यही कारण है कि भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध विराम का न केवल शांति कार्यकर्ताओं बल्कि पूरे देश के लोगों ने जोरदार स्वागत किया। सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोग इस घोषणा से बहुत राहत महसूस कर रहे थे। पाकिस्तान में आतंकवादी शिविरों पर हमला करने का निर्णय लेने के तुरंत बाद, यह महसूस किया गया कि पाकिस्तान जवाबी कार्रवाई करेगा और यह बालाकोट की पुनरावृत्ति नहीं होगी। इसलिए सीमावर्ती क्षेत्रों के गांवों को खाली करवा दिया गया और लोगों को अस्थायी शिविरों में स्थानांतरित कर दिया गया। ऐसे शिविरों में जीवन हमेशा दयनीय होता है। यह मैं 1965 के युद्ध के दौरान एक किशोर के रूप में अपने अनुभव से कह सकता हूँ जब हमारे स्कूल खाली करवा दिये गये थे, कक्षाएं बंद कर दी गयी थीं और सीमा से सटे गांवों के लोगों को हमारे स्कूल में स्थानांतरित कर दिया गया था। हम उनके लिए भोजन एकत्र कर रहे थे और उन्हें इन नये तथाकथित घरों में आपूर्ति कर रहे थे। कोई गोपनीयता नहीं, कोई पसंद का भोजन नहीं, कोई उचित आश्रय नहीं, कोई काम नहीं और बच्चों के लिए स्कूल के दिनों का नुकसान, मैं महसूस कर सकता था कि युद्ध कितना भयानक है। यह सर्वविदित तथ्य है कि दुनिया के किसी भी हिस्से में शरणार्थी शिविर में जीवन बहुत कठिन है, चाहे वह क्षेत्र कितना भी विकसित क्यों न हो। इसलिए जब युद्ध विराम हुआ, तो लोगों ने राहत की सांस ली।
इस पृष्ठभूमि में सोमवार रात प्रधानमंत्री के भाषण से बहुत कुछ अपेक्षित था। एक महत्वपूर्ण सवाल जो लोगों के मन में पहले से ही आ रहा था, वह यह था कि हमारे प्रधानमंत्री के भाषण से कुछ मिनट पहले ही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कैसे की? यह आश्चर्यजनक था कि उन्होंने भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध विराम समझौते की घोषणा की और दोनों देशों को युद्ध विराम के लिए सहमत होने के लिए मजबूर किया, जबकि उन्होंने धमकी दी कि अगर वे युद्ध नहीं रोकेंगे तो वे व्यापार नहीं करेंगे। अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद बोलने वाले नरेंद्र मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा कही गयी बातों का खंडन करने में विफल रहे।
इससे पता चलता है कि भारत और पाकिस्तान के मामलों में ट्रंप का स्पष्ट हस्तक्षेप और द्विपक्षीय वार्ता के माध्यम से मुद्दों को सुलझाने की हमारी समझ पर उनका हावी होना हमारे नेतृत्व द्वारा स्वीकार कर लिया गया है। द्विपक्षीय वार्ता से मुद्दों के सुलछाने की समझ शिमला समझौता 1972 से बनी थी। लेकिन दुर्भाग्य से प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में इस बारे में एक भी शब्द नहीं कहा। उनका पूरा भाषण पाकिस्तान की आलोचना करने और यह बताने पर केंद्रित था कि भारत भविष्य में भी जरूरत पड़ने पर बल का प्रयोग करता रहेगा।
इस समय उन्हें युद्ध विराम को मजबूत करने के बारे में बात करनी चाहिए थी और शांति के लिए भारत की प्रतिबद्धता को स्पष्ट शब्दों में व्यक्त करना चाहिए था। हमेशा की तरह भारतीय सेना ने 7 मई को पहले ही दिन आतंकवादी शिविरों को निशाना बनाकर बेहतरीन काम किया। जैसा कि प्रेस कॉन्फ्रेंस में प्रधान सचिव श्री विक्रम मिसरी ने कहा कि हमारा काम केवल आतंकवादी शिविरों को निशाना बनाना था और हमारा इरादा नागरिकों को मारना या पाकिस्तान के सैन्य क्षेत्रों को निशाना बनाना नहीं है।
