प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले नीति आयोग द्वारा “इनहैंसिंग एमएसएमईज कम्पीटीटिवनेस इन इंडिया” (भारत में एमएसएमई प्रतिस्पर्धात्मकता को बढ़ाना) शीर्षक वाले दस्तावेज़ में, उपाध्यक्ष सुमन के बेरी ने देश में एमएसएमई के विकास की सराहना की, जो भारत की आर्थिक वृद्धि में योगदान दे रहे हैं और लगातार रोजगार सृजन, विनिर्माण और निर्यात में योगदान दे रहे हैं।
उन्होंने अपने संदेश में कहा, "हाल के वर्षों में इसका महत्व और भी बढ़ गया है। भारत के सकल मूल्य वर्धित (जीवीए) में एमएसएमई की हिस्सेदारी 2020-21 में 27.3 प्रतिशत से बढ़कर 2021-22 में 29.6 प्रतिशत हो गयी है, जो 2022-23 में 30.1 प्रतिशत तक पहुंच गयी है।" उन्होंने आगे कहा, "एमएसएमई से निर्यात में भी पर्याप्त वृद्धि देखी गयी है, जो 2020-21 में 3.95 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 2024-25 में 12.39 लाख करोड़ रुपये हो गयी है। इसके अलावा, निर्यात गतिविधियों में लगे एमएसएमई की संख्या में भी उछाल आया है, जो 2020-21 में 52,849 से बढ़कर 2024-25 में 1,73,350 हो गया है।"
बेरी ने एमएसएमई वर्गीकरण के लिए निवेश और टर्नओवर सीमा बढ़ाने सहित विभिन्न प्रमुख पहलों का उल्लेख करते हुए सरकार के साहसिक कदमों के लिए केंद्रीय बजट 2025-26 की भी प्रशंसा की। हालांकि, आंकड़ों की उनकी तुलना गलत और भ्रामक है, क्योंकि नयी परिभाषा वाले मौजूदा आंकड़ों के कारण विकास दिखाना संभव हुआ न कि पुराने आंकड़ों और परिभाषा के तहत आने वाली इकाइयों में तरक्की के कारण। यह याद रखना चाहिए कि मोदी सरकार ने 1 जुलाई, 2020 से कोविड-19 लॉकडाउन और रोकथाम उपायों के दौरान शुरू किये गये आत्मनिर्भर भारत पैकेज में एमएसएमई की परिभाषा बदल दी थी। 2006 में एमएसएमई विकास अधिनियम के अस्तित्व में आने के 14 साल बाद परिभाषाएं बदली गयीं थीं।
2019-20 तक लागू परिभाषाओं के अनुसार, उस विनिर्माण उद्यम को सूक्ष्म माना गया था जिसके पास प्लांट मशीनरी में 25 लाख रुपये से कम का निवेश था, 25 लाख रुपये से 5 करोड़ रुपये के बीच में लघु और 5 करोड़ रुपये से 10 करोड़ रुपये के बीच में मध्यम इकाई माना गया था। सेवा क्षेत्र के एमएसएमई के लिए, ये क्रमशः 10 लाख रुपये से कम, 10 लाख रुपये से 2 करोड़ रुपये के बीच और 2 करोड़ रुपये से 5 करोड़ रुपये के बीच थे। भारत के सकल घरेलू उत्पाद में एमएसएमई द्वारा सकल मूल्य वर्धन (जीवीए) 2017-18 में 29.7% था, जो 2018-19 और 2019-20 दोनों में बढ़कर 30.5% हो गया। एमएसएमई की वृद्धि में स्पष्ट ठहराव था। 2019-20 में भारत के निर्यात में एमएसएमई ने 49.75% का योगदान दिया। अर्थव्यवस्था के पूरी तरह बंद होने से देश के एमएसएमई अत्यधिक व्यवधान का सामना कर रहे थे, जिसका असर नौकरियों की उपलब्धता पर पड़ा।
आत्मनिर्भर भारत पैकेज ने एमएसएमई क्षेत्र के लिए क्या किया? इसने पीएम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार के प्रदर्शन की एक बेहतरीन तस्वीर दिखाने के लिए परिभाषा को बदल दिया, इसके अलावा एमएसएमई क्षेत्र के लिए कई प्रोत्साहनों की घोषणा की, जिसमें संपार्श्विक मुक्त ऋण शामिल हैं, जो मंजूरी और संवितरण में बहुत धीमी थी, जिससे इस क्षेत्र को बहुत कम मदद मिली, जैसा कि आकड़े दिखाते हैं।
