लेकिन 15 महीने के बाद नजारा बदल गया है। यूपीए की दूसरी सरकार में आत्मविश्वास की कमी झलक रही है। कांग्रेस के अपने शुभचिंतक भी सरकार की हालत को देखकर चिंतित हो रहे हैं। अब तो काग्रेस के अंदर के नेता भी सरकार के बारे मे खुलकर बोलने लगे हैं। दिग्विजय सिंह और मणिशंकर अय्यर की तो बात ही क्या अब तो केन्द्र सरकार के मंत्री तक आपस में कानाफूसी कर रहे हैं कि शीर्ष स्तर पर मौजूद अनिर्णय के माहौल में उनके द्वारा की गई पहल को नुकसान हो रहा है। कभी कभी तो कमलनाथ भी आराम कुर्सी पर बैठे विशेषज्ञों को लताड़ने लगते हैं।
सभी सरकारों पर अकर्मण्यता के आरोप लगते रहे हैं। लेकिन पहली बार शायद ऐसा हो रहा है कि इस सरकार पर समस्यओं को अनदेखी करने का आरोप लग रहा है। कांग्रेस और सरकार के अंदर के लोग भी यह कहते हुए मिल जाते हैं कि सरकार चुनौतियों का सामना करती दिखाई नहीं पड़ रही है और इसके कारण सरकार विरोधी माहौल बनने लगा है। कीमतों की वृद्धि के मामले को ही ले लें। इस मसले पर लोगों का गुस्सा बढ़ रहा है, लेकिन सरकार उस गुस्से के बाद भी कीमतों को कम करने के लिए कुछ करती नहीं दिखाई पड़ रही है।
चारों तरफ अकर्मण्यता का राज है और चुनौतियों का सामना करने की दमखम का अभाव है। पार्टी और सरकार दोनों इस बीमारी से ग्रस्त हैं। न तो प्रधानमंत्री और न ही कांग्रेस नेतृत्व अपनी दिलचस्पी के मामलो के अलावा किसी और मसले पर किसी प्रकार की जिम्मेदारी लेने को तैयार है। सोनिया प्रतिष्ठान कल्याणकारी योजनाओं के अलावा किसी और मसले से अपने आपको अलग करना चाहता है, तो प्रधानमंत्री की चिंता अपने आर्थिक सुधार कार्यक्रमों और विदेश नीति की अपनी प्राथमिकताओं के अलावा और कुछ नहीं है।
मानसून सत्र को सरकार जिस तरह से ले रही है, उससे उसके सामने एक के बाद एक बाधाएं खड़ी हो रही हैं। राष्ट्रमंडल खेलों पर रोज एक से एक घोटाले की खबरें आ रही हैं। कश्मीर लगातार हिंसक होता जा रहा है। उधर ममता बनर्जी ने माओवादियों का ख्ुाला समर्थन कर दिया है, जबकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उन्हें देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा घोषित कर रखा है।
राष्ट्रमंडल खेलों में हो रहे भ्रष्टाचार के मसले पर विपक्ष ने संसद को ठप्प कर दिया था। उस समय प्रणानमंत्री को खुद आकर यह कहना चाहिए था कि घोटाले की जांच कराई जाएगी और सभी दोषी लोगांे को दंडित किया जाएगा। इससे विरोधी शांत होते और सरकार में भी कुछ आत्म विश्वास आता। लेकिन उस चुनौती का सामना करने के लिए प्रधानमंत्री खेलमंत्री गिल पर आश्रित हो गए। इससे सरकार की विश्वसनीयता घटी।
ममता बनर्जी ने जब अपनी ही सरकार पर हत्या की कोशिश का आरोप लगाया, तो विपक्ष ने प्रधानमंत्री से जवाब चाहा। प्रधानमंत्री क्या सरकार के किसी मंत्री की तरफ से भी उस रोज कोई जवाब नहीं आया। अगले रोज गृहमंत्री पी चिदंबरम ने सरकार का पक्ष रखा। चिदंबरम ने जो कुछ कहा, वे पहले दिन ही प्रधानमंत्री खुद भी कह सकते थे। लेकिन प्रधानमंत्री अपनी जिम्मेदारियों से भागते नजर आ रहे हैं। (संवाद)
दिशा खो रही है यूपीए की दूसरी सरकार
शीर्ष स्तर पर है भ्रम का माहौल
राजनैतिक संवाददाता - 2010-08-16 09:18
नई दिल्लीः जब 22 जुलाई 2008 को समर्थक वामदलों ने यूपीए सरकार से समर्थन वापस लिया था, तो उस समय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि अब वे अपने आपको मुक्त समझ रहे हैं। उसके 10 महीने के बाद हुए लोकसभा चुनाव में मुख्य सत्ताधारी दल ने वामदलो को एक बार फिर पराजित किया और बढ़ी ताकत के साथ वह सत्ता में आई। वामदलों के लोकसभा सांसदों की संख्या घटकर एक तिहाई रह गई। कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़े कुछ दलों ने एकतरफा घोषणा करते हुए उसके नेतृत्व में बनी सरकार का समर्थन करने का फैसला कर लिया। तब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह में एक नया आत्मविश्वास जगा और लगने लगा कि अब वे प्रधानमंत्री के रूप में सही अर्थों में काम करने लगे हैं।