मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार ने कानूनी पहलुआंें के अध्ययन के लिए विशेषज्ञों का समूह गठित कर दिया तो केन्द्र सरकार ने गृहमंत्री पी. चिदम्बरम के नेतृत्व में मंत्रियों का समूह गठित किया है। प्रदेश के मुख्यमंत्री फिर से मुकदमा दायर करने की संभावना तलाशने की बात कर रहे हैं तो केन्द्रीय मंत्रिमंडल का समूह राहत और पुनर्वास के साथ अन्य मामलोे पर विचार करेगा। सब लगभग एक जुबान से बोल रहे हैं कि न्यायालय का फैसला पीड़ितों के साथ अन्याय है। तो क्या यह मान लिया जाए कि उस भीषणतम औद्योगिक त्रासदी को लेकर पीड़ितों के साथ अन्याय दर अन्याय की जो त्रासदी घटित होती रही उसका परिमार्जन हो जाएगा?

पहले यह विचार करें कि परिमार्जन से हमारा तात्पर्य क्या है? सामान्य तौर पर केवल दो मुद्दे नजर आते हैं, पीड़ितों को पर्याप्त मुआवजा राशि मिले एवं यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से गैस रिसाव के जो दोषी हैं उन्हें घटना के भयावह परिणामों के अनुरुप सजा मिले। क्या ये दोनों बातें केन्द्र एवं प्रदेश के नीति-निर्माताओं के सामने अब आईं हैं? गैस पीड़ित एवं उनके पक्ष में खड़ा होने वाले या खड़ा होने का दावा करने वाले पिछले 25 वर्षों से यही मांग कर रहे हैं। इस समय छाती पीटकर स्यापा करने वालों में से अनेक तब भी राजनीति में थे जब उस फैक्ट्री से मिथाइल आइसोसाइनाइट गैस का रिसाव हुआ।

केन्द्र एवं यूनियन कार्बाइड के बीच 713 करोड़ की क्षतिपूर्ति का समझौता सबके सामने हुआ और उच्चतम न्यायालय ने भी उसका अनुमोदन किया। मुआवजा के एवज में सरकार ने कंपनी के खिलाफ दीवानी एवं आपराधिक मुकदमे के अंत का वायदा भी छिपकर नहीं किया था। आज यह भी साफ हो गया कि वारेन एंडरसन को भोपाल से दिल्ली ले जाने के लिए विशेष विमान का प्रयोग हुआ था। उसे दिल्ली ले जाने वाले पायलट के अनुसार हवाई अड्डे पर साथ जिलाधिकारी एवं पुलिस अधीक्षक आए थे। उसकी गिरफ्तारी भी एक तमाशा ही था। भोपाल आने के बाद उसे यूनियन कार्बाइड के अतिथि गृह ले जाया गया, जहां उसे कहा गया कि आपको नजरबंद किया जा रहा है। फिर गृह सचिव द्वारा रिहा करने के मौखिक आदेश के बाद आनन-फानन मंे उसे जमानत देकर विशेष विमान से दिल्ली वापस भेजा गया।

जरा परिदृश्य की कल्पना करिए। एक ओर शहर में एक साथ 2200 से ज्यादा लोगों की मृत्यु और हजारों जीवन और मौत के बीच छटपटाते लोगों के कारण कैसा कारुणिक माहौल रहा होगा। जनता में दुख व आक्रोश स्वाभाविक था। किंतु हमारे राजनेताओं को अपने नागरिकों से ज्यादा एंडरसन को विमान से भेजने की चिंता थी। विशेष विमान बगैर मुख्यमंत्री या केन्द्र की अनुमति के मिल नहीं सकता था। जाहिर है, तब के मुख्यमंत्री एवं केन्द्रीय गृहमंत्री सीधे तौर पर जिम्मेवार हैं। हालांकि इतने बड़े कांड में प्रधानमंत्री ने स्वय रुचि न ली हो ऐसा संभव नहीं और प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को कठघरे में खड़ा करने वाले कांग्रेसी उन्हें क्यों भूल रहे हैं? वैसे भी केन्द्र ने अध्यादेश जारी कर गैस कांड पर कार्रवाई का समस्त अधिकार अपने हाथों ले लिया था। जो विपक्ष छाती पीट रहा है उसकी भूमिका क्या थी?

