रिजिजू ने राज्यसभा में एक लिखित उत्तर में कहा है कि चुनाव एक 'बड़े बजट का मामला' बन गया है और लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के एक साथ चुनाव कराने से सरकारी खजाने और लोगों को भारी बचत होगी।

कानून मंत्री ने कहा, "एक साथ चुनाव कराने से सरकारी खजाने में भारी बचत होगी, बार-बार चुनाव कराने में प्रशासनिक और कानून व्यवस्था तंत्र के प्रयासों की पुनरावृत्ति से बचा जा सकेगा और राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों को उनके चुनाव अभियानों में काफी बचत होगी।"उन्होंने कहा कि यह शासन में स्थिरता भी प्रदान करेगा।

वह प्रधान मंत्री मोदी के देश भर में विधान सभाओं तथा लोक सभा के चुनाव एक साथ कराने के विचार को यह कहते हुए आगे बढ़ा रहे हैंकि चुनाव के लिए आचार संहिता को लागू करने की मजबूरी के कारण एक ही तरह के प्रशासनिक कार्यों की पुनरावृत्ति की जाती है जो सरकारी तंत्र को गतिहीन कर देता है, जिससे लोगों के कल्याण के लिए किये जाने वाले सरकारी काम भी रुक जाते हैं।

मोदी के इस विचार और आह्वान को सरकार के थिंक-टैंक नीति आयोग ने एक सैद्धांतिक ढांचा बी दे दिया गया है। आयोग ने 2017 में प्रधान मंत्री के तर्क को दोहराते हुए एक नोट तैयार किया था।इसके बाद विधि आयोग ने चुनाव कानूनों में सुधार पर अपनी रिपोर्ट में शासन में स्थिरता के हित में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के एक साथ चुनाव कराने का सुझाव दिया था।

ध्यान रहे कि 1951-52, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए थे। सन्1968 और 1969 में सरकारों के गिरने के कारण कुछ राज्य विधानसभाओं के समय से पहले भंग होने के कारण यह चक्र बाधित हो गया।

आज देश में राजनीतिक स्थिति 50 और 60 के दशक की तुलना में काफी अलग है। उस समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सभी प्रमुख राज्यों में निर्बाध शासन का आनंद ले रही थी।इसलिए राजनीतिक हितों और विचारों के संदर्भ में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच कोई संघर्ष नहीं था।लेकिन आज, कई महत्वपूर्ण राज्यों में केंद्र में सत्ताधारी दल का विरोध करने वाली पार्टियों का शासन है और एक साथ चुनाव कराने के किसी भी प्रयास का मतलब विपक्ष शासित राज्यों में विधानसभाओं के कार्यकाल पर अतिक्रमण होगा और इसलिए स्थिरता के बजाय व्यवधान होगा।

देश की कुल आबादी का लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा रखने वाले राज्य अब केंद्र में सत्ता के अलावा अन्य दलों के शासन के अधीन हैं, जिसका अर्थ है कि इतनी बड़ी आबादी के लोकतांत्रिक अधिकारों से समझौता किये बिना एक साथ चुनाव कराने पर विचार भी नहीं किया जा सकता है।मोदी और उनकी सत्तारूढ़ पार्टी इसे एक बलिदान मान सकती है जो एक राष्ट्र, एक चुनाव के विचार के कथित लाभों के संदर्भ में बहुत छोटा है। इसलिए यह संभावना नहीं है कि अन्य राजनीतिक दल इसे एक चुटकी नमक के बराबर भी महत्व देंगे।

इस विचार को पहली बार 2015 में कार्मिक, लोक शिकायत, कानून और न्याय पर स्थायी समिति द्वारा अपनी रिपोर्ट में आधिकारिक रूप से प्रस्तुत किया गया था, जिसमें लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के एक साथ चुनाव कराने के प्राथमिक औचित्य के रूप में भारी लागत बचत का हवाला दिया गया था।

रिपोर्ट प्रस्तुत करने के दौरान बनी राजनीतिक स्थिति में ऐसे कई उदाहरण थे जब लोकसभा के कार्यकाल को अस्थिर गठबंधन सरकारों के कारण उस समय तक कम से कम सात बार कम करना पड़ा।पहली बार पूरी अवधि से पूर्व ही 1971 के लोक सभा चुनाव हुए जबकि 1977 के चुनाव पांच वर्ष से अधिक समय पर हुए। उसके बाद भी तीन वर्ष के भीतर लोक सभा के चुनाव 1980 में करना पड़े। अगला चुनव चार वर्ष में ही 1984 में हुए। दसवीं लोक सभा के चुनाव भी केवल दो वर्षों के भीतर 1991 में, बारहवीं लोक सभा 1998 के चुनाव तीन वर्ष के भीतर, तथा तेरहवीं 1999 एक वर्ष के भीतर कराने पड़े थे। इस प्रकार लोक सभा तथा राज्य विधान सभाओं के चुनावों का एक साथ होना संभव नहीं हो सका।

आज स्थिति पूरी इस तरह हो गयी है कि सदनों को समय से पहले भंग किया जाना, चाहे लोकसभा हो या राज्य विधानसभाएं, दुर्लभ हो गया है।विधि आयोग, जिसने इस मुद्दे का अध्ययन किया था, ने सुझाव दिया था कि विधान सभाओं के चुनाव जिनका कार्यकाल लोकसभा के आम चुनावों के छह महीने बाद समाप्त होता है, एक साथ जोड़ा जा सकता है, लेकिन एक शर्त के साथ कि ऐसे चुनावों के परिणाम लोकसभा चुनाव के अंत में घोषित किये जायें।

जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 चुनाव आयोग को लोकसभा और राज्य विधानसभाओं की अवधि समाप्त होने से छह महीने पहले आम चुनावों को अधिसूचित करने की अनुमति देता है।विधि आयोग की रिपोर्ट के साथ-साथ नीति आयोग के अध्ययन ने 2019 के आम चुनावों से प्रक्रिया शुरू करने की सिफारिश के साथ एक साथ चुनाव कराने की विस्तृत योजना दी थी।यही अवसर अब 2024 में उपलब्ध होगा, जब संसदीय चुनाव होने वाले हैं जिस दौरानएक साथ विधान सभाओं के चुनाव भी करवाये जा सकते हैं।

पांच राज्यों, अर्थात्, आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, ओडिशा, सिक्किम और तेलंगाना में 2024 में विधानसभा चुनाव होने हैं और लोकसभा चुनावों के साथ-साथ हो सकते हैं।छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, मिजोरम और राजस्थान जैसे चार राज्यों में चुनाव 2023 में होने हैं और 2024 की शुरुआत में संविधान में संशोधन करके लोकसभा चुनावों के साथ तालमेल बिठाया जा सकता है।अगर ये स्थिति बनी तो हरियाणा, झारखंड, महाराष्ट्र और दिल्ली में लोकसभा चुनाव के साथ-साथ चुनाव हो सकते हैं, यदि वे स्वेच्छा से अपने सदनों को समय से पहले भंग कर देते हैं।

तकनीकी तौर पर यह मुमकिन है, लेकिन सिर्फ कागजों पर। वस्तव में बहुप्रचारित एक-राष्ट्र, एक-चुनाव के विचार के खिलाफ विपक्षी दलों की सख्त विरोधी मानसिकता को देखते हुए, इस बात की बहुत कम संभावना है कि राज्यों में सत्ताधारी दल एक साथ चुनाव कराने के करीब भी किसी बात पर सहमत होंगे।(संवाद)