यद्यपि नाम नहीं लिया जा रहा है परंतु बहुत साफ है कि यह हमला प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर है। इसमें कोई संदेह नहीं कि श्री मोदी अपने व्यवहार और अपने नीतिगत निर्णयों को लेने में अपने सहयोगियों से बहुत कम परामर्श करते हैं। जहां तक भाजपा का सवाल है वह राष्ट्रीय स्वयं संघ की ही एक शाखा है। संघ ने 1951 में जनससंघ का गठन किया था। कुछ कारणों से उसे 1977 में भंग करना पड़ा। उसके बाद भारतीय जनता पार्टी का गठन में हुआ। चाहे जनसंघ का समय हो चाहे भारतीय जनता पार्टी का, दोनों संस्थाओं के गठन के समय यह तय हो गया था कि वे कोई भी निर्णय आपसी परामर्श से ही करेंगे। इस तरह का मैकेनिज़म चलता रहे इसलिए संघ की ओर से एक प्रमुख नेता को पार्टी में पदस्थापित किया जाता रहा जिन्हें आर्गनाइज़र कहा जाता था।
इस बात पर कोई संदेह नहीं कि किसी व्यक्ति का पद जितना ऊँचा हो उतना ही उससे अपेक्षा होती है कि वह विनम्र और सोम्य हो। भाजपा में अटल बिहारी वाजपेयी ऐसे ही नेता थे। वे जब तक प्रधानमंत्री रहे, उन्होंने संघ से संपर्क बनाये रखा। वे नागपुर जाकर संघ के प्रमुख से मिलते रहे। वे जब भी बंबई जाते थे शिवसेना के प्रमुख बाल ठाकरे के निवास पर जाकर उनसे मिलते थे।
अब हम कांग्रेस के प्रधानमंत्रियों की चर्चा करें तो प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू जी कहीं से अहंकारी नज़र नहीं आते थे। बड़े नेताओं से लेकर आम जनता तक उनका सतत सम्पर्क रहता था। वे जब दिल्ली में रहते थे तो रोज़ कम से कम 500-600 लोगों से अपने निवास-तीन मूर्ति मार्ग पर मिलते थे। वे ठीक 9 बजे जनता के बीच में पहुँच जाते थे और जब तक आखिरी व्यक्ति से नहीं मिल लेते थे वे सचिवालय के लिए रवाना नहीं होते थे।
उनके उत्तराधिकारी लालबहादुर शास्त्री तो दिखने में कतई प्रधानमंत्री नहीं लगते थे। उनकी इमेज लगभग एक किसान नेता की थी। शास्त्री जी के बाद इन्दिरा जी प्रधानमंत्री बनीं। इन्दिरा जी का स्वभाव कुछ हद तक अहंकारी था परंतु राष्ट्र के हित में वे अपने अहंकार का चोला उतार फेंक देती थीं। इस संबंध में दो घटनाएँ मुझे याद आ रही हैं। उत्तरप्रदेश में चुनाव होने वाले थे। उत्तरप्रदेश की राजनीति में हेमवती बहुगुणा का काफी महत्व था। चुनाव के पूर्व इन्दिरा जी और बहुगुणा जी में कुछ मतभेद थे। परंतु चुनाव की खातिर वे बहुगुणा से मिलने गयीं और उस मुलाकात के बाद दोनों के मतभेद दूर हो गये।
इस घटना की टाईम्स ऑफ इण्डिया ने जैसे रिपोर्ट की थी वह मुझे आज भी याद है। टाईम्स ऑफ इण्डिया ने लिखा कि "प्राईम मिनिस्टर इंदिरा गांधी इन ऑर्डर टू ओवरकम। द एंग्री फीलिंग्स ऑफ बहुगुणा वेंट टू मीट हर अलांग विथ हिज़ सन राजीव गांधी, डॉटर इन-लॉ सोनिया गांधी, सन संजय गांधी, डॉटर इन-लॉ मेनका गांधी एण्ड देयर सन एण्ड डाटर्स सी ऑलसो टुक अलांग विथ हर देयर पेटी डॉग। द रिजल्ट वॉज़ पॉजिटिव।"