2020-21 में नयी परिभाषा के तहत, विनिर्माण और सेवा उद्यमों के लिए अलग-अलग परिभाषाओं को मिला दिया गया। सूक्ष्म उद्यमों के लिए निवेश की सीमा 25 लाख रुपये से बढ़ाकर 1 करोड़ रुपये, लघु उद्यमों के लिए 5 करोड़ रुपये से 10 करोड़ रुपये और मध्यम उद्यमों के लिए 10 करोड़ रुपये से 20 करोड़ रुपये कर दी गयी। वार्षिक कारोबार का एक नया मानदंड भी पेश किया गया। सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों के लिए कारोबार की सीमा क्रमशः 5 करोड़ रुपये, 50 करोड़ रुपये और 100 करोड़ रुपये निर्धारित की गयी।
परिभाषा बदलने से एमएसएमई की संख्या अचानक बढ़ गयी क्योंकि इसने तुलनात्मक बड़े उद्यमों को एमएसएमई में ला दिया, जिससे सरकार को यह दिखाने में मदद मिली कि कोविड-19 संकट, बंद और रोकथाम के उपायों के बावजूद एमएसएमई क्षेत्र ने भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 27.3 प्रतिशत का योगदान बनाये रखा है। अगर सरकार ने इस परिभाषा को नहीं बदला होता तो पुरानी परिभाषा के तहत एमएसएमई का योगदान कुल व्यवधान के कारण बहुत कम हो जाता। नई परिभाषा के तहत बड़े उद्यमों को एमएसएमई श्रेणियों में शामिल करके, इस क्षेत्र का जीडीपी (जीवीए) में योगदान 2021-22 में बढ़कर 29.6% हो गया और 2022-23 में 30.1% तक पहुँच गया। किसी भी तरह से यह कोई बड़ी बात नहीं थी, क्योंकि पुरानी परिभाषा के तहत भी 2018-19 और 2019-20 में जीडीपी (जीवीए) में एमएसएमई का योगदान 30.5 प्रतिशत था।
इस प्रकार ये आंकड़े इस वास्तविकता को छुपाते हैं कि वास्तव में एमएसएमई ने अपेक्षाकृत बड़े उद्यमों को एमएसएमई के तहत लाने के बाद भी अच्छा प्रदर्शन नहीं किया। पुराने और छोटे एमएसएमई उद्यम वास्तव में अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे थे, और बड़े उद्यमों को एमएसएमई श्रेणियों में लाकर सामूहिक बेहतरीन तस्वीर दिखाने के लिए भयावह वास्तविकता को छुपाया गया।
पुरानी परिभाषाओं के तहत भी छोटे एमएसएमई ने 2019-20 में भारत के निर्यात में 49.75 प्रतिशत का योगदान दिया। परिभाषा में बदलाव से, बड़े उद्यमों को लाने से इस योगदान में काफी वृद्धि होने की उम्मीद थी। हालाँकि, 2020-21 में यह घटकर 49.35% और 2021-22 में 45.03% हो गयी। 2022-23 में यह हिस्सा और भी कम होकर 43.59% हो गया, लेकिन 2023-24 में यह फिर से 45.73% हो गया, जो मई 2024 तक 45.79% दर्ज किया गया (केंद्रीय बजट 2025-26 में उपलब्ध नवीनतम डेटा)। यह अभी भी छोटे एमएसएमई की पुरानी परिभाषा के योगदान से लगभग 4 प्रतिशत कम है। यह दर्शाता है कि बड़े उद्यमों को एमएसएमई श्रेणी में लाने से वास्तव में कोई लाभ नहीं हुआ है, बल्कि पुराने और छोटे एमएसएमई के अस्तित्व के संघर्ष को छुपाने के लिए ऐसा किया गया है।
देखें कि कैसे नीति आयोग के उपाध्यक्ष बेरी मोदी सरकार की प्रशंसा करते हैं, जबकि आंकड़े एमएसएमई क्षेत्र को पुनर्जीवित करने में केंद्र की विफलता को स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं। वे कहते हैं, "एमएसएमई से निर्यात में भी पर्याप्त वृद्धि देखी गयी है, जो 2020-21 में 3.95 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 2024-25 में 12.39 लाख करोड़ रुपये हो गया है।"
