जाहिर तौर पर शाह 2002 के गुजरात दंगों की ओर इशारा कर रहे थे जिसमें लगभग 2000 मुस्लिम मारे गये थे। शाह ने जो बताया उसे माना जाये तो गुजरात में दंगे और हिंसा की घटनाएं आम थीं क्योंकि कांग्रेस पार्टी ने इसे बढ़ावा दिया था लेकिन मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के सत्ता में आने के बाद राज्य में शांति लौट आयी।

मोदी द्वारा “शांति बहाल” करनेतथा दंगाइयों को “सबक सिखाने” जैसे जिक्र इस तथ्य के बावजूद किये गये कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त जांच निकाय के समक्ष गवाही देते हुए, मोदी ने दंगे में अपनी संलिप्तता या लुटेरों को संरक्षण प्रदान करने से स्पष्ट रूप से इनकार किया था। लेकिन शाह का अवलोकन यह स्पष्ट करता है कि मोदी ने हिंदुत्व की राजनीति का विरोध करने वाले नागरिक कार्यकर्ताओं और व्यक्तियों को “सबक सिखाने” की अपनी भूमिका निभाई थी।

इस अप्रत्यक्ष परन्तु स्पष्ट कबूलनामे के लिए शाह की सराहना की जानी चाहिए।फिर भी एक और कारण जिसने शाह को इस धमकी के साथ बाहर आने के लिए मजबूर किया है, वह कई आपराधिक मामलों को खोलने का डर है जो धूल खा रहे हैं। विपक्षी दल पहले से ही गुजरात जनसंहार के साथ हुए कई मामलों की समीक्षा की मांग कर रहे हैं।

दो हालिया मामले जिन्होंने सरकार और न्यायपालिका में लोगों के विश्वास को हिला दिया है उनमें एक दोषियों की रिहाई से संबंधित है जिन्होंने बिलकिस बेगम के साथ बलात्कार किया था और उसके परिवार को मार डाला था, तथा दूसरा एक स्वतंत्र एजेंसी द्वारा कांग्रेस लोकसभा सदस्य की हत्या की पुनर्जांच से इनकार करना है। इन दोनों के अलावा और भी कई मामले हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि सत्ता में आने वाली विपक्षी पार्टी मामलों की समीक्षा के लिए आदेश देगी।गुजरात इंटेलिजेंस ब्यूरो के एक वरिष्ठ अधिकारी संजीव भट्ट ने कहा था कि उन्होंने एक बैठक में भाग लिया था जिसमें मोदी ने कथित तौर पर कहा था कि हिंदुओं को अपना गुस्सा निकालने की अनुमति दी जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट को दिए एक शपथ बयान में, उन्होंने कहा कि उनकी स्थिति ने उन्हें वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों के कार्यों सहित हिंसा से पहले और उसके दौरान बड़ी मात्रा में जानकारी और खुफिया जानकारी प्राप्त करने की अनुमति दी। उन्होंने यह भी आरोप लगाया था कि, दंगों से पहले रात में एक बैठक में, मोदी ने अधिकारियों से कहा था कि हिंदू तीर्थयात्रियों को ले जा रही एक ट्रेन पर हमले के बाद मुस्लिम समुदाय को सबक सिखाया जाना चाहिए।

ऐसा नहीं है कि यह टिप्पणी करते समय शाह इसके निहितार्थों से अनभिज्ञ थे। लेकिन इसके बाद भी उन्होंने यह हथकंडा अपनाया। मोदी के लिए गुजरात चुनाव की अहमियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चुनाव की घोषणा होने के बाद से ही मोदी लगातार राज्य में डेरा डाले हुए हैं। वह किसी भी कीमत पर गुजरात चुनाव जीतना चाहते हैं।

चुनावी दांव काफी ऊंचे होने के कारण शाह के पास संभवतः कोई विकल्प नहीं था। कम से कम दो मजबूरियों ने उन्हें इस तथ्य को प्रकट करने के लिए मजबूर किया। उन्होंने मोदी को हिंदू पितामह के रूप में पेश किया जो समुदाय के लिए स्थिरता, शांति और समृद्धि ला सकते हैं। पारंपरिक मतदाताओं के भाजपा के प्रति अपनी अरुचि दिखाने के साथ उनकी हताशा बढ़ रही थी और उसकी भरपायी के लिए वह युवाओं को आगे लाने की कोशिश कर रहे थे। यह पहली बार मतदाता बने युवाओं की विशाल आबादी को जीतने के लिए सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने के साथ हासिल करने की उम्मीद थी।