हालांकि 7 मई के बाद पाकिस्तान द्वारा की गयी जवाबी कार्रवाई ने स्थिति को और खराब कर दिया। प्रधानमंत्री अगर भारत और पाकिस्तान के बीच स्थायी युद्ध विराम से शुरू करके दक्षिण एशियाई क्षेत्र में शांति को मजबूत करने की बात करते तो वे दक्षिण एशिया के एक बड़े नेता के रूप में आगे बढ़ते। लेकिन उन्होंने यह मौका गंवा दिया। बयानबाजी से भरा उनका भाषण केवल अंधभक्ति पैदा करके अपने चुनावी आधार को मजबूत बनाने के लिए था।
उन्हें सार्क को मजबूत करने की बात करनी चाहिए थी ताकि सभी दक्षिण एशियाई देश मिलकर उन मुद्दों को सुलझा सकें जहां भारत पाकिस्तान पर आतंकवादी तंत्र को तोड़ने के लिए दबाव डाल सकता था। जहां भारत आजादी के बाद धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश के रूप में विकसित हुआ, वहीं पाकिस्तान लंबे समय तक एक धर्मशासित राज्य के रूप में सेना के शासन में रहा। सेना के अधिकारी बड़े कारोबार को नियंत्रित करते हैं और वे पाकिस्तान में बड़े भू-स्वामी हैं। इसलिए हमें अर्ध-लोकतांत्रिक राज्य के साथ मामलों में सावधानी से आगे बढ़ना होगा।
26 नवंबर, 2008 को मुंबई में ताजमहल होटल पर हुए हमले के दौरान भारत ने सफलतापूर्वक हमले में पाकिस्तान की संलिप्तता के सुबूत दिये थे। इसलिए जब कसाब को मौत की सजा सुनायी गयी और उसे फांसी दी गयी, तो दुनिया में कहीं भी कोई शोर-शराबा नहीं हुआ। वर्तमान भारतीय सरकार को भी अब ऐसा ही करना चाहिए था और पहलगाम में निर्दोष पर्यटकों को मारने वाले आतंकवादियों के बारे में पाकिस्तान को सुबूत देने चाहिए थे। इससे हमारी विश्वसनीयता बढ़ती और भारत की स्थिति मजबूत होती।
बहरहाल, कभी भी देर नहीं होती। युद्ध विराम अभी भी जारी है, भले ही कमजोर आधार पर। लेकिन हम इसे मजबूत बना सकते हैं। दोनों देशों को इसके लिए जिम्मेदारी से काम करना चाहिए। पाकिस्तान के लिए सेना को मनाना एक बड़ा काम है। नागरिक सरकार और नागरिक समाज को अच्छे पड़ोसी संबंधों के लिए जोरदार आवाज उठानी होगी।
भारत को सार्क को मजबूत करने में अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए। किसी भी परिस्थिति में बातचीत की प्रक्रिया जारी रखनी चाहिए। दक्षिण एशिया को साझा सुरक्षा प्रणाली विकसित करनी चाहिए। दक्षिण एशियाई देशों की संयुक्त बैठकों के माध्यम से पाकिस्तान को अपने परमाणु सिद्धांत के रूप में परमाणु हथियारों का पहले इस्तेमाल न करने के लिए राजी करना चाहिए। (संवाद)
भारत में अभी बयानबाजी की नहीं बल्कि राजनेतृत्व की जरूरत
प्रधानमंत्री का भाषण भी था मुख्य रूप से उनके चुनावी आधार पर केन्द्रित
डॉ. अरुण मित्रा - 2025-05-15 10:34
युद्ध दुख और मौतें लेकर आता है। पूर्व सेना प्रमुख मनोज नरवाने ने पुणे में कॉस्ट अकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा, “युद्ध न तो रोमांटिक है और न ही कोई बॉलीवुड फिल्म।” उन्होंने कहा कि कूटनीति उनकी पहली पसंद होगी, “सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोगों में सदमा है, जिनमें बच्चे भी शामिल हैं, जिन्होंने गोलाबारी देखी है और जिन्हें रात में आश्रयों की ओर भागना पड़ता है। जिन लोगों ने अपने प्रियजनों को खो दिया है, उनके लिए यह सदमा पीढ़ियों तक रहेगा।” उन्होंने आगे कहा कि जिन लोगों ने भयानक दृश्य देखे हैं, उनमें पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (पीटीडीएस) है, जो 20 साल बाद पसीने से तरबतर हो उठते हैं और उन्हें मनोचिकित्सकीय देखभाल की आवश्यकता होती है। युद्ध अंतिम विकल्प होना चाहिए, कूटनीति को आगे बढ़ना चाहिए।