“अयोध्या में जन्मस्थान पर भव्य श्री राम मंदिर” का पहला संदर्भ 1996 में पार्टी के घोषणापत्र में किया गया था, जिसमें 'भारत माता' को श्रद्धांजलि के रूप में मंदिर के निर्माण की सुविधा देने का वायदा किया गया था। 'यह सपना हमारे देश के लाखों लोगों को प्रेरित करता है’ - घोषणापत्र में कहा गया यह जोड़ते हुए कि राम की अवधारणा उनकी चेतना के मूल में है।
1998 में, पार्टी ने यह वायदा दोहराते हुए घोषणा की कि पार्टी मंदिर के निर्माण की सुविधा के लिए सभी सहमतिपूर्ण, कानूनी और संवैधानिक तरीकों का पता लगायेगी, और इस बात पर बल देकर कहा गया कि श्री राम भारतीय चेतना के मूल में हैं। हालाँकि, कुछ अजीब कारणों से, 1999 में जारी एनडीए घोषणापत्र में अयोध्या मुद्दे का कोई संदर्भ नहीं था।
2004 के घोषणापत्र ने मंदिर निर्माण के लिए पार्टी की प्रतिबद्धता की पुष्टि की गयी और इस बात पर जोर दिया गया कि कैसे राम भारत के एक प्रेरणादायक सांस्कृतिक प्रतीक हैं और अयोध्या करोड़ों हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं से जुड़ा है।
2009 में, भाजपा ने मंदिर के निर्माण को सुविधाजनक बनाने के लिए बातचीत और न्यायिक कार्यवाही सहित सभी संभावनाओं का पता लगाने का फिर वायदा किया था और कहा था कि रामजी के जन्म स्थान पर एक भव्य मंदिर बनाने के लिए भारत और विदेशों में लोगों की जबरदस्त इच्छा है। अयोध्या में श्री राम के मंदिर के बारे में 2014 और 2019 के घोषणापत्रों में भी यही बातें कही गयी थीं, लेकिन उस समय तक ऐसे संकेत मिल चुके थे कि राम मंदिर का मुद्दा राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्रों में अभूतपूर्व रूप से तूल पकड़ रहा है।
भाजपा की तरह, भारत का हर राजनीतिक दल इस तथ्य से अवगत है कि राम भारतीय मानस और संस्कृति में गहरायी से बसे हुए हैं और उन्होंने इसका उपयोग राजनीतिक पूंजी बनाने के लिए करने की कोशिश की है। प्रधान मंत्री के रूप में दिवंगत पी वी नरसिम्हा राव को अयोध्या में बाबरी मस्जिद के विवादास्पद विध्वंस के बाद राम मंदिर के निर्माण का समर्थन करने के लिए जाना जाता है। राव ने मंदिर के निर्माण के लिए संतों के एक पैनल, तथाकथित रामालयम ट्रस्ट के गठन की पहल की थी।
उन्होंने ट्रस्ट की परिकल्पना की थी कि इसमें पुरी, श्रृंगेरी, कांची, द्वारका और बद्रीनाथ के शंकराचार्य, रामानुजाचार्य संप्रदाय के अनुयायी तमिलनाडु और आंध्र के जीयर, उत्तर के श्री वैष्णव संत, द्वैत संप्रदाय के उडुपी और उत्तरादिमठ के संत, वल्लभाचार्य सम्प्रदाय के गुरुजी आदि शामिल होंगे। गौड़ीय और श्री चैतन्य परंपरा और अयोध्या के हनुमान गढ़ी और लक्ष्मण गाढ़ी के महंत भी उसमें शामिल होंगे। लेकिन यह योजना असामयिक रूप से समाप्त हो गयी क्योंकि राव चुनाव के बाद सत्ता में वापस आने में विफल रहे।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि राम मंदिर का शिलान्यास, हालांकि आरएसएस और भाजपा तत्वों द्वारा किया गया था, जब राजीव गांधी प्रधान मंत्री थे। इससे पहले राजीव गांधी की सरकार ने 1985 में बाबरी मस्जिद के ताले खोलने का फैसला किया था, इस फैसले से कांग्रेस पार्टी की भूमिका और इरादों को लेकर बड़ा विवाद हुआ था।
जाहिर है, भाजपा इस बात से भली-भांति परिचित है कि राम भारतीय संस्कृति में गहरायी से रचे-बसे हैं और इसलिए वह प्रतिष्ठा समारोह से मिले इस अनूठे अवसर को हाथ से जाने नहीं देना चाहती। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस आयोजन को लेकर जिस तरह से रुख अपनाया है, उससे इसके धार्मिक और राजनीतिक पहलुओं के बीच अंतर करना बेहद मुश्किल हो गया है। स्थिति की जटिलता ने विपक्षी दलों के पास कोई आसान विकल्प नहीं छोड़ा है। वे राम मंदिर को अस्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि यह एक धार्मिक मुद्दे से कहीं अधिक है, और साथ ही वे इसके अभिषेक से जुड़े हुए नहीं दिखना चाहते हैं, जिसका मतलब होगा भाजपा को सारी महिमा और राजनीतिक पूंजी एक थाली में सजाकर पेश करना।
यह कांग्रेस सहित प्रमुख विपक्षी दलों के सामने आने वाली वास्तविक दुविधा को स्पष्ट करता है। इसलिए, हर नेता इस बात पर जोर दे रहा है कि राम सबके हैं और भाजपा के पास कोई पेटेंट या स्वामित्व नहीं है। इसलिए, वे इस अवसर पर या तो अन्य मंदिरों का दौरा करके या वास्तव में कार्यक्रम होने के बाद नये मंदिर की यात्रा की योजना की घोषणा करके राम मंदिर के साथ-साथ भगवान राम के प्रति अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करने के तरीकों की खोज कर तैयारी कर रहे हैं। (संवाद)
भाजपा ने लगभग बिना चुनौती के बनाया राम मंदिर को राजनीतिक पूंजी
भगवा पार्टी द्वारा विशिष्ट अभिषेक कार्यक्रम का फायदा उठाने की कोशिश
के रवीन्द्रन - 2024-01-22 11:19
1996 के बाद से प्रत्येक भाजपा घोषणापत्र में, अयोध्या में एक भव्य राम मंदिर के निर्माण का वादा किया गया था। इसलिए यह उम्मीद करना नादानी होगी कि पार्टी 22 जनवरी को भव्यता वाले बिल्कुल नये राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा का राजनीतिक लाभ नहीं उठायेगी, खासकर उस समय जब कुछ ही महीने दूर अप्रैल-मई 2024 में महत्वपूर्ण संसदीय चुनाव होंगे। इसके बारे में कोई कुछ नहीं कर सकता है और यह विपक्षी दलों के सामने आने वाली दुविधा को अच्छी तरह से समझाता है।