1970 के दशक मेंलगभग 30 विदेशी नियंत्रित दवा निर्माताओं और आयातकों से भारतीय दवा निर्माताओं को भारी प्रतिस्पर्धा करत हुए व्यापार में पैर जमाने के लिए संघर्ष किया करना पड़ा था। ज्यादातर बॉम्बे (अब मुंबई) में स्थितउन विदेशी दवा कंपनियों ने देश के छोटे दवा बाजार को जकड़ लिया था।भारत में दवाओं और फार्मास्युटिकल्स की वार्षिक खपत 600 करोड़ रुपये से कम थी।हालांकितत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व में सरकार द्वारा निर्णायक कार्रवाइयों की एक श्रृंखला की मेरहबानी से 1970 के दशक के मध्य से स्थिति घरेलू दवा निर्माताओं के पक्ष में तेजी से बदल गयी।उद्योग को केंद्र की एक के बाद एक सरकारों से समर्थन मिला है।पिछले साल, देश का फार्मास्युटिकल उत्पादन 42 बिलियन डॉलर (लगभग 1,92,000 करोड़ रुपये) से अधिक का था।

हाथी समिति की रिपोर्ट, औद्योगिक लागत और मूल्य ब्यूरो (बीआईसीपी) द्वारा देश में सक्रिय विदेशी फार्मा फर्मों द्वारा मूल्य निर्धारण की गड़बड़ी की जांच, सरकार द्वारा 'आवश्यक दवाओं' की सूची और उनकी कीमतों को नियंत्रित करना, 1973 काविदेशी मुद्रा विनियम अधिनियम (फेरा), और 1970 और 1980 के दशक में फार्मास्युटिकल्स परियोजनाओं में घरेलू निवेशकों को प्रोत्साहन ने आने वाले दशकों में भारत के दवा उद्योग की रूपरेखा को बदल दिया।

भारत के दवा निर्माताओं ने सरकारी नीति के प्रति सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त की।उसके बाद से देश के दवा उत्पादकों ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।इसमें भारी निवेश गया। अब हैदराबाद तेजी से भारत के फार्मा उद्योग के केंद्र के रूप में उभर रहा है।देश के कुल थोक दवा उत्पादन का 40 प्रतिशत और थोक दवा निर्यात का 50 प्रतिशत की इसकी हिस्सेदारी है।अन्य प्रमुख उत्पादन केंद्रों में वडोदरा, अहमदाबाद, अंकलेश्वर, वापी, बद्दी, सिक्किम, कोलकाता और विशाखापत्तनम शामिल हैं। इस विनिर्माण नेटवर्क में लगभग 10,500 उत्पादन इकाइयाँ शामिल हैं, जो सभी आकार की - बड़ी, मध्यम और छोटी - लगभग 3,000 दवा कंपनियों द्वारा संचालित हैं।

भारत का दवा निर्माण नेटवर्क और इसका उत्पादन पोर्टफोलियो इतना मजबूत है कि फाइजर, बायर, मर्क, एस्ट्राजेनेका और जीएसके जैसे वैश्विक दवा दिग्गज स्थिति का लाभ उठाने के लिए देश के कुछ प्रमुख दवा उत्पादकों के साथ संयुक्त उद्यम में चले गये हैं।ये संयुक्त उद्यम बड़े पैमाने पर घरेलू बाजार को लक्षित करते हैं और निर्यात भी करते हैं।उद्योग विशेषज्ञ बताते हैं कि उन्नत दवा बनाने के बुनियादी ढांचे का अद्वितीय मिश्रण, एक उभरते बाजार के रूप में इसकी स्थितिऔर विकास क्षमता को और मजबूत करते हैं जिसके कारण विश्व की कम्पनियां इस बाजार तक जल्द से जल्द पहुंचने में रुचि रखते हैं।भारतीय इतनी दवाओं का सेवन कर रहे हैं जितना कि पहले कभी नहीं किया था।अगले पांच वर्षों में देश की दवा की खपत नौ से 12 प्रतिशत बढ़ने का अनुमान है।इससे भारत दवा खर्च के मामले में दुनिया के शीर्ष 10 देशों में शामिल हो जायेगा।निर्माता तेजी से अपने उत्पाद पोर्टफोलियो को कार्डियोवैस्कुलर, एंटी-डायबिटीज, एंटीड्रिप्रेसेंट्स और कैंसर जैसी बीमारियों की ओर झुका रहे हैं, जो बदलती जीवनशैली और बढ़ते तनाव के साथ बढ़ रहे हैं।

