के लिए विघटनकारी होगा, उसी मानसिकता का प्रतिबिंब है। यह मनुवादी संस्कृति पारिवारिक संबंधों को लोकतांत्रिक बनाने और महिलाओं की समानता की रक्षा करने में एक बड़ी बाधा है।

पीड़िता और आरोपी के धार्मिक जुड़ाव के आधार पर बलात्कार के हर मामले का सांप्रदायिकीकरण और भी खतरनाक है। बिलकिस बानो मामले में सामूहिक बलात्कारियों और हत्यारों की रिहाई का विरोध करने वाली याचिका में गुजरात सरकार के हलफनामे में विशेष रूप से उल्लेख किया गया है कि उनकी रिहाई से पहले केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा मंजूरी दी गयी थी। दूसरे शब्दों में, गृह मंत्री अमित शाह इन हत्यारों और बलात्कारियों को उनके धर्म, उनकी राजनीतिक संबद्धता के आधार पर सबसे जघन्य अपराध में रिहा करने में सीधे तौर पर शामिल हैं। यह कोई संयोग नहीं है कि जब मुस्लिम आरोपित होते हैं तो सत्ताधारी दल और उसके संघ के साथी महिलाओं के लिए न्याय की आवश्यकता को याद करते हैं।

श्रद्धा वाकर मामले के संदर्भ में असम के मुख्यमंत्री हिमंत विश्वशर्मा के हालिया और अत्यधिक निंदनीय बयान से इसका उदाहरण मिलता है। उन्होंने कहा कि आपको हर शहर में आफताबों को रोकने के लिए "एक मजबूत आदमी" मोदी को वोट देने की जरूरत है। यह कि श्रद्धा की हत्या और शरीर को क्षत-विक्षत करने का जघन्य अपराध उसके मुस्लिम साथी द्वारा किया गया था, इसका उपयोग सबसे शातिर सांप्रदायिक प्रचार और लव जिहाद के दावों के लिए किया गया है। जिस समय दिल्ली में इस भयानक अपराध का पता चला, उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में, एक युवती को उसके पूर्व प्रेमी ने मार डाला और छह भागों में काट दिया। सीतापुर जिले में एक अन्य महिला की उसके पति ने हत्या कर दी और उसके शव को काटकर खेत में फेंक दिया। इन दोनों मामलों में भाजपा नेताओं ने एक भी शब्द नहीं कहा क्योंकि आरोपी और पीड़ित हिंदू समुदाय से थे। जब दलित लड़कियों का उच्च जाति के पुरुषों द्वारा बलात्कार किया जाता है या उनकी हत्या कर दी जाती है, तो एक शब्द भी नहीं कहा जाता है। भारत में महिलाओं के खिलाफ हिंसा का यह साम्प्रदायिकीकरण एक बेहद खतरनाक हथियार है जो न्यायिक प्रक्रिया और न्याय प्रदान करने को और भी नीचे गिरा देगा।

यह स्पष्ट है कि पूंजीवाद और इसकी सामाजिक संरचनाओं ने एक सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था के आधार पर दुनिया भर में पितृसत्तात्मक धारणाओं और प्रथाओं का समर्थन किया है और मदद की है, जो सस्ते महिला श्रम का शोषण करने के लिए महिलाओं की अधीनस्थ स्थिति को बढ़ावा देती है। यह इस बुनियादी आधार पर है कि पूंजीवादी दुनिया में महिलाओं को भेदभाव और हिंसा का सामना करना पड़ता है, दूसरों की तुलना में कुछ ज्यादा। भारत में, प्रचलित कुप्रथा और पितृसत्तात्मक मूल्यों को दक्षिणपंथी हिंदुत्व शक्तियों द्वारा मनुस्मृति और जाति पदानुक्रम की खुली वकालत के माध्यम सेऔर मजबूत किया जा रहा है।यह बदले में अल्पसंख्यक समुदायों में उन ताकतों को मजबूत करता है जो महिलाओं की और अधीनता को लागू करती हैं।

संविधान में गारंटीशुदा महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए और महिलाओं पर हिंसा के खिलाफ कानूनों को लागू करने के लिए संघर्ष को नये जोश के साथ चलाया जाना चाहिए।वामपंथी और लोकतांत्रिक ताकतों को इसे अपनी चल रही कार्रवाई के मंच का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनाना चाहिए।(संवाद)