परिभाषा बदलने का खेल अभी भी जारी है। केंद्रीय बजट 2025-26 में सूक्ष्म उद्यमों के लिए निवेश सीमा 1 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 2.5 करोड़ रुपये, लघु उद्यमों के लिए 10 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 25 करोड़ रुपये और मध्यम उद्यमों के लिए 50 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 125 करोड़ रुपये कर दी गयी है। इसी तरह, टर्नओवर की सीमा क्रमशः 5 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 10 करोड़ रुपये, 50 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 100 करोड़ रुपये और 250 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 500 करोड़ रुपये कर दी गयी है। यह परिभाषा बड़े उद्यमों को भी एमएसएमई क्षेत्र में ला सकती है। यह कागज पर महत्वपूर्ण वृद्धि दिखाने के लिए समग्र डेटा में सुधार कर सकता है, लेकिन वास्तविक एमएसएमई का अस्तित्व के लिए संघर्ष जारी रहेगा, जिससे सरकार बड़ी संख्या में नयी नौकरियां पैदा करने में विफल हो जायेगी।
फिर भी, नीति आयोग का दस्तावेज़ एमएसएमई के सामने आने वाली चुनौतियों की श्रृंखला में गहराई से उतरता है, और वित्तीय बाधाओं और तकनीकी अंतराल से लेकर कौशल की कमी और नियामक बाधाओं तक का उल्लेख पहले अध्याय में करता है। वह इन चुनौतियों पर काबू पाने के लिए एक ऐसा माहौल बनाने की बात करता है, जहाँ एमएसएमई फल-फूल सकें और प्रभावी ढंग से प्रतिस्पर्धा कर सकें।
दूसरा अध्याय क्लस्टर सिद्धांत में निहित प्रतिस्पर्धात्मकता ढांचे की बात करता है और कहता है कि इन क्लस्टरों का लाभ उठाकर, एमएसएमई दक्षता बढ़ा सकते हैं, नवाचार को बढ़ावा दे सकते हैं और बाजार की माँगों पर अधिक कुशलता से प्रतिक्रिया कर सकते हैं, जिससे प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त हासिल हो सकती है।
तीसरा अध्याय आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) से डेटा लेता है, जो दर्शाता है कि मालिकाना और साझेदारी उद्यमों में लगे 74.3 प्रतिशत श्रमिक गैर-कृषि क्षेत्र में शामिल हैं। यह अनौपचारिक क्षेत्र के प्रभुत्व को दर्शाता है। इसके अलावा, उद्यम पोर्टल के डेटा से पता चलता है कि 81 प्रतिशत एमएसएमई इकाइयां स्वामित्व वाली हैं तथा जिनमें 80 प्रतिशत माइक्रोएंटरप्राइज़ श्रेणी में आते हैं। दस्तावेज इस तरह के स्वामित्व संरचनाओं के प्रचलन को स्वीकार करते हुए कदम उठाने की पहचानते हुए समुचित कदम उठाने की भी बात करता है।
अंतिम और चौथा अध्याय राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर एमएसएमई को नियंत्रित करने वाले नीति परिदृश्य की समीक्षा करता है, जिसमें प्रतिस्पर्धा को बढ़ाने के उद्देश्य से वर्तमान उपायों की प्रभावशीलता का मूल्यांकन किया गया है। यह बताता है कि कई नीतियों के बावजूद, जागरूकता, हितधारक जुड़ाव और अनुकूलनशीलता में अंतर उनके प्रभाव को सीमित करते हैं। यह एक अधिक मजबूत और अनुकूल नीति ढांचे की सिफारिश करता है। (संवाद)
भारत के एमएसएमई क्षेत्र में भारी वृद्धि का दावा भ्रामक
नीति आयोग न करे जमीनी हकीकत को आंकड़ों में छिपाने का खेल
डॉ. ज्ञान पाठक - 2025-05-12 11:12
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार की परिभाषाएं बदलकर जमीनी स्तर पर वास्तविक वृद्धि के बिना ही अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में अचानक वृद्धि दिखाने की आदत रही है। हमने पहले भी देखा है कि कैसे मोदी सरकार के तहत कुछ राज्य-राजमार्गों को राष्ट्रीय-राजमार्ग घोषित करते ही राष्ट्रीय राजमार्गों का निर्माण किये बिना ही उनकी लंबाई अचानक बढ़ गयी। इस तरह का ताजा उदाहरण अब एमएसएमई क्षेत्र में भी देखने को मिला है।