जब बंगलादेश का युद्ध चल रहा था तो यह आवश्यक समझा गया कि देश में सांप्रदायिक सौहाद्र बना रहे। इस काम में वे जानती थीं कि राष्ट्रीय स्वयं संघ के प्रमुख गोलवलकर की प्रमुख भूमिका हो सकती है। गोलवलकर से इन्दिरा जी के संबंध कभी मधुर नहीं थे। परंतु राष्ट्र के हितों को देखते हुए उन्होंने गुरू गोलवलकर से मधुर संबंध बनाना आवश्यक समझा। इसमें उन्होंने अटल बिहारी वायपेयी का उपयोग किया। उन्होंने वाजपेयी जी ने अनुरोध किया कि वे नागपुर जायें और गुरू जी को मेरा संदेश दें कि इस दरम्यान यदि देश में एक भी मुसलमान का एक बूंद भी खून बहा तो मेरी नाक कट जायेगी। यह काम गुरू जी ही सुनिश्चित कर सकते हैं। मैं चाहती हूँ कि वे यह जिम्मेदारी पूरी संजीदगी से निभा सकते हैं।
अटल बिहारी वाजपेयी नागपुर गये और इन्दिरा का यह संदेश गुरू गोलवकर को दिया। गोलवलकर जी यह संदेश पढ़कर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने इन्दिरा जी से फोन पर कहा कि वह इतना ऐतिहासिक काम कर रही हैं कि उसके लिए मेरे शरीर के खून का एक-एक कतरा हाजिर है। इन संदेशों के आदान-प्रदान से हिन्दुस्तान के एक-एक नागरिक ने इन्दिरा जी के प्रति अपनी वफादारी दिखायी और भारत ने पाकिस्तान के दो टुकड़े करने का ऐतिहासिक काम हासिल किया। और भी कई मौके हैं जब इन्दिरा जी ने अपने अहंकार को त्यागकर देश के हित में कई निर्णय लिये।
राजनीतिज्ञ का अंहकार उसका कैसा नुकसान करता है उसका एक उदाहरण मध्यप्रदेश का है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पंडित डी.पी. मिश्रा थे। स्वभाव से दृढ़निश्चयी। जो निर्णय ले लिया उस पर वे हर हालत में कायम रहते थे। उनके पद पर रहते हुए कांग्रेस के 36 विधायक पार्टी छोड़कर चले गये और वे गोविन्द नारायण सिंह और राजमाता के नेतृत्व में सरकार में शामिल हो गये। दल-बदल की खबरें आने लगीं। अनेक लोगों ने पंडित मिश्र से अनुरोध किया कि यदि वे इन लोगों से बात करके उनको मनाने की कोशिश करें तो सरकार बच जायेगी। मिश्र जी से यहां तक कहा गया कि यदि वह विधायक विश्राम गृह की गैलरी से पैदल निकल जायेंगे तो सारे विधायक उनसे मिलने के लिए आ जायेंगे और इतना करने से ही सरकार बच जायेगी। पंडित मिश्र ने कहा कि मैं कदापि इन भगोड़ों के सामने हाथ नहीं जोड़ूंगा। यदि मेरे कहने पर ये दलबदल नहीं करते हैं तो वे मुख्यमंत्री हो जायेंगे और मैं सड़क पर आ जाऊंगा। वे आखिर तक अपने निर्णय पर कायम रहे और विधानसभा में उनकी सरकार गिर गयी।
इसी तरह का मोदी जी के स्वभाव में भी अहंकार है। आर्गनाइज़र में लिखते हुए श्री शारदा लिखते हैं कि नरेन्द्र मोदी आभामंडल के आनंद में डूबे रह गये और आमजन की आवाज़ को अनदेखा कर दिया। तो इसी तरह के स्वभाव के नतीजे में भाजपा 400 सीटों की मंजिल को प्राप्त नहीं कर सकी। यह भाजपा और खासकर मोदी जी के अति-आत्मविश्वासी निर्णय का परिणाम था। सबसे आश्चर्य की बात है कि एक समय ऐसा था जब अखबारों में मोदी की आलोचना के बारे में एक शब्द भी नहीं छपता था। परंतु इस समय अखबारों में धड़ाधड़ मोदी की आलोचना की जा रही है। न सिर्फ श्री शारदा बल्कि संघ के प्रमुख श्री भागवत भी इसी तरह की भाषा में बोल रहे हैं और उनके अ-निर्णय की आलोचना कर रहे हैं। भागवत विशेषकर मणिपुर के संबंध में अपनाये गये रवैये से सख्त नाराज़ हैं। देखना अब यह है कि भाजपा और संघ के बीच में पैदा हुई यह कड़वाहट सरकार के स्थायित्व पर कितना असर डालती है। यहाँ यह बताना आवश्यक है कि संघ का मुख्य उद्देश्य भारतवर्ष को हिन्दू राष्ट्र बनाना है। 2024 के चुनाव में जो कुछ हुआ उससे यह संभावना फिलहाल पूरी तरह समाप्त हो गयी है।
