ये वैज्ञानिक इस बात की छानबीन कर रहे हैं कि प्रोटीन को शीशा बनाने की ग्लासिफिकेशन की उनकी यह तकनीक प्रोटीन आधारित दवाओं को मौजूदा तकनीकों की तुलना में अपेक्षाकृत सस्ता और सुलभ बनाने में कितनी उपयोगी साबित होगी क्योंकि मौजूदा तकनीक के तहत् प्रोटीन को संरक्षित रखने के लिए उसे सूखे पाउडर के रूप में फ्रीज करके रखा जाता है।

ड्यूक के प्राट स्कूल ऑफ इंजीनियरिंग के मेकैनिकल इंजीनियरिंग एंड मैटेरियल्स साइंस के प्रोफेसर डेविड नीधम कहते हैं कि ग्लासिफिकेशन की यह प्रक्रिया ‘‘मोलेकुलर वाटर सर्जरी’’ की तरह है क्योंकि यह दूसरे विलायक से पानी को जादुई ढंग से खींचकर घुलनशील प्रोटीन से लगभग सभी पानी को निकालता है।

नीधम ने इस आविष्कार के विकास के लिए बायोग्याली (ग्रीक में ग्याली का अर्थ ग्लास होता है) नामक कंपनी का गठन किया है। इस कंपनी ने दवा वितरण प्रणाली के लिए कमरे के तापमान पर प्रोटीन को ग्लास के छोटे मोतियों में तब्दील करने के विचार को पेटेंट करने के लिए आवेदन कर दिया है।

सुप्रसिद्ध बायोफिजिकल जर्नल में प्रकाशित इस शोध रिपोर्ट में नीधम और उनके सहयोगियों ने इसकी व्याख्या की है कि उन्होंने ग्लासिफिकेशन के दौरान माइक्रोपिपेट के साथ कार्बनिक विलायक डिकानोल में पानी में घुलनशील प्रोटीन के एकल छोटे बूंदों को रिलीज कर पानी को नियंत्रित ढंग से हटाने में किस तरह सफलता पायी।

प्रोटीन को शीशे के समान छोटी मोतियों में तब्दील करने पर इन मोतियों का व्यास एक मीटर के करीब 260 लाख ही पाया गया। इससे वैज्ञानिकों को उम्मीद बंधी है कि इनका इस्तेमाल जैविक दवाओं के रूप में शरीर में सीधे इंजेक्ट करने के लिए किया जा सकेगा।