अगर सच है कि चौदह पंद्रह साल का कानू बंदूक उठा कर रेल उडाने के मंसूबे पालता है और हत्या करता है या साथ देता है तो सोचना पड़ता है। क्या वजह है कि दस साल का बच्चा जो माँ के थप्पड़ से डरता है वो गेंद और गुल्ली से खेलता है दो चार साल में ही वो शासन को फूंकने या भूनने को अपने परिवार की समस्या का समाधान समझता है? बाल मन को भड़काने वाले कौन सी भाषा का ज्ञान रखते हैं कि जो माँ बाप गुरु की शिक्षा चंद पलों में भुला देते हैं।
वह कौन से दृश्य हैं जो मासूम को मर्माहत करते हैं। उसके कच्चे मन को कातिल बना देते हैं। सचमाने तो वो हालात है जो रोज रोज तिल तिल कर मरने से बेहतर मरने मारने पर उतारू होने में राजी हो जाता हैं। वो परिवेश जिसे अभिमन्यु कि तरह वो कोख में ही जान जाता है जब धारणी को कदम कदम पर गरीबी के मारे समाज के ठेकेदारों के दंश झेलते अहसास करता है। आखें खुलने के पहले ही उनमें गरीब बाप के हक की मार को हर दूसरे पल देखता है। रगों में खून दौड़ने से पहले ही खून चूसने वालों के दांत उस पर गड़े होते है। क्या करे वो? वह अपनों को लुटते पिटते तड़प तड़प कर घिसट घिसट कर जिन्दगी जीते देखता है लेकिन बेबस हो सहते सहते एक दिन आक्रोश ज्वालामुखी की तरह भड़कता है जब वो देखता है और लोग ऐश कर रहें है। इसी दर्द को लिऐ हर रोज सूरज ढ़लते वो आंशकित कष्टप्रद भविष्य में मरने के लिए जीने कि इच्छा त्याग देता है। यही उसके जीन में खूनी बनने का लक्ष्य निरूपित होता है। इस सत्य ज्ञान का उसे बोध होता है आखिर तो मरना ही है। सच माने विचारो की यही शृंखला मन को हिंसक बना देती है।
हरदम उपेक्षा अमीर के साथ भेदभाव पहुँच के सापेक्ष असमानता सबल के अत्याचार पर कोई सुनवाई नहीं कदम कदम पर सरकारी नौकरी के नुमाइंदों के र्दुव्यवहार कब और क्यों कर वो सहेगा? झूठ मक्कारी और गलत बयानी उसे आज टाल देती है पर कल यथार्थ ज्ञात हो जाता है। यह बात जनता को कब तक समझ नहीं आयेगी। आखिर आनी ही थी। वो देख कर समझ गया कि कोई सुविधा उसी को ना देने के लिए कानून के नाटको का इस्तेमाल होता है और प्रभावी तथा पैसेवाले के लिए कोई दिक्कत नहीं होती। लोकतंत्र के नाम पर परिवारतंत्र का राज गुपचुप चलाया जा रहा रहा है। फिर मिलता चारू मजूमदार जैसे लोगों का भटकाव और भड़काव का भाषण! साथ में इतिहास के केवल उन पन्नों का जिक्र जिसमें सशस्त्र क्रांति के द्वारा ही शोषण से मुक्ति संभव हुई।
आज लगभग बीस राज्यों में फैले अनुमानित दो हजार हथियारबंद और दस हजार सक्रिय सर्मथकों के साथ नक्सलीयों के आठ प्रमुख गुट समानान्तर सरकार चला रहे है। अब सरकार के हर फैसले पर उनका अपना नजरिया है। अगर वो सही नहीं मानते तो अपना विरोध अपनों की बलि दे कर दिखाते हैं। सुरक्षा बलों की तैनाती अपने इलाके में नापसंद कर चुके है। पचास हजार हत्याओं के बाद करोड़ो की सरकारी संपति को स्वाहा कर चुके नक्सली अब मरने मारने की भाषा ही जानते है। उनकी लगाम समाज विरोधी हाथें में जाते देर नहीं। कई राजनेता अपने निहत स्वार्थ के लिए इनका अपयोग कर रहे। धन और गन दोनों की पूरी सुविधा दी जा रही है।
यहाँ तक आने वाले इन हालातों के लिए उन निर्णयों को बराबर का जिम्मेदार माना जाना चाहिए जो शासन ने अंहकार में लिए। उन नियम के ढकोसलों का शिकार आम आदमी रहा। वे नियम नौकरशाह और सरकारी बाबूओं की मिली भगत से बने और अत्याचार जनता सहती रही। जनता के पैसे से तंख्वाह लेने के बाद भी उनके लिए कोई काम नहीं करना कहीं ना कहीं तो क्रोध निकलेगा। सरकार की कार्यशैली ने विद्रोही बना दिया। अब अगर सरकार ने कुचलना है तो मरने को तैयार लोगों को मारना और आने वाली पौध को अधिक आक्रामक बना देना हैं। यह सरकारी तंत्र और नेता सुरक्षित घेरे में बैठे लुट खसोट करे जा रहे है। यही चलता रहा तो बार बार नक्सली जन्म लेगा। इसलिए यदि कुचलना है तो नासूर बन चुके नक्सली के साथ उस क्षेत्र के सारे नेता, मुखैटाधारी जनप्रतिनिधि, भ्रष्ट नौकरशाह, कामचोर बाबू, सफेदपोश जज और दागदार पुलिस प्रशासन भी दण्ड का भागी है।
नक्सलवाद को उपद्रव मान कर कुचलने के लिए आखिरी विकल्प
डॉ. अतुल कुमार - 2010-06-04 10:47
नक्सलवाद को उपद्रव मान कर कुचलने के लिए आखिरी विकल्प सेना है तो उससे पहले इस समस्या को पैदा करने वाले नौकरशाह, पोसने वाले नेता और भडकाने वाले सारे पुलिस कमियों को उतना ही जिम्मेदार मानते हुऐ जेल भेजे जाना चाहिए। जिस शासन तंत्र की विफलता इस आतंक को जन्म दे रही है वो भी उतनी ही दोषी और सजा के लायक हैं जितने नक्सली।