उस समय ‘हितवाद‘ का संचालन प्रोग्रेसिव राइटर्स एंड पब्लिशर्स के हाथ में था, जिसके सर्वेसर्वा कांग्रेस नेता विद्याचरण शुक्ल थे। आपातकाल के दौरान शुक्ल केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे। इस तरह सेंसरशिप का काम भी उनके मंत्रालय के जिम्मे था। इस कारण ‘हितवाद’ से यह अपेक्षा थी कि वह सेंसरशिप के नियमों का मुस्तैदी से पालन करेगा।
परंतु एक ऐसा मौका भी आया जब मेरी सेंसर अधिकारियों से सीधी टक्कर हो गयी। चंडीगढ़ में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन का आयोजन था। अधिवेशन की रिपोर्ट करने के लिए मैं ‘हितवाद‘ की ओर से चंडीगढ़ गया था। अधिवेशन प्रारंभ होने के पूर्व देश के मुख्य सेंसर ने पत्रकारों को संबोधित किया और अधिवेशन की रिपोर्टिग के संबंध में कुछ टिप्स दिये। हमें बताया गया कि पत्रकारों को अधिवेशन की कार्यवाही की रिपोर्ट भेजने के पूर्व सेंसर को दिखाना होगा। इसके साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया कि प्रधानमंत्री के भाषणों की रिपोर्ट दिखाना जरूरी नहीं है। श्रीमती गांधी उस समय प्रधानमंत्री होने के साथ-साथ कांग्रेस की अध्यक्ष भी थीं।
मैंने इस बात के मद्देनजर श्रीमती गांधी के भाषण की रिपोर्ट सेन्सर को बिना दिखाये तार आफिस में दे दी। इस स्पष्टीकरण के बावजूद कि प्रधानमंत्री के भाषण की रिपोर्ट सेन्सर नहीं होगी सेन्सरशिप अधिकारियों द्वारा तार आफिस पर नजर रखी जा रही थी। इस तरह की प्रक्रिया के चलते मेरी रिपोर्ट देखी गयी होगी। उसके थोड़े समय बाद अधिवेशन स्थल के लाउंज में लाउडस्पीकर पर घोषणा की गयी कि ‘हितवाद‘ के प्रतिनिधि हरदेनिया जहां भी हों मुख्य सेन्सर से मिल लें। तदानुसार मैं मुख्य सेन्सर से मिला। उनके पास मेरा प्रेस टेलीग्राम था। उन्होंने मुझसे कहा कि आप को इस रिपोर्ट के कुछ अंश हटाने होंगे। मैंने पूछा क्यों? उनका कहना था - इसलिए कि वे आपत्तिजनक हैं। इस पर मैंने कहा कि मैंने तो वही लिखा है जो प्रधानमंत्री ने कहा था। सेन्सर अधिकारी अपनी बात पर अड़े रहे। परंतु मैंने अपने समाचार में कोई भी परिवर्तन करने से इंकार कर दिया। कुछ समय बाद मेरे रवैये की ओर विद्याचरण शुक्ल का ध्यान आकर्षित किया गया और उनसे हस्तक्षेप की अपेक्षा की गयी। परंतु शुक्ल ने सेन्सर अधिकारी से कहा कि वे इस मामले में नहीं बोलेंगे। आप लोग ही निपटें। अंततः सेन्सर को मेरे तार को बिना किसी संशोधन के भेजना पड़ा।
संजय गांधी का दबदबा
आपातकाल में संजय गांधी का चारों ओर दबदबा था। कोई भी पत्र-पत्रिका उनके खिलाफ नहीं लिख सकती थी। परंतु कुछ संपादक ऐसे थे जो हिम्मत करके अपनी बात लिखते थे। दिल्ली से प्रकाशित होने वाली साप्ताहिक पत्रिका “मेनस्ट्रीम“ के तत्कालीन संपादक निखिल चक्रवर्ती उन पत्रकारों में से थे जो संजय गांधी की खुलकर आलोचना करते थे। “मेनस्ट्रीम“ के एक अंक में एक कार्टून छापा गया जिसमें बेटा बाप से पूछता है कि पापा संजय गांधी ने पांच सूत्री कार्यक्रम क्यों लागू किया है। बाप जवाब देता है इसलिए क्योंकि संजय गांधी को पांच से ज्यादा गिनती नहीं आती है। इस कार्टून को देखकर संजय गांधी काफी बौखलाए और उन्होंने विद्याचरण शुक्ल से कहा कि वे चक्रवर्ती के विरूद्ध दंडात्मक कार्यवाही करें।
