इन दोहरे फैसलों को व्यापक रूप से 2024 के लोकसभा चुनावों को आगे बढ़ाने के अग्रदूत के रूप में देखा जा रहा है, हालांकि इस तरह के कठोर कदमों की व्यावहारिकता पर गंभीर सवाल उठते हैं। यह स्पष्ट है कि नाटक का समय विपक्षी दलों के भारतीय गुट के मुंबई सत्र के साथ-साथ चुना गया है, जिससे साफ होता है कि ये विपक्षी एकता के प्रयासों को विफल करने के लिए हैं, जो उस तेज गति से आगे बढ़ रहे हैं जो प्रधान मंत्री मोदी और उनकी सत्तारूढ़ पार्टी के लिए सबसे असुविधाजनक है।

ध्यान रहे कि 'झटका देने और हतप्रभ करने' की वह सैन्य अभिव्यक्ति ही थी, जिसे पूर्व अमेरिकी रक्षा सचिव रोनाल्ड रम्सफेल्ड ने लोकप्रिय बनाया था, जिन्होंने अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले के मद्देनजर संदर्भ के अंदर और बाहर इसका प्रचुर मात्रा में उपयोग किया था, जिससे घटनाक्रम की एक ऐसी श्रृंखला शुरू हुई जिसने विश्व के समसामयिक इतिहास को बदल दिया, जिसने इस विश्व को रहने के लिहाज से और अधिक खतरनाक जगह बना दिया, राष्ट्रों को नष्ट किया गया और विश्व के विभिन्न हिस्सों में आतंकवाद के पनपने के लिए परिस्थितियां बनी। अमेरिका और पूरी दुनिया को इस गलत कदम की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी।

यह कोई भी अनुमान लगा सकता है कि मोदी सरकार की ‘भय और आघात’ नीति के समान परिणाम ही होंगे। उनका इरादा स्पष्ट है - भ्रम और अराजकता पैदा करें और विपक्षी एकता की प्रक्रिया को बाधित करें। वास्तव में, मुंबई सत्र से उभरते राजनीतिक परिदृश्य को संबोधित करने के लिए कार्यवाही को फिर से तैयार करना पड़ा। इसने सीट-बंटवारे को अन्य कम महत्वपूर्ण मुद्दों से पहले अंतिम रूप दे दिया है, जैसे कि मोर्चे के लिए एक राष्ट्रीय संयोजक का चयन और साथ ही एक साझे प्रधान मंत्री पद के चेहरे के साथ चुनाव लड़ने की आवश्यकता।

जहां तक सदमा और आघात की रणनीति का सवाल है मोदी के लिए बहुत अच्छा है, परन्तु देश की सभी परिस्थितियां और बाधाएं ‘एक-राष्ट्र, एक-चुनाव’ नीति को शीघ्र अपनाने के विरुद्ध हैं। उपलब्ध सीमित समय सीमा के साथ-साथ विचार-विमर्श और विधायी प्रक्रियाओं की सीमा इतने बड़े बदलाव के लिए आवश्यक जरूरतों को महज एक विशेष सत्र में हासिल कर लेने को लगभग असंभव बना देती है, सिवा इसके कि कुछ शोर-शराबा किया जा सकता है। बेशक, सत्तारूढ़ दल वर्तमान लोकसभा के कार्यकाल के अंत तक इंतजार न करने का निर्णय ले सकता है, लेकिन उचित संख्या में राज्यों में भी एक साथ चुनाव का मतलब होगा कि कुछ राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को बढ़ाना या कम करना। दोनों स्थितियों में राज्यों की कुल संख्या के 50 प्रतिशत द्वारा अनुसमर्थित संवैधानिक संशोधनों की आवश्यकता होगी।

यह व्यावहारिक प्रतीत नहीं होता है, लेकिन राज्यों के एक समूह में चुनावों को संसदीय चुनावों के साथ मेल कराने की एक अलग संभावना है। पूरे देश में एक साथ चुनाव कराना तो अभी बहुत दूर की बात है। इस साल पांच राज्यों की विधानसभाओं के लिए चुनाव होने हैं, जबकि सात राज्यों की विधानसभाओं का कार्यकाल लोकसभा के साथ अगले साल समाप्त हो जायेगा। अगले साल जिन राज्यों में चुनाव होने हैं उनमें महाराष्ट्र, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, झारखंड, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम शामिल हैं। महाराष्ट्र, हरियाणा और अरुणाचल में भाजपा सत्ता में है, जबकि ओडिशा और आंध्र में उन पार्टियों का शासन है जो भाजपा के करीब हैं और कार्यकाल जल्दी ख़त्म करने के सुझाव पर सहमत हो सकती हैं।

दरअसल, विधि आयोग ने एक ही वर्ष में चुनाव होने वाले सभी राज्यों को एक साथ जोड़ने का सुझाव दिया था। हालांकि यह सच है कि 1967 तक देश में एक साथ चुनाव होते थे, लेकिन इस समय देश में जो राजनीतिक माहौल बन रहा है, वह ऐसी किसी संभावना के लिए खुद को तैयार नहीं करेगा। 1967 तक एक साथ चुनावों की अवधि के दौरान, कांग्रेस पार्टी ज्यादातर राज्यों में सत्ता में थी और केंद्र और राज्यों दोनों में एक ही पार्टी के सत्ता में होने से स्थिरता का आनंद लेती थी। स्थिति में भारी बदलाव इस तथ्य के कारण हुआ है कि देश के विभिन्न हिस्सों में शक्तिशाली क्षेत्रीय दल उभरे हैं, जो अक्सर केंद्र में सत्तारूढ़ दल के साथ आमने-सामने नहीं मिलते हैं, जिससे एक साथ कार्यकाल चलाना मुश्किल हो जाता है।

केंद्र-राज्य संघर्ष अक्सर अवांछित अस्थिरता पैदा करता है, जिससे ऐसे मुद्दों पर कोई आम सहमति हासिल करना मुश्किल हो जाता है। इसके अलावा, देश में राजनीति की प्रकृति केन्द्रीय से अधिक क्षेत्रीय हो गयी है। इस प्रक्रिया में राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल में कोई एकरूपता नहीं आ रही है। नये सुझावों के बारे में शायद एक अच्छी बात यह है कि पारंपरिक अविश्वास प्रस्ताव की अवधारणा को एक अन्य प्रस्ताव के साथ जोड़ा जाये जो नई सरकार में विश्वास व्यक्त करता है ताकि सदन के समय से पहले भंग होने की संभावना से बचा जा सके। जबकि विधि निर्माता आमतौर पर कार्यकाल को कम करने के पक्ष में नहीं हैं, क्योंकि इससे उनके भविष्य के वित्तीय अधिकार प्रभावित होंगे, नयी सरकार के कार्यभार संभालने की संभावना के कारण मौजूदा व्यक्ति के पद छोड़ने से, विशेषकर राज्यों में, अधिक स्थिरता को बढ़ावा मिलेगा। (संवाद)