नयी दिल्ली: भारतीय संसद में पिछले कुछ समय से सिर्फ एक चीज हाबी है। सत्तापक्ष का छल-बल और विपक्ष की बेवसी। कभी कांग्रेस की सहयोगी राजनीतिक पार्टियां, विशेषकर वामपंथी राजनीतिक पार्टियां सत्तापक्ष के साथ हो लेती हैं तो कभी कांग्रेस की बलात् कार्य करने की प्रवृत्ति का शिकार बनकर बेवश हो जाती है और फिर विपक्ष के सुर में ताल बैठाने लगती है। भारत की जनता यह सब देख-सुन कर हतप्रभ है।

कल का ही उदाहरण लीजिए। भारतीय संसद के उच्च सदन में देश के विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने माननीय सदस्यों को आश्वासन दिया कि भारत और अमेरिका के बीच हुए नाभिकीय समझौते के पहले पूरी तरह लागू हो जाने के बाद उनकी सरकार सदन की भावना को ध्यान में रखेगी। उधर सरकार की ही सहयोगी वाम राजनीतिक पार्टियों के अलावा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के नेतृत्व में संपूर्ण विपक्ष यह कहते हुए संसद का से बाहर चला गया कि संसद की भावना तो इस नाभिकीय सौदे के ही खिलाफ है।

दरअसल प्रणव मुखर्जी उसी तरह फालतू बात कर रहे थे जिस तरह उनके प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह करते रहे हैं। किसी भी काम को संपन्न कर लिए जाने के बाद जनभावना का ध्यान रखना संभव नहीं है। उदाहरण के लिए, यदि कोई कहता है कि बलात्कार सही नहीं है इसे रोका जाना चाहिए, तो आप ऐसा आश्वासन नहीं दे सकते कि बलात्कार की प्रक्रिया पहले पूरी हो जाने दीजिए उसके बाद आपकी भावना का पूरा ख्याल रखा जायेगा। कम से कम कोई सभ्य आदमी तो ऐसा नहीं कह सकता। सवाल भारत-अमेरिकी नाभिकीय सौदे के गुण – दोष पर विचारण कर लेने के बाद उसे लागू करने का है। यह किसी भी तरह से मान्य कैसे हो सकता है कि पहले उसे लागू होने दिया जाये और उसके बाद जिन दोषों पर सदन के माननीय नेताओं ने ध्यान दिलाया है उनपर विचार किया जाये। यह उसी तरह है जैसे कि कोई कहे कि पहले पैर काट लेने दीजिए और उसके बाद हम उस व्यक्ति को दौड़ने लायक बना देंगे। ऐसे आश्वासन निरर्थक होते हैं और बकवास की श्रेणी में आते हैं।

भारत – अमेरिकी परमाणु समझौते के लाभ और हानि की तुलना बलात्कार से ही की जा सकती है क्योंकि सरकार भी इसे लागू करने के लिए बलात् कर रही है। वह किसी की सुनने को तैयार नहीं। न विपक्ष की और न ही अपने गठबंधन सहयोगियों की। सत्ता पक्ष हो सकता है कि सही कह रही हो कि इससे भारत की तरक्की होगी, और सौदे के विरोधियों का विरोध भी सही हो सकता है। यह तो महज दृष्टिकोण और मूल्यों का सवाल है कि कोई स्त्री अपने विकास के लिए अपनी अस्मिता खोने को तैयार हो और कोई अस्मिता बचाने के लिए अपनी जान दे दे। कोई किस तरह का विकास चाहे यह उसकी स्वतंत्रता है। लेकिन सरकार जबरी कर रही है। यह किसी भी कीमत पर कैसे स्वीकार कर लिया जाये?

