जबकि पिछले साल ज़्यादातर बातचीत में तेल ही हावी रहा, वेश्विक ऊर्जा बाजार में हो रहे बदलाव और वाशिंगटन में चल रही बातचीत ने हाइड्रोकार्बन को लेकर दबाव कम कर दिया है, जिससे नई दिल्ली और मॉस्को अपना ध्यान रक्षा सहयोग और बड़े रणनीतिगत संबंधों केन्द्रित कर पा रहे हैं। इस बदलाव को मुमकिन बनाने वाला एक बड़ा बदलाव क्रूड सप्लाई को लेकर उम्मीदों का पुरर्समायोजन है। वैश्विक तेल की कीमतों में उतार-चढ़ाव और भारत की ऊर्जा टोकरी की बदलती बनावट ने ऐसा माहौल बना दिया है, जहां रूसी हेवी क्रूड बनाम अमेरिकी लाइट क्रूड को लेकर टकराव अब ज़रूरी नहीं रहा। भारत की कई अन्य आपूर्तिकर्ताओं से आयात संतुलित करने की क्षमता, और खरीदे जाने वाले तेल के ग्रेड के बीच सीधी प्रतिस्पर्धा की कमी ने, वाशिंगटन और मॉस्को के साथ उसकी भागीदारी के बीच टकराव की गुंजाइश कम कर दी है। बदले में, इसने भारत के राजनयिक बैंडविड्थ से एक बड़ा बोझ कम कर दिया है, जिससे नीति योजनाकार रूस के साथ सहयोग के पुराने तरीकों पर फिर से विचार कर सकते हैं और किसी दूसरे भागीदार को नाराज़ करने की चिंता किए बिना नए तरीके खोज सकते हैं।

इस बदलाव से बनी जगह खास तौर पर रक्षा सहयोग में साफ़ दिखती है, जो लंबे समय से भारत-रूस समीकरण का सबसे अहम हिस्सा रहा है। दोनों सरकारों ने माना है कि रक्षा संबंधों को गहरा करना दिल्ली शिखर सम्मेलन का केन्द्र होगा। उम्मीद है कि चर्चा पारंपरिक खरीदार-बिक्रीकर्ता गत्यात्मकता से आगे बढ़ेगी, जिसने शीतयुद्ध काल के बाद से सैन्य संबंधों को आकार दिया है। भारत, जो अब रक्षा उत्पान में स्वदेशीकरण और आत्मनिर्भरता के लिए अपनी कोशिशों में ज़्यादा ज़ोर दे रहा है, ऐसे मॉडल खोज रहा है जिनमें प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, संयुक्त विनिर्माण और साइबर क्षमताओं, स्पेस आधारित संपदा और एडवांस्ड प्रोपल्शन सिस्टम जैसे उभरते हुए क्षेत्र में लंबे समय तक सहयोग शामिल हो।

मॉस्को, अपनी तरफ से, भारत को एक भरोसेमंद भागीदार के तौर पर बनाए रखने में फ़ायदा देखता है, ऐसे समय में जब उसके अपने रणनीतिगत माहौल पर काफ़ी दबाव पड़ा है। पश्चिमी पाबंदियों और बदलते क्षेत्रीय गठबंधनों ने रूस को अपने आर्थिक और राजनीतिक जुड़ावों में विविधता लाने के लिए मजबूर किया है। भारत का बड़ा बाज़ार, इसका बढ़ता रक्षा औद्योगिक आधार और इसका भूराजनीतिक वज़न रूस को स्थिरता और मौका दोनों देते हैं। आने वाला शिखर सम्मेलन इन मेलजोल को मज़बूत करने का एक रास्ता देता है, मौजूदा संबंधों और उत्पादनों पर काम करते हुए भविष्य के ऐसे रास्ते बताता है जो साझा रणनीतिगत गणना को दिखाते हैं।

इन बातों का नई दिल्ली की विदेश नीति के लिए भी बड़े असर हैं। रणनीतिगत स्वायत्तता पर भारत का लंबे समय से ज़ोर, बदलते वैश्विक शक्ति ढांचा द्वारा लगातार जांचा जा रहा है। अमेरिका-चीन तनाव के बदलते हालात, अन्तर्राष्ट्रीय प्रणाली में रूस की बदलती स्थिति और पश्चिम एशिया को आकार दे रही अनिश्चितताओं ने भारत की राजनयिक फुर्ती पर नई मांगें खड़ी कर दी हैं। इस माहौल में, रूस के साथ एक मजबूत भागीदारी बनाए रखने से कई मकसद पूरे होते हैं: यह भारत की पैंतरेबाज़ी की आज़ादी बनाए रखने में मदद करता है, इसके रक्षा प्रदर्शन में विविधता पक्का करता है और दूसरी बड़ी ताकतों के साथ बातचीत में फ़ायदा देता है।