केन्द्र में 1989-90 के 11 महीने विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में सरकार थी तो प्रदेश में लंबे समय तक भाजपा की। इसके बाद केन्द्र में संयुक्त मोर्चा एवं भाजपा के नेतृत्व में राजग की सरकार थी। दिसंबर 2003 से प्रदेश में भाजपा की सरकार है। क्या इनका रवैया कांग्रेस से भिन्न रहा है? राजग सरकार ने कि अपने अंतिम दिनों में 2003 में एंडरसन के प्रत्यर्पण की औपचारिक मांग की, किंतु किसी की प्राथमिकता आर्थिक एवं कानूनी परिमार्जन नहीं था।

पीड़ितों और उनके परिजनों के घावों पर अच्छी मुआवजा राषि एवं पुनर्वास की ठोस व्यवस्था का आवश्यक मरहम लगाना किसी सरकार की प्राथमिकता नहीं थी। यह राजनीति एवं प्रशासन की आम जनता के प्रति संवदेनशील जिम्मेवारी के अहसास के भयावह क्षरण का नमूना था। क्या राजनीति की वर्तमान चहलकदमी में संवेदनशील जिम्मेवारी का अहसास वापस आ गया है? केन्द्र नए तरीके से राहत एवं पुनर्वास की कुछ योजना घोषित कर दे तब भीे परिमार्जन नहीं होगा। कांग्रेस के प्रवक्ता अभिशेक मनु सिंघवी कह रहे हैं कि उन्हांेने यूनियन कार्बाइड का अहाता डाउ केमिकल्स द्वारा लिए जाने संबंधी जो कानूनी सलाह दी वह प्रोफेशनल मामला है। यह है आज की राजनीति का चरित्र! यह एक पार्टी तक सीमित नहीं है।

राजनीति में तथाकथित ऐसे प्रोफेशनल आ गए हैं, जो दोहरी भूमिका निभाते और उसे सही ठहराते हैं और पक्ष-विपक्ष में इसका व्यापक समर्थन है। ऐसे में राजनीति का संवेदनशील जिम्मेवारी का स्वाभाविक चरित्र कहां से वापस आएगा! जब राजनीति जनता के प्रति संवेदनशील नहीं होगी तो प्रशासन क्यों होगा, जो अपना दायित्व ही राजनीति के आदेश का पालन करना भर मानता है। भोपाल के तत्कालीन जिलाधिकारी कह रहे हैं कि गृह सचिव के आदेश का उन्होंने पालन किया। क्या कोई अधिकारी अपने वरिष्ठ अधिकारी के गैर कानूनी अलिखित आदेश का पालने करने को बाध्य है? अगर नही ंतो जिलाधिकारी एवं पुलिस अधीक्षक ने आदेश को नकारने का साहस क्यों नहीं दिखाया? प्रशासन का यही चरित्र आज भी है। हमारी प्रशासनिक मशीनरी के अंदर रंच मात्र का नैतिक बल नहीं बचा है। ये ही देश के भाग्य विधाता बने बैठे हैं। यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन की अमेरिकी टीम ने ही भोपाल संयंत्र में दोष गिनाए थे। यदि प्रशासन ईमानदार एवं चौकस होता तो बगैर उनको दूर किए संयंत्र चलता ही नहीं।

इसलिए अकेले एंडरसन को खलनायक साबित करना भी अन्याय है। हमारे देश के प्रशासनिक अघिकारी, राजनेता एवं फैक्ट्री के हिस्सेदार पूंजीपती ज्यादा दोशी हैं। इन सबको इनकी करनी के अनुरुप सजा मिले और भविष्य में ऐसा न होने की स्थिति सत्ता प्रतिष्ठान में पैदा हो जाए तो अन्याय का एक हद तक परिमार्जन माना जाएगा। जाहिर है, मानसिकता और व्यवहार बिल्कुल वैसा रहते हुए कुछ और मुआवजा दे देने या मुकदमे की नई अपील को तात्कालिक राहत तो माना जा सकता है, परिमार्जन नहीं। वैसे भी सीबीआई के मामले में अपील करने का अधिकार राज्य को नही है। राज्य सरकार को मुकदमा चलाने के लिए दूसरा रास्ता अपनाना पड़ेगा। प्रश्न है कि उससे होगा क्या? उच्चतम न्यायालय ने ही 1996 में आपराधिक हत्या के मामले को गैर इरादतन हत्या में परिणत कर दिया था। कानून के पेचों के बीच ऐसे मामले को जानबूझकर हत्या का मामला बनाना आसान नहीं है।

इसीलिए अगर एंडरसन का प्रत्यर्पण हो गया होता तो भी उसे कड़ी सजा नहीं मिलती। उद्योगों एवं कारोबारियों के संगठन तो इससे ही नाराज हैं कि फैक्ट्री की दुर्घटना के लिए व्यक्तियो को दोषी मानकर सजा देना गलत परंपरा को जन्म देने वाला है और इसके भय से अनेक कंपनियां अपना संयंत्र लगाने से बचना चाहेगी या दूसरे देश में हमारी फैक्ट्रियों के साथ भी वहां का प्रशासन दुर्घटना होने पर ऐसा व्यवहार कर सकता है। किसी सरकार में हिम्मत है कि आज के आर्थिक ढांचे में उद्योगपतियों एवं कारोबारियों की इन दलीलों का संज्ञान न ले? फिर इसमें परिर्माजन की कल्पना ही बेमानी है। असली परिमार्जन तो तभी होगा जब पूरी प्रणाली बदले, अर्थव्यवस्था का ढांचा बदले और आर्थिक विकास की सोच बदले। (संवाद)