सत्तारूढ़ भाजपा लंबे समय से भारत के चुनाव प्रणाली को बदलने के लिए दबाव बना रही है। इस सम्बंध में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और बाद में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस से संपर्क किया था जिसे कांग्रेस ने खारिज कर दिया था।

इस कदम का समय महत्वपूर्ण था, क्योंकि यह पिछले सप्ताह मोदी द्वारा अपने तीसरे कार्यकाल में 100 दिन पूरे करने का दिन था। यह उन महत्वपूर्ण चुनावी सुधारों में से एक है जिसे भाजपा ने लगभग दो दशकों से अपने घोषणापत्रों में शामिल किया है।

अनेकों को यह विचार प्रथम दृष्टया उचित और व्यवहार्य लगता है, परन्तु इसपर कई सवाल उठे हैं। क्या भारत इस तरह के सुधार के लिए तैयार है? क्या प्रधानमंत्री मोदी के पास संसद में संविधान संशोधन विधेयक पारित कराने के लिए आवश्यक दो-तिहाई बहुमत है? क्या कोई राजनीतिक सहमति है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब की जरूरत है।

सबसे महत्वपूर्ण और प्राथमिक बात यह है कि विधेयक को लोकसभा में दो-तिहाई बहुमत जुटाकर ही पारित किया जा सकता है। हाल ही में हुए 2024 के चुनावों में भाजपा सदन में बहुमत से भी 40 सीटें कम रह गयी थी और वह जद (यू) और तेलुगू देशम की मदद से ही सरकार बना सकी। भाजपा को सहयोगियों और अन्य दलों के समर्थन की भी जरूरत है।

भाजपा इस सुधार के पक्ष में है क्योंकि इससे चुनाव चक्र में बार-बार होने वाले बदलावों के कारण होने वाली रुकावटें खत्म होंगी। इससे चुनाव संबंधी खर्चों में भी कमी आयेगी।

अधिकांश विपक्षी दल एक साथ चुनाव कराने के विचार को खारिज करते हैं। इनमें कांग्रेस, वामपंथी दल, तृणमूल कांग्रेस, क्षेत्रीय और अन्य छोटी पार्टियां शामिल हैं। वे मुख्य रूप से राजनीतिक प्रतिशोध के डर और इस आशंका के कारण इसे अस्वीकार करते हैं कि इससे भाजपा को लाभ हो सकता है। इस मुद्दे पर विचार करने के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की समिति ने राजनीतिक दलों से राय लेने के बाद सर्वसम्मति से प्रस्ताव का समर्थन किया है। बत्तीस दलों ने इसका समर्थन किया, जबकि 15 ने इसे अस्वीकार कर दिया।

कोविंद समिति ने यह भी संकेत दिया है कि केंद्र ने इस प्रस्ताव के कार्यान्वयन की निगरानी के लिए एक पैनल बनाया है। साथ ही, सभी चुनावों के लिए एक संयुक्त मतदाता सूची होनी चाहिए ताकि मतदाता राष्ट्रीय, राज्य और स्थानीय चुनावों के लिए एक ही सूची का उपयोग करें। इससे मतदाता पंजीकरण में त्रुटियां कम होंगी। पैनल सभी हितधारकों से बात करने की योजना बना रहा है। वे वोटों को दो भागों में रखने का भी सुझाव देते हैं। पहला लोकसभा और विधानसभा के लिए होगा, और दूसरा स्थानीय समूहों के लिए होगा।

ऐतिहासिक रूप से, 1952 से, जो पहला चुनाव हुआ था, 1967 तक, यह एक समन्वित चुनाव था। लेकिन इंदिरा गांधी के सत्ता में आने के बाद यह बदल गया। उन्होंने विपक्ष द्वारा शासित सरकारों को बर्खास्त करने के लिए अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल करना शुरू किया और इस तरह अलग-अलग राज्य विधानसभा चुनाव शुरू हुए। यह आज तक जारी है।

इस विधेयक को संवैधानिक, कानूनी और राजनीतिक चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। पैनल ने देश में एक साथ चुनाव कराने के लिए संविधान के पांच अनुच्छेदों में संशोधन करने की सिफारिश की है जिनमें अनुच्छेद 83 और 172 में संशोधन भी शामिल हैं। भाजपा के पास बहुमत नहीं है, जबकि संवैधानिक संशोधन के लिए दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है। साथ ही, संविधान इस बात पर चुप है कि चुनाव एक साथ होने चाहिए या नहीं। अंतिम परीक्षा यह है कि मोदी संसद में पर्याप्त संख्या में सांसदों को कैसे जुटायेंगे।

दूसरा, राजनीतिक सहमति अभी बननी बाकी है। भाजपा ने विपक्षी दलों से निपटने या उन्हें सहमत करने की कोशिश नहीं की है। विपक्ष आक्रामक मूड में है और अभी तक सहमत नहीं हुआ है क्योंकि उनका मानना है कि एक साथ चुनाव कराने से भाजपा को फायदा होगा। कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टियां इसका विरोध कर रही हैं। वामपंथी दल, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन ने इस विचार को खारिज कर दिया है। 15 विपक्षी दलों के पास 205 सांसद हैं, जबकि मोदी को 362 वोट चाहिए। एक साथ चुनाव के लिए आवश्यक बदलावों को पूरा करने के लिए एक कानूनी ढांचे की भी जरूरत है। यह राज्य सरकारों के कार्यकाल के बीच में ही गिर जाने और केंद्र द्वारा खेले जाने वाले खेल को खत्म करने जैसी समस्याओं का समाधान कर सकता है।

चूंकि यह विचार अच्छा है और यह धन की बर्बादी और नीतिगत पक्षाघात के साथ-साथ हर दो साल में चुनाव होने की घटना को भी रोकता है, इसलिए विपक्ष को इस विचार को खारिज करने से पहले दो बार सोचना चाहिए। अगर उनके पास कोई वैकल्पिक योजना है तो उन्हें इसे सार्वजनिक बहस के लिए लाना चाहिए।

कुल मिलाकर, मोदी इस कानून को एक गेम प्लान के साथ संसद में ला रहे हैं। हारें या जीतें, मोदी को इसका फ़ायदा मिलेगा। अगर वे जीतते हैं, तो यह चुनावी वायदे की पूर्ति है। वे हमेशा दावा कर सकते हैं कि उन्होंने अच्छे इरादों के साथ सुधार लाया है, अगर बिल गिर जाता है, तो वे दावा कर सकते हैं कि विपक्ष ने इसे तोड़फोड़ दिया।

संसद में विधेयक लाने में देरी हो सकती है, फिर भी इस पर बहस करने और अंततः ऐसा करने के तरीके खोजने लायक है। आखिरकार, चुनावी व्यय भी करदाताओं का पैसा है। (संवाद)