चक्रवर्ती देश के एक अत्यधिक प्रतिष्ठित पत्रकार थे। उनके विरूद्ध कार्यवाही के गंभीर परिणाम हो सकते थे। यह बात शुक्ल समझते थे। इसलिए किसी भी प्रकार की कार्यवाही करने के पहले उन्होंने चक्रवर्ती से बात करना उचित समझा। मैं उस समय “मेनस्ट्रीम“ में लिखा करता था। शुक्ल यह जानते थे। उन्होंने मुझे दिल्ली आने को कहा और भोपाल से दिल्ली का हवाई जहाज का टिकिट भिजवाया। मैं दिल्ली पहुंचा।
शुक्ल ने कहा कि वे चक्रवर्ती से, जिन्हें लोग स्नेह से निखिल दादा कहा करते थे, मिलना चाहते हैं। मैंने शुक्ल का संदेश निखिल चक्रवर्ती को दिया और उनसे पूछा कि वे कब शुक्ल के पास चल सकते हैं। उनका कहना था शुक्ल मुझसे मिलना चाहते हैं तो वे मुझसे मिलने आ सकते हैं। मैं उनसे मिलने क्यों जाऊं। मेरी तो उनसे मिलने की कोई इच्छा नहीं हैं।
मैंने चक्रवर्ती के इस उत्तर से शुक्ल को अवगत कराया। यह सुनकर वे स्वयं दादा के पास जाने को तैयार हो गये। उन्होंने चक्रवर्ती के कार्यालय पहुंच कर उनसे कहा कि आप संजय गांधी के खिलाफ कुछ न लिखें। आखिर वह नौजवान है, एक उभरता हुआ नेता है। इस पर दादा ने कहा कि मैं इस तरह की कोई गारंटी नहीं दे सकता। दादा का उत्तर सुनकर शुक्ल ने कहा कि मुझ पर दबाव है कि मैं आपके विरूद्ध कार्यवाही करूं। इस पर दादा ने कहा कि मुझे जो उचित लगेगा मैं करूंगा, आपको जो उचित लगे, वह आप करें।
जब एक मंत्री को डांट पड़ी
आपातकाल के दौरान की एक और घटना मुझे याद आ रही है। संजय गांधी भोपाल आने वाले थे। उनके स्वागत की जोरदार तैयारियां चल रहीं थीं। इसी सिलसिले में मध्यप्रदेश के श्यामाचरण शुक्ल मंत्रीपरिषद् के शिक्षा मंत्री ने एक आदेश निकाल दिया कि कालेजों के प्राचार्य अपने छात्र-छात्राओं को संजय गांधी के स्वागत के लिए सड़क पर खड़ा करें। इस आदेश को पाकर भोपाल की महारानी लक्ष्मीबाई कन्या महाविद्यालय की प्राचार्या श्रीमती इंदू मेहता आग बबूला हो गईं। उन्होंने कहा कि मैं किसी हालत में अपनी बच्चियों को स्वागत के लिए नहीं ले जाऊंगी और यदि ऐसा करने के लिए मुझे मजबूर किया गया तो मैं सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दूंगी।
श्रीमती मेहता ने अपने आक्रोश से कम्यूनिस्ट नेता होमी दाजी को अवगत कराया। दाजी उस समय इंदौर में थे। वे उस समय विधायक थे। उन्होंने मुझे फोन किया कि मैं श्रीमती मेहता की मदद करूं। तदानुसार मैंने मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल से संपर्क किया। शुक्ल ने माना कि यह आदेश अनुचित है। उन्होंने यह भी कहा कि युवक कांग्रेस में सभी प्रकार के तत्व हैं। उनके साथ कालेज की बच्चियों को खड़ा करना मूर्खता है। उन्होंने उस आदेश को तुरंत वापस लिया और श्रीमती मेहता को आश्वस्त किया कि उन्हें अपने महाविद्यालय की बच्चियों को लाने की जरूरत नहीं है। शुक्ल ने संबंधित मंत्री को भी डांट लगायी।
