अभी चल रहे संगठनात्मक चुनाव अगले साल की शुरुआत में भाजपा अध्यक्ष के चुनाव से पहले होंगे। यह प्रक्रिया लंबी है और ब्लॉक, जिला और राज्य स्तर पर चुनाव होंगे।

पिछले हफ्ते, नड्डा ने पार्टी अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया शुरू की। उन्होंने चुनावों की देखरेख के लिए राज्यसभा सांसद लक्ष्मण को नामित किया है। उपाध्यक्ष रेखा वर्मा और सांसद संबित पात्रा और नरेश बंसल लक्ष्मण की सहायता करेंगे। गति बनाये रखने के लिए नये अध्यक्ष का चयन महत्वपूर्ण है। यह नौ करोड़ और सदस्य जोड़ने की प्रक्रिया में है, जो एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य है।

नड्डा ने पार्टी की अध्यक्षता की और विधानसभा और लोकसभा 2024 के चुनावों की देखरेख की। भाजपा कुछ सीटें जीती और कुछ हारी। लोकसभा में भाजपा बहुमत से दूर रह गयी और मोदी ने मौजूदा गठबंधन सरकार बनाने के लिए जेडी (यू) और टीडीपी की मदद ली। एक सज्जन और विनम्र व्यक्ति नड्डा ने शीर्ष जोड़ी मोदी-शाह के साथ टकराव से परहेज किया। भाजपा को एक और नड्डा की तलाश है, जबकि आरएसएस को एक स्वतंत्र व्यक्ति चाहिए जो दोनों से प्रभावित न हो।

चुनाव प्रक्रिया बहुत जटिल और लंबी है। कम से कम 20 राज्य कार्यकारिणी सदस्यों को नाम प्रस्तावित करना होगा। उम्मीदवार अनुभवी होना चाहिए और जमीनी स्तर पर पदों पर होना चाहिए। कम से कम चार राज्यों के सदस्यों को प्रस्ताव का समर्थन करना होगा।

राष्ट्रीय और राज्य कार्यकारिणी के सदस्य मतदान करने के पात्र हैं। खास बात यह है कि भाजपा अध्यक्ष का चयन आम सहमति से होता है, न कि किसी चुनावी जंग से। हर बार केवल एक उम्मीदवार ने नामांकन दाखिल किया और वह निर्विरोध निर्वाचित हुआ।

पिछले कुछ दिनों में एक दर्जन से अधिक नाम चर्चा में हैं। इनमें कैबिनेट मंत्री धर्मेंद्र प्रधान, भूपेंद्र यादव, शिवराज सिंह चौहान, राजनाथ सिंह और महाराष्ट्र के नेता देवेंद्र फड़नवीस शामिल हैं। कई और नाम हैं, और हर नाम में कुछ सकारात्मक और कुछ नकारात्मक बिंदु हैं।

मोदी-शाह ऐसे व्यक्ति को पसंद करेंगे जिसके साथ वे काम कर सकें। आरएसएस ऐसे व्यक्ति को पसंद करेगा जिसके पास राजनीतिक अनुभव हो और जो स्वतंत्र रूप से काम करने में सक्षम हो।

नये भाजपा अध्यक्ष के लिए कई चुनौतियां हैं। पहली चुनौती पार्टी को एकजुट रखना और गुटबाजी से दूर रखना है।

दूसरा है पार्टी को विधानसभा चुनावों का सामना करने के लिए तैयार करना। तीसरा है सबको साथ लेकर चलना। पार्टी में कई नये सदस्य शामिल हुए हैं। चौथा है आत्मसंतुष्टि को दूर रखना।

भाजपा आरएसएस की राजनीतिक शाखा है। 1980 में पार्टी के जन्म के बाद से ही आरएसएस ने सहज संबंधों के साथ पार्टी को आगे बढ़ने में मदद की है। इसने भाजपा को प्रचारक दिये। आरएसएस ने भाजपा में महासचिव के तौर पर एक वरिष्ठ प्रचारक को भी नियुक्त किया, जो समन्वयक के तौर पर काम करता था। इसी रास्ते से नरेंद्र मोदी 2014 में शीर्ष पर पहुंचे।

लेकिन अब, ऐसी अफवाहें हैं कि मूल संगठन और इसकी राजनीतिक शाखा के बीच कुछ मतभेद हैं। भाजपा 2024 के लोकसभा चुनावों में साधारण बहुमत हासिल करने में विफल रही, आंशिक रूप से इसलिए क्योंकि आरएसएस ने चुनाव प्रचार के दौरान पूरी मदद नहीं की। यह आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की कुछ हालिया टिप्पणियों से स्पष्ट है। उन्होंने पिछले महीने पुणे में कहा था, "हमें खुद को भगवान नहीं मानना चाहिए। लोगों को तय करने दें कि आप में भगवान है या नहीं। पार्टी के अंदरूनी लोग इन टिप्पणियों की व्याख्या करते हुए दावा करते हैं कि आरएसएस किसी ऐसे व्यक्ति को नड्डा का उत्तराधिकारी बनाना चाहेगा जो मोदी से प्रभावित न हो। आरएसएस को प्रधानमंत्री मोदी के इर्द-गिर्द व्यक्तिगत रूप से बनी विचारधारा भी पसंद नहीं है।

भाजपा अध्यक्ष और राष्ट्रीय कार्यकारिणी में प्रमुख खिलाड़ियों को चुनने में आरएसएस की हमेशा महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

पिछले महीने, परामर्श प्रक्रिया के तहत दोनों पक्षों की रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के आवास पर बैठक हुई थी। भाजपा की ओर से अमित शाह और बीएल संतोष तथा आरएसएस की ओर से संघ सचिव दत्तात्रेय होसबोले और अरुण कुमार मौजूद थे। 5 घंटे की बैठक के दौरान, उन्होंने कई नामों पर चर्चा की। अब तक की परंपरा यह है कि आरएसएस अध्यक्ष के लिए विशिष्ट नाम नहीं सुझाता है। नाम भाजपा की ओर से आते हैं और आरएसएस उनका समर्थन करता है।

सवाल यह है कि क्या आम सहमति बन पायेगी और मुकाबला टल जायेगा। अंत में दोनों पक्ष 'देने और लेने' के दृष्टिकोण का पालन कर सकते हैं और एक नाम पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। अब से दिसंबर के बीच, आरएसएस और भाजपा को स्वीकार्य उपयुक्त उम्मीदवार खोजने के लिए पर्याप्त समय है। न तो नरेंद्र मोदी और न ही मोहन भागवत इस मुद्दे पर मतभेद मोल ले सकते हैं क्योंकि राहुल गांधी के नेतृत्व में विपक्ष इस मुद्दे पर अपनी आक्रामक आवाज उठा रहा है। (संवाद)