युवाओं की इस नई चुनावी ताकत तक पहुंचने की तात्कालिकता आवश्यकता इसलिए महसूस की गयी कि युवा, खासकर चार बड़े शहरों के, आप के चुनावी वायदों और एजेंडे के प्रति आसक्त हो रहे थे। उनका आप की ओर झुकाव ही था कि आप का पूरा नेतृत्व और कार्यबल गुजरात में उतर आया था।

चुनाव प्रचार के शुरुआती चरण में भाजपा विकास पर जोर दे रही थी। लेकिन युवाओं द्वारा आप के प्रति अपनी पसंद दिखाने के कारण भाजपा को अपनी रणनीति में संशोधन करने और अपनी पुरानी किताब से हिंदू-मुस्लिम का पत्ता निकालने के लिए मजबूर होना पड़ा।युवाओं के विश्वास और समर्थन को जीतने के लिए भाजपा से उनकी हिंदू भावनाओं और भावनाओं को जगाना जरूरी समझा। लेकिन आदर्श वाक्य को हासिल करने में शाह की साजिश कहां तक सफल होगी, यह सुनिश्चित नहीं है।

विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि पहले दौर के मतदान से ठीक एक सप्ताह पहले मोदी को हिंदू हृदय सम्राट के रूप में पेश करना भाजपा के हित में नहीं होगा। मोदी सरकार के 27 साल के शासन में रोजगार के अवसर पैदा करने के लिए कुछ नहीं करने को लेकर राज्य के युवा काफी नाराज हैं।

चुनाव पर नजर रखने वाले कुछ विश्लेषकों का मानना है कि पहली बार मतदान करने वाले मतदाताओं को रिझाने के लिए शाह के इस साहसिक आविष्कार का सहारा लेने से काम नहीं चलेगा।शाह बिल्कुल सही कह रहे हैं कि कांग्रेस के दिनों में दंगे होते थे, लेकिन भाजपा के सत्ता में आने के बाद न केवल दिल्ली बल्कि अन्य राज्यों में भी दंगों की संख्या में तेजी से कमी आयी है। दंगों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर एक नज़र डालने से यह स्पष्ट हो जाएगा कि लगभग सभी दंगे आरएसएस द्वारा रचे गए थे।

शाह की टिप्पणी अनेक अर्थों से भरी हुई हैः "उन्होंने(एक समुदाय ने) प्रधान मंत्री नरेंद्र भाई मोदी के लिए एक समस्या पैदा करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने (मोदी ने) उन्हें ऐसा सबक सिखाया कि वे 2022 तक कुछ भी करने की हिम्मत नहीं कर पाये।”उल्लेखनीय है कि गुजरात दंगे भारत में धार्मिक हिंसा के सबसे बुरे प्रकोपों में से एक थे।

शाह को पूरा यकीन है कि आर्थिक उपलब्धियां गिनाने या विकास परियोजनाओं को गिनने से जीत पक्की नहीं हो जायेगी। जीतने के लिए जरूरी है कि साम्प्रदायिक भावनाएं भड़कायी जायें। इससे विकास का मुद्दा पीछे छूट गया है। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने शनिवार को "अस्थिरता के सभी खतरों के साथ-साथ कट्टरपंथी समूहों, आतंकवादी संगठनों और भारत विरोधी ताकतों के स्लीपर सेल" को पहचानने और समाप्त करने के लिए एक "कट्टरपंथ विरोधी प्रकोष्ठ" शुरू करने का वायदा किया।

ऐसे समय में जब गुजरात में "स्थायी शांति" कायम थी, जैसा कि शाह ने दावा किया था, नड्डा ने आखिर कट्टरपंथ विरोधी सेल की स्थापना की घोषणा कैसे की!यह किसी छल सा दिखता है। मानो इतना ही काफी नहीं था नड्डा ने कहा कि “निजी और सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुंचाने वालों की पहचान करने में मदद के लिए एक नया कानून लाया जायेगा। इन भारत विरोधी ताकतों की पहचान की जायेगी और उन्हें दंडित किया जायेगा।” (संवाद)