आज देश का दवा उद्योग मात्रा के हिसाब से दुनिया का सबसे बड़ा जेनेरिक दवा प्रदाता है और दवाओं का दुनिया का सातवां सबसे बड़ा निर्यातक है।2020 में, भारत ने 24.6 बिलियन डॉलर मूल्य की दवाओं का निर्यात किया, जो दुनिया के सबसे बड़े दवा उत्पादक और उपभोक्ता संयुक्त राज्य अमेरिका ($24.7 बिलियन) के बराबर है।वैश्विक दवाओं के निर्यात बाजार में भारत की हिस्सेदारी 6.1 प्रतिशत थी।वैश्विक दवा निर्यात बाजार में भारत और अमेरिका से आगे पांच यूरोपीय देश हैं।2020 में, जर्मनी 60.8 बिलियन डॉलर के निर्यात के साथ नंबर 1 स्थान पर रहा, जो वैश्विक दवाओं के निर्यात के 14.9 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व करता है, इसके बाद स्विट्जरलैंड (48.1 बिलियन डॉलर), बेल्जियम (31.1 बिलियन डॉलर), फ्रांस (28.4 बिलियन डॉलर) और इटली (27.2 बिलियन डॉलर) का स्थान है।1973 मेंबल्क ड्रग मैन्युफैक्चरिंग के क्षेत्र में भारत का कुल टर्नओवर केवल 75 करोड़ रुपये था और ड्रग फॉर्मूलेशन मात्र 370 करोड़ रुपये का था।

भारतीय अर्थिक सर्वे 2021 ने अगले दशक में घरेलू दवा बाजार में 300 प्रतिशत की वृद्धि का अनुमान लगाया था।बाजार के 2024 तक 65 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने और 2030 तक 120-130 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने की संभावना है। देश के जैव प्रौद्योगिकी उद्योग में बायोफार्मास्युटिकल्स, जैव-सेवाएं, जैव-कृषि, जैव-उद्योग और जैव सूचना विज्ञान शामिल हैं।2020 में भारतीय जैव प्रौद्योगिकी उद्योग का मूल्य 70.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर था और 2025 तक इसके 150 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है। वित्त वर्ष 20 में भारत का चिकित्सा उपकरणों का बाजार 10.36 बिलियन अमेरिकी डॉलर का था।2025 में 50 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने के लिए बाजार के 37 प्रतिशत सीएजीआर से बढ़ने की उम्मीद है। अगस्त 2021 तक, केयर रेटिंग्स ने उम्मीद की थी कि भारत का फार्मास्युटिकल व्यवसाय अगले दो वर्षों में 11 प्रतिशत की वार्षिक दर से विकसित होगा।

दुनिया की वास्तव में विश्वसनीय फार्मेसी बनने के लिए भारत को सक्रिय दवा सामग्री (एपीआई) की आपूर्ति के लिए चीन पर अपनी निर्भरता को काफी हद तक कम करने की आवश्यकता है।आधिकारिक रिपोर्टों से पता चलता है कि सभी एपीआई का लगभग 70 प्रतिशत और उन एपीआई के 90 प्रतिशत से ऊपर महत्वपूर्ण जन-बाजार एंटीबायोटिक दवाओं का उत्पादन करने के लिए चीन से आयात किया जाता है।चीन से निर्यात रुकने या मंदी से भारत का संपूर्ण दवा उद्योग अस्थायी रूप से ठप हो सकता है।

हाल ही मेंभारत ने दवा और चिकित्सा उपकरणों के चीनी निर्यात पर देश की निर्भरता को काफी हद तक कम करने के लिए उत्पादन से जुड़ी तीन प्रोत्साहन पीएलआई योजनाएं जारी की हैं।योजना के कार्यान्वयन के बाद से, 53 एपीआई में से 35 के उत्पादन में मदद करने के लिए 55 विभिन्न फर्मों को 2 बिलियन डॉलर की धनराशि वितरित की गयी है, जिन पर भारत की आयात निर्भरता काफी अधिक है।भारत को भारी प्रदूषक एपीआई शोधन प्रक्रियाओं को नियंत्रित करने के लिए भी कदम उठाने की जरूरत है।

भारतीय उद्योग को एपीआई और प्रमुख शुरुआती सामग्री (केएसएम) के उत्पादन का विस्तार करने के लिए तेजी से कार्य करना चाहिए। एपीआई पर आत्मनिर्भरता भारत को वैश्विक मूल्य श्रृंखला के हर जंक्शन पर सस्ती, उच्च गुणवत्ता वाली दवाओं का उत्पादन करने वाली दुनिया की फार्मेसी बनने के अपने प्रयास को साकार करने में मदद करेगी।यह 2030 तक बाजार के आकार को दोगुना करके घरेलू बाजार और निर्यात दोनों का विस्तार करने में मदद करेगा। (संवाद)