भाजपा के इन प्रमुख नेताओं द्वारा भाजपा में कांग्रेस के दलबदलियों को भाजपा में शामिल करने की भी सख्त आलोचना की गयी है। जो लोग सतत् संघ और भाजपा की आलोचना करते थे उन्हें भाजपा में शामिल करने से भारी नुकसान हुआ है। जोड़तोड़ की राजनीति संघ को नहीं आती है। कांग्रेसियों को भाजपा में शामिल करके भाजपा की छवि को खराब किया गया है, जिससे ऐसे लोग जो आरएसएस में नहीं हैं और उसके प्रति सहानुभूति रखते हैं वे भी संघ से दूर हो गये हैं। राजनीति में जो बड़े पदों पर हैं उन्हें अकबर और बीरबल के किस्सों से सबक लेना चाहिए। अकबर महान सम्राट थे परंतु वे बीरबल के समान अनेक लोगों की सलाहों को राज्यशासन के हित में मान लेते थे। इसी तरह भारतीय साहित्य की प्रमुख पुस्तक पंचतत्र में भी इस तरह के अनेक किस्से हैं-जब बड़े लोगों ने अपने अहम् को त्यागा। नेताओं के साथ सरकारी अधिकारियों से भी यह अपेक्षा है कि वह अपने अहंकार को त्यागकर जनता से अनुकूल व्यवहार करें।
एक महान अधिकारी थे श्री एम.एन. बुच। वे हमें बताते थे कि जब उन्होंने आईएएस का पद संभाला तो उन्होंने एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी से सलाह मांगी कि मैं अपने स्वभाव में किस चीज़ को शामिल करूं। उन्होंने बुच साहब को सलाह दी कि तुम्हारे दफ्तर में तुमसे मिलने कोई भी आये वह बड़े से बड़ा अफसर हो, मंत्री हो या फटे कपड़े पहने हुए एक भिखारी हो तो उसे अपनी कुर्सी से उठकर उसका स्वागत करना। संभव हो तो उसे चाय पिलाओ और जब वह जाने लगे तब उसे अपने कार्यालय के दरवाजे तक छोड़कर आना। बस तुम्हें इतना ही करना सीखना है। तुम एक सफल अधिकारी हो जाओगे। यह बात हमने स्वयं देखी है कि बुच साहब जहां भी रहे हैं उनकी लोकप्रियता में हमेशा चार-चांद लगते थे। अंग्रेजी में एक कहावत है- जो यह जानता है कि वह कुछ नहीं जानता वही सर्वाधिक बुद्धिमान है। (संवाद)
प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी पर संघ के सीधे हमले का क्या होगा परिणाम
सत्तासीन को अहंकारी नहीं होना चाहिए, पर क्या भाजपा नेता सलाह मानेंगे
एल.एस. हरदेनिया - 2024-06-18 14:49
इस समय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पदाधिकारी भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व पर जबरदस्त हमला कर रहे हैं। संघ का आरोप है कि भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व अत्यधिक आत्मविश्वासी और अहंकारी हो गया है। यह आरोप संघ के मुखपत्र आर्गनाइज़र में संघ के प्रमुख चिंतक श्री रतन शारदा द्वारा लगाया गया है। उनका आरोप है कि यदि नेतृत्व अहंकारी नहीं होता और अति आत्मविश्वासी नहीं होता तो भाजपा की झोली में लोकसभा की 400 सीटें आ जातीं।