भारत की जाति व्यवस्था में पिछली सदी में बहुत बड़ा बदलाव आया है। भारत में ब्रिटिश राज के दौरान जो हुआ, वह 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद की स्थिति से बहुत अलग था। भारत के संविधान ने पहली बार समाज में व्याप्त जातिगत पूर्वाग्रह के शिकार लोगों को कानूनी सुरक्षा प्रदान की, और अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को उनके सामाजिक और आर्थिक स्तर को ऊपर उठाने के लिए आरक्षण दिया।
ब्रिटिश राज के दौरान की गयी जाति जनगणना जाति व्यवस्था को मजबूत करने वाली पायी गयी थी और इसलिए डॉ. बी.आर. अंबेडकर सहित भारत के महत्वपूर्ण राजनीतिक विचारकों ने इस प्रथा की कड़ी आलोचना की। इसके अलावा, जातियों का रिकॉर्ड दोषपूर्ण पाया गया। 1901 की जनगणना में 1646 अलग-अलग जातियों को दर्ज किया गया था, जो 1931 में बढ़कर 4147 हो गया। इसका समाज पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा और इसलिए स्वतंत्रता संग्राम के हमारे नेताओं के दबाव में, ब्रिटिश सरकार ने 1941 की जनगणना में इस जाति जनगणना की प्रथा को छोड़ दिया।
इससे हमें संकेत मिलता है कि इस बार की जाति जनगणना में भी कई समस्याएं होंगी। जाति व्यवस्था न केवल हिंदुओं में, बल्कि अन्य धार्मिक समूहों में भी प्रचलित है। इससे जनगणना के दौरान समस्याएँ पैदा हो सकती हैं। बौद्ध, जैन और सिख भी व्यवहार में जातियों में विभाजित हैं। ईसाइयों में लगभग 300 जातियाँ दर्ज हैं और मुसलमानों में 500 जातियाँ व्यवहार में हैं, हालाँकि उनका सैद्धांतिक दृष्टिकोण यह है कि उनके बीच कोई जाति विभाजन नहीं है। सभी धर्मों में दलित, आदिवासी और ओबीसी हैं। वास्तव में, हिंदू जहाँ भी गये, वे दूसरे धर्मों में धर्मांतरण करने के बाद भी अपनी जातियों के साथ गये। दलित, आदिवासी और ओबीसी अपने धर्मों से इतर आरक्षण की माँग करते रहे हैं। वास्तविक जनगणना से पहले इस मुद्दे पर विशेष विचार करने की आवश्यकता होगी।
फिर भी, जनगणना के बाद, हमें यह जानकारी होगी कि लगभग 100 वर्षों के अंतराल के बाद, देश में जाति व्यवस्था वर्तमान में कैसे काम कर रही है। 1951 की जनगणना के दौरान, भारत सरकार ने केवल अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की जनगणना की अनुमति दी थी। इससे स्पष्ट तस्वीर सामने नहीं आयी, और इसलिए 1961 तक, केंद्र सरकार ने ओबीसी की जनगणना के लिए राज्यों को अनुमति दे दी, यदि वे ऐसा चाहें। यह एक तरह के सर्वेक्षण की अनुमति थी, लेकिन राष्ट्रीय जाति जनगणना से इनकार कर दिया गया।
1980 में मंडल आयोग ने ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश के साथ जाति के आंकड़ों को तीव्र गति से सामने लाया। प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 1990 में मंडल आयोग की सिफारिश को लागू किया, जिसका इस देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन पर असर पड़ रहा है। भाजपा की कमंडल राजनीति, यानी हिंदुत्व सांप्रदायिक राजनीति इसके समानांतर चली। भाजपा 1998 और 1999-2004 में केंद्र में सरकार बनाने में सफल रही। उन्होंने अपनी हिंदुत्व ब्रांड की राजनीति में बड़ी संख्या में ओबीसी को शामिल किया।
कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए शासन के दौरान सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) 2011 ने जाति के आंकड़े एकत्र किये, लेकिन जनगणना के निष्कर्ष कभी जारी नहीं किये गये। न तो भाजपा और न ही कांग्रेस ओबीसी राजनीति के प्रमुख लाभार्थी के रूप में उभरने में सक्षम थे। प्रमुख लाभार्थी सभी रंगों के समाजवादी बने रहे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2014 से ही हिंदुत्व और ओबीसी की राजनीति कर रहे हैं। फिर भी, 2024 के लोकसभा चुनाव के नतीजों ने उन्हें लोकसभा में 240 सीटों पर ला खड़ा किया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सरकार बनाने के लिए अन्य राजनीतिक दलों से समर्थन लेने की ज़रूरत पड़ी, जिनमें से प्रमुख हैं - बिहार की जेडी(यू) और आंध्र प्रदेश की टीडीपी, दोनों का ओबीसी और दलितों के बीच अच्छा-खासा आधार है।
ध्यान रहे कि नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जेडी(यू) ने लोकसभा चुनाव से पहले आज़ाद भारत में देश का पहला जाति सर्वेक्षण 2023 में कराया था, जब वे आरजेडी और कांग्रेस के साथ महागठबंधन में थे। नीतीश कुमार ने 2024 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले इंडिया ब्लॉक छोड़कर एनडीए का दामन थाम लिया। कांग्रेस ने राष्ट्रीय स्तर पर जाति जनगणना की मांग की और ओबीसी राजनीति को राजनीति के केंद्र में ला दिया।
हाल के दिनों में बिहार के बाद तेलंगाना और कर्नाटक ने भी ओबीसी राजनीति के हिस्से के रूप में जाति सर्वेक्षण कराया है। कांग्रेस वर्तमान में तेलंगाना और कर्नाटक में सत्ता में है और उसने राष्ट्रीय स्तर पर जाति जनगणना का वायदा किया और इसकी मांग की। बिहार में 2025 के अंत में चुनाव होने जा रहे हैं, जहां जाति चुनाव हारने या जीतने में एक महत्वपूर्ण कारक है।
केंद्र ने अभी तक यह घोषणा नहीं की है कि जाति जनगणना कब करायी जायेगी और इसके लिए तौर-तरीके कब तैयार किये जायेंगे, और वे किस प्रकार के होंगे जिससे कि विवाद न हो।
फिर भी, जब कभी जाति जनगणना के आंकड़े जारी किये जायेंगे, तो इससे जाति व्यवस्था की मौजूदा कार्यप्रणाली का ज्ञान मिलेगा, जो भविष्य की राजनीति, आर्थिक और अन्य संसाधनों के बंटवारे और सामान्य रूप से सामाजिक व्यवहार का आधार बनेगा। इसमें हमारे समाज में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक असमानता की बड़ी समस्या को हल करने की क्षमता है, लेकिन इसमें जाति-आधारित संघर्ष और विभाजन का संभावित जोखिम भी है, जो शायद हिंदुओं तक सीमित न रहे। भारत को सावधानी से कदम उठाने की जरूरत है। (संवाद)
स्वतंत्र भारत की पहली जाति गणना जीवन के सभी क्षेत्रों को प्रभावित करेगी
देश में जाति व्यवस्था के वर्तमान कार्यव्यवहार का ज्ञान महत्वपूर्ण
डॉ. ज्ञान पाठक - 2025-05-02 10:31
पिछली बार 1931 की जनगणना में जाति की गणना के लगभग एक सदी के अंतराल के बाद भारत में जाति जनगणना कराने की घोषणा करके, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने न केवल स्वतंत्र भारत के जाति जनगणना न कराने के ऐतिहासिक निर्णय, जो मुख्यतः इस डर से की गयी थी कि इस तरह की कवायद जाति व्यवस्था को मजबूत कर सकती है, को समाप्त कर दिया है, बल्कि जाति जनगणना कराने के खिलाफ भाजपा की ऐतिहासिक स्थिति को भी पलट दिया है। यह निर्णय भारत की नीति में एक महत्वपूर्ण बदलाव को दर्शाता है जिसका जीवन के सभी क्षेत्रों पर प्रभाव पड़ना तय है - विशेष रूप से राजनीति, अर्थशास्त्र और सामाजिक आचरण पर।