अब आइये आश्वासनों पर और आश्वासनों के हश्र पर। प्रणव मुखर्जी जी को याद होगा कि किस तरह उनके प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने अपने वित्त मंत्रित्व काल में देश को अनेक तरह के आश्वासन दिये थे और नयी अर्थ व्यवस्था मनमाने ढंग से लागू की थी। वह कहते थे कि पहले इसे लागू हो जाने दीजिए और फिर देखिए देश का आर्थिक विकास कैसे होता है। फिर वह लागू हो गया। शेयर बाजार में उछाल आने लगा। जनता को उनके हितों की रक्षा के लगातार आश्वासन दिये जाते रहे और उसके साथ ही हर्षद मेहता का प्रतिभूति घोटाला कांड हो गया।

याद कीजिए। कांड तो हो गया। कार्रवाई करने की बात आयी। तो यही मनमोहन सिंह ने संसद में वित्त मंत्री की हैसियत से कहा कि वह अब कुछ नहीं कर सकते। उनका “सिस्टम फेल” हो गया।

इस पृष्ठभूमि में ही इस सरकार के सभी आश्वासनों को देखने की विवशता आन पड़ी है। क्योंकि आपकी कथनी और करनी में बड़ा फर्क है। आपके इरादों पर इस देश की जनता को शक है, विपक्ष को शक है और स्वयं आपके सहयोगी राजनीतिक पार्टियों, विशेषकर वाम राजनीतिक पार्टियों को शक है।

कुछ और उदाहरण ले लीजिए। जिस राज्य सभा में वित्त मंत्री ने सौदे की प्रक्रिया के लागू हो जाने के बाद संसद की भावना को ध्यान में रखने का निर्लज्ज आश्वासन दिया उसी राज्य सभा में एक आश्वासन समिति भी है। आश्वासन समिति की ताजी रपट अभी नहीं आयी है लेकिन पिछली रपट को ही जनता देख ले तो सत्ता पक्ष से उसका भरोसा उठ जायेगा।

ए विजयराघवन की अध्यक्षता वाली समिति ने अपनी रपट में लिखा कि सरकार ने कि अनेक आश्वासनों को लागू नहीं किया गया और अनेक को इस ढंग से लागू किया गया जो असंतोषजनक था। समिति ने 14 मामलों का विशेष उल्लेख किया जिसमें सरकार ने उटपटांग और अनुचित आश्वासन दिये और उन्हें लागू करने के मार्ग में वास्तविक मुद्दों पर ही ध्यान नहीं दिया।

अपने दिये गये आश्वासनों को पूरा नहीं करने वाली सरकार के विभिन्न मंत्रालयों ने बड़ी संख्या में समिति से अनुरोध किया था कि आश्वासनों को पूरा करने के लिए उन्हें और समय दिया जाये। लेकिन दुर्भाग्य यह कि बड़ी संख्या में आश्वासन पूरे नहीं किये जाते।

इस समिति से सरकार ने 46 मामलों में अनुरोध किया कि आश्वासनों को पूरा करना उचित या संभव नहीं है इसलिए इन्हें छोड़ दिया जाये। साफ है कि सरकार पलहे आश्वासन दे देती है और फिर समय आने पर कहती है कि वह उसे पूरा नहीं कर सकेगी।

समिति ने यह भी पाया कि सत्ता पक्ष के आश्वासन वर्षों तक लागू नहीं होते। समिति ने ऐसे 426 मामले पाये जो दो या उससे अधिक वर्षों से आश्वासनों के बावजूद लागू नहीं किये गये। फिर अनेक आश्वासन ऐसे होते हैं जो देर हो जाने के कारण प्रासंगिक ही नहीं रह जाते।

सवाल उठता है कि भारत – अमेरिकी नाभिकीय समझौते पर सरकारी आश्वासन को इस पृष्ठभूमि से हटकर देखा जा सकता है? क्या सरकार से यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि वह संसद में निर्णय हो जाने तक इंतजार क्यों नहीं करना चाहती? आखिर वह सौदे के लागू होने के बाद ही सदन की भावना का ख्याल रखने की बात क्यों कर रही है उसके पहले सदन की भावना का ख्याल रखने में मनमोहन सिंह, प्रणव मुखर्जी, आदि की रुचि क्यों नहीं है? सब कुछ शक के दायरे में आ गया है।#