इनमें से कई गणनाओं के साथ ऊर्जा सुरक्षा जुड़ी हुई है। भारत की विविधिकरण रणनीति का मतलब है कि कोई भी एक देश इसके आपूर्ति स्रोत पर हावी नहीं है, लेकिन रूस एक अहम भूमिका निभाता रहा है। इसका हेवी क्रूड भारत के रिफाइनिंग इकोसिस्टम में सटीक बैठता है, जबकि अमेरिकी लाइट क्रूड लोच और माप की अधिकता देता है। जैसे-जैसे वैश्विक बाजार ओपेक के व्यवहार में बदलाव, गैर-ओपेक आपूर्ति के विस्तार और कमोडिटी के बहाव को प्रभावित करने वाली बड़ी अस्थिरता के हिसाब से एडजस्ट कर रहे हैं, भारत के आयात प्रोफ़ाइल में रूसी और अमेरिकी क्रूड के बीच टकराव की कमी दोनों भागीदार के साथ समानांतर सम्बंध कायम रखने के लिए जगह देती है। इसने न केवल भूराजनीतिक जोखिमों को कम किया है, बल्कि भारत की ऊर्जा राजनयिकता को आगे बढ़ाने की क्षमता को भी गहरा किया है जो व्यावहारिक और लचीली दोनों है।

शिखर सम्मेलन में होने वाली चर्चाओं में बड़ी आर्थिक संभावनाओं पर भी बात होने की संभावना है, भले ही रक्षा और ऊर्जा सुर्खियों में छाए रहें। दोनों देशों के बीच व्यापार के आंकड़ों में पहले वृद्धि में तेज़ी दिखी, फिर कुछ समय के लिए ठहराव भी आया, जो लगातार बढ़ोतरी को अनलॉक करने के लिए ढांचागत दखल की ज़रूरत को दिखाता है। कनेक्टिविटी की दिक्कतें, निर्यात की टोकरी में सीमित विविधता और नियामक अवरोधों ने पारंपरिक रूप से तरक्की में रुकावट डाली है। मौजूदा माहौल में, जहां सप्लाई चेन की जोखिमों को कम कर उसे बेहतर बनाना वैश्विक प्राथमिकता बन गयी है, भारत और रूस द्विपक्षीय व्यापार को स्थिर करने के तरीके खोज सकते हैं। इसमें फार्मास्यूटिकल्स, कृषि, खनिज संसाधन और नाभिकीय प्रौद्योगिकी में सहयोग को बढ़ाना शामिल हो सकता है। ये ऐसे क्षेत्र हैं जहां पहले से ही सम्पूरक चीज़ें मौजूद हैं।

इसके अलावा, जिस भूराजनीतिक पृष्ठभूमि में यह शिखर सम्मेलन हो रहा है, वह दोनों देशों के बीच बातचीत की प्रकृति तय कर रहा है। भारत की पश्चिमी भागीदारी और रूस के साथ अपनी पारम्परिक दोस्ती के बीच लगातार संतुलन बनाना एक बारीक काम है। नई दिल्ली ने बड़ी ताकतों के ध्रुवीकरण में फंसने से बचने के बजाय, अपने रणनीतिगत हितों को आगे बढ़ाने के लिए कई कर्ताधर्ताओं के साथ अपने रिश्तों का फायदा उठाया है। वॉशिंगटन में तेल से जुड़े तनाव में कमी ने इस संतुलन के काम में आत्मतोष की एक परत को कम कर दिया है। इससे भारत मॉस्को के साथ शिखर सम्मेलन में ज़्यादा आत्मबल के साथ जा सकता है, यह जानते हुए कि वह दूसरे भागीदारों के साथ रिश्तों में तनाव डाले बिना अपने संबंधों को बचा सकता है।

रूस भी भारत के बढ़ते प्रोफाइल मूल्य को पहचानता है। बहुपक्षीय मंचों में इसकी भूमिका, इसकी बढ़ती अर्थव्यवस्था और इसकी बढ़ती रक्षा क्षमता, ये सभी मॉस्को की रणनीतिगत गणना में हिस्सा लेते हैं। यह शिखर सम्मेलन क्रेमलिन को लंबे समय से चली आ रही अच्छी नीयत को और मज़बूत करने का मौका देता है, साथ ही दूसरे वैश्विक कर्ताधर्ताओं को यह सिग्नल भी देता है कि रूस अपने आस-पड़ोस के अलावा भी भागीदारी में आगे है। मॉस्को के लिए, भारत के साथ मज़बूत रिश्ते बनाए रखना किसी एक भागीदार पर बहुत ज़्यादा निर्भरता से जुड़े जोखिमों को कम करने का भी एक तरीका है।

रिश्ते का महत्वपूर्ण कारक पहलू है — भरोसा, विश्वसनीयता और राजनीतिक सुविधा, जो शिखर सम्मेलन के आस-पास की रफ़्तार को बनाए रखने वाला एक मज़बूत कारक बना हुआ है। वैश्विक ढांचे में बदलाव और अमेरिका तथा यूरोप के साथ भारत के करीबी जुड़ाव के बावजूद, नई दिल्ली और मॉस्को के बीच भागीदारी की ऐतिहासिक भावना खत्म नहीं हुई है। शिखर सम्मेलन के लिए अपनाई गई शब्दावली, जिसमें ‘स्पेशल और प्रिविलेज्ड पार्टनरशिप’ (विशेष और तरजीही भागीदारी) पर ज़ोर दिया गया है, सिर्फ़ रस्मी नहीं है। यह दशकों के सहयोग से बने रिश्ते को दिखाता है, एक ऐसा रिश्ता जिसे दोनों देश उन वजहों से महत्व देते हैं जो पारंपरिक संबंधों को रणनीतिगत तर्किकता के साथ मिलाती हैं। (संवाद)