संजय गांधी जिस दिन भोपाल आये उस दिन मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल समेत पूरी मंत्रिपरिषद ने हवाई अड्डे पर उनका ऐसा स्वागत किया जैसा साधारणतः राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री का किया जाता है। वैसे शुक्ल, जो कुछ हो रहा था, उसके प्रति निजी चर्चा में अपना आक्रोश प्रकट करते थे परंतु सार्वजनिक रूप से उन्होंने भी संजय गांधी की जमकर खुशामद की।
संजय गांधी के लिए आमसभा का आयोजन किया गया था। आमसभा को संबोधित करते हुए शुक्ल ने कहा था कि आज आपके स्वागत को देखकर देवता भी प्रसन्न हो रहे होंगे। संजय गांधी ने अपने भोपाल प्रवास में पत्रकारों से भी भेंट की थी। हम सब पत्रकार एक हॉल में बैठे संजय गांधी का इंतजार कर रहे थे। संजय गांधी के हॉल में प्रवेश के थोड़े समय बाद श्यामाचरण शुक्ल ने प्रवेश किया। मुख्यमंत्री को आते देख हम पत्रकार खड़े हो गए। जब हम लोग खड़े हुए तो संजय गांधी ने जानना चाहा कि हम लोग क्यों खड़े हो रहे हैं। इस पर मैंने कहा कि प्रोटोकॉल का तकाजा है कि मुख्यमंत्री का स्वागत खड़े होकर किया जाये। मेरी सलाह है कि आप भी खड़े होकर उनका स्वागत करें। मेरी बात सुनकर उन्होंने मुंह बना लिया। इस छोटी सी घटना से स्पष्ट होता है कि संजय गांधी कितने घमंडी व अशिष्ट व्यक्ति थे।
संजय गांधी के दबदबे के इसी दौर में एक बार ज्ञानी जैल सिंह भोपाल आये थे। जब पत्रकारों ने उनसे जानना चाहा कि आपके संजय गांधी से क्या संबंध हैं तो उन्होंने जवाब दिया कि “वे हमारे बाप हैं।“ ज्ञानी जैल सिंह बाद में देश के राष्ट्रपति बने। ज्ञानी जैल सिंह के इस उत्तर से ही इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि उस समय देश की सबसे बड़ी पार्टी की आंतरिक स्थिति किस हद तक खस्ता व दयनीय थी। श्यामाचरण शुक्ल का पूरा कार्यकाल आपातकाल में बीता। श्यामाचरण स्वभाव से एक डेमोक्रेट थे। यदि उन्हें साधारण स्थिति में प्रदेश का नेतृत्व करने का अवसर मिलता तो प्रदेश का चेहरा कुछ और ही होता।
आपातकाल का सर्वाधिक निदंनीय पहलू था सेंसरशिप
अधिकारियों ने की प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के भाषण की रिपोर्टिंग पर भी आपत्ति
एल.एस. हरदेनिया - 2025-07-02 11:14
वर्ष 1975 के जून माह में देश में आपातकाल लागू कर दिया गया था। आपातकाल का सर्वाधिक निदंनीय पहलू सेंसरशिप था। आपातकाल के दौरान मैं अंग्रेजी समाचार पत्र ‘दैनिक हितवाद’ में राजनीतिक रिपोर्टिंग करता था। सेंसरशिप के कुछ अनुभवों तथा घटनाओं का विवरण पेश है।