पिछले लोकसभा चुनाव मे भी लालू और पासवान ने मिलकर चुनाव लड़ा था। रामविलास पासवान की पार्टