इस साल 9 जून को भाजपा नेता नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली तीसरी एनडीए सरकार के शपथ लेने के बाद से तीन महीने भी नहीं बीते हैं। 2019 के चुनावों में भाजपा की लोकसभा सीटों की संख्या 303 के मुकाबले घटकर 240 रह गयी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एनडीए के अपने दो प्रमुख सहयोगियों, तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) और जनता दल (यूनाइटेड) जेडीयू के समर्थन पर निर्भर हैं, जो पहले विपक्ष का हिस्सा थे और जो भाजपा के हिंदुत्व कार्यक्रम से मतैक्य नहीं रखते हैं। मोदी 3.0 सरकार के गठन के बाद से पिछले 82 दिनों में, कुछ ऐसी चीजें हुई हैं जो प्रधानमंत्री के घटते कद का संकेत देती हैं, जिन्हें 4 जून को 2024 के लोकसभा परिणाम आने तक अजेय माना जाता था।
सबसे पहले, एक प्रमुख पत्रिका द्वारा किये गये नवीनतम मूड ऑफ द नेशन सर्वे से पता चलता है कि प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता रेटिंग पहले के सर्वेक्षणों में 70 प्रतिशत से अधिक के मुकाबले गिरकर 49 प्रतिशत रह गयी है। जहां मोदी की रेटिंग गिर गयी है, वहीं राहुल गांधी की रेटिंग 34 प्रतिशत तक पहुंच गयी है, जो पहले 20 प्रतिशत से भी कम थी।
दूसरा यह कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विस्तृत परिवार में नरेंद्र मोदी का महत्व कम हो गया है। मोदी प्रधानमंत्री बने रहेंगे, लेकिन उन्हें आरएसएस के कुछ दिशा-निर्देशों के तहत काम करना होगा। आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व से सलाह किये बिना उन्हें सरकार की नीतियों का एकमात्र निर्णायक नहीं बनने दिया जायेगा। मोदी सरकार और आरएसएस के बीच परामर्श तंत्र को क्रियाशील बना दिया गया है।
इसके अलावा, पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को मोदी-शाह की जोड़ी को दरकिनार करके आगामी दस विधानसभा सीटों के लिए होने वाले उपचुनावों में उम्मीदवारों के चयन में पूरी तरह से दखल देने की अनुमति आरएसएस नेतृत्व ने दे दी है। यह स्पष्ट होता जा रहा है कि कट्टर हिंदुत्व आधार के लिए हिंदुत्व के शुभंकर के रूप में योगी लगातार नरेंद्र मोदी की जगह ले रहे हैं।
तीसरा, सरकार के स्तर पर प्रशासन की कुछ प्रमुख घोषणाओं को वापस लेना नेतृत्व की असंगतता का संकेत देता है, जो मोदी के शासनकाल में पहले कभी नहीं देखा गया था। मोदी कभी लोकतांत्रिक प्रथाओं की परवाह नहीं करते हैं। वे मूल रूप से एक तानाशाह हैं। वे दूसरों के साथ चर्चा और विचारों के आदान-प्रदान को तभी चुनते हैं, जब उन्हें राजनीतिक परिस्थितियों से मजबूर होना पड़ता है। यही कारण है कि तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने वाले मोदी असहज महसूस कर रहे हैं, क्योंकि वे एनडीए के दो प्रमुख सहयोगियों को अंतिम निर्णय के बारे में हमेशा सुनिश्चित नहीं रहते हैं। प्रधानमंत्री अपने सहयोगियों के सामने कमजोर हैं और यह ऐसी स्थिति है, जिसे वे सबसे ज्यादा नापसंद करते हैं।
चौथा, इस समय कॉरपोरेट जगत में बड़ा मंथन चल रहा है। इसकी शुरुआत तीन साल पहले मोदी के दूसरे कार्यकाल के दौरान हुई थी, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद इसमें व्यापक आयाम जुड़ गये हैं। उद्योगपतियों का गैर-गुजराती वर्ग इस बात से नाराज है कि सरकार की नीतियां प्रधानमंत्री के गृह राज्य गुजरात से आने वाले शीर्ष दो उद्योगपतियों के व्यावसायिक हितों के अनुकूल हैं। ये लोग, जिनमें ज्यादातर मारवाड़ी हैं और पारंपरिक व्यापारिक घरानों से जुड़े हैं, खुद को दरकिनार महसूस कर रहे हैं। वे भाजपा के बड़े दानदाता भी हैं, लेकिन उन्हें लगता है कि उन्हें उसके अनुरूप लाभ नहीं मिलता। उनमें से कई कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों को अधिक योगदान देने के मूड में हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि भाजपा कमजोर हो रही है।
उद्योग जगत के अनुसार, इसी महीने जल्दबाजी में एक असामान्य सरकारी अधिसूचना जारी की गयी, जो आम बात नहीं है। अडानी समूह ने झारखंड में एक बिजली संयंत्र स्थापित किया, जिसका 100 प्रतिशत उत्पादन बांग्लादेश को बेचा जायेगा। 5 अगस्त को प्रधानमंत्री शेख हसीना के ढाका में सरकार से त्यागपत्र देने और भारत में शरण लेने के बाद, ऐसी खबरें आयीं कि नये बांगलादेशी शासक अडानी बिजली समझौते की नये सिरे से समीक्षा कर सकते हैं। इस पर अब तक कोई आधिकारिक कदम नहीं उठाया गया और अब भी अंतरिम सरकार ने इस पर कोई कदम नहीं उठाया है। लेकिन नरेंद्र मोदी की सरकार ने कोई जोखिम नहीं लिया। 18 अगस्त को ही एक सरकारी अधिसूचना जारी कर अडानी समूह को झारखंड संयंत्र से घरेलू बाजार में बिजली बेचने का अधिकार दिया गया, जो मोदी सरकार द्वारा यह सुनिश्चित करने का प्रयास था कि अडानी समूह को उस विवादास्पद बिजली संयंत्र से मुनाफा मिलता रहे।
उद्योग जगत के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि ऐसी हर परियोजना में कुछ जोखिम होते हैं और अडानी जैसे बड़े उद्योगपति उनका ध्यान रखने की क्षमता रखते हैं। फिर एक अग्रणी कंपनी के मुनाफे को बनाये रखने के लिए यह असामान्य कदम क्यों उठाया गया? ऐसी कई भारतीय कंपनियों को ऐसे जोखिमों का सामना करना पड़ता है, लेकिन मोदी सरकार शायद ही कभी उन्हें बचाने के लिए हस्तक्षेप करती है। तो फिर ऐसा एहसान किसी खास कंपनी पर क्यों किया जा रहा है?
यह मुद्दा बड़े कारोबारी वर्ग के बीच एक उभार का रूप ले रहा है, जो नरेंद्र मोदी के दस साल के शासन के दौरान उपेक्षित महसूस कर रहा है। इसके अलावा, भले ही एमएसएमई क्षेत्र देश के रोजगार और निर्यात में मुख्य योगदानकर्ता रहा हो, लेकिन बड़े घराने बैंक ऋण भुगतान में चूक करके बच निकलते हैं, जबकि छोटे और मध्यम उद्यमियों को वित्तीय संकट के कारण बहुत कम भुगतान करने के लिए बैंकों द्वारा दंडित किया जाता है। वर्तमान एनडीए शासन के तहत सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का झुकाव बड़ी कंपनियों के पक्ष में है। उम्मीद के मुताबिक, एमएसएमई उद्यमी नरेंद्र मोदी सरकार से बहुत नाराज हैं।
इन परिस्थितियों में, 1 अक्टूबर तक जम्मू-कश्मीर और हरियाणा में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। इसके बाद साल के अंत तक झारखंड और महाराष्ट्र में और 2025 में दिल्ली और बिहार में चुनाव होंगे। संकेत भाजपा के लिए अनुकूल नहीं हैं, भले ही मोदी, अमित शाह और आरएसएस नेतृत्व विधानसभा चुनावों में बेहतर प्रदर्शन करने की पूरी कोशिश कर रहे हों। वे यह भी जानते हैं कि अगर इंडिया ब्लॉक आने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा को हरा देता है, तो यह मोदी 3.0 सरकार की किस्मत को प्रभावी रूप से सील कर देगा। राजनीतिक प्रभाव ऐसा होगा कि एनडीए अंततः टूट सकता है और देश को 2026 में मध्यावधि चुनाव भी कराने पड़ सकते हैं। बदलाव की उस प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाने के लिए इंडिया ब्लॉक को विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करने की पूरी कोशिश करनी होगी। (संवाद)
अपनी पहले की मजबूत पकड़ खो रहे हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, आखिर करें तो क्या
आगामी विधानसभा चुनावों में इंडिया ब्लॉक ने अच्छा प्रदर्शन किया तो संकट बढ़ेगा
नित्य चक्रवर्ती - 2024-08-30 10:34
पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री हैरोल्ड विल्सन ने एक बार कहा था कि राजनीति में एक सप्ताह बहुत लंबा समय होता है। यह ब्रिटिश राजनीति में युद्ध के बाद की उथल-पुथल के संदर्भ में था। भारत के संदर्भ में, ऐसा लगता है कि 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद का परिदृश्य तेजी से बदल रहा है और इसका सबसे अधिक असर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर पड़ा है, जो लगातार तीसरे कार्यकाल में हैं और लंबी कार्यावधि के मामले में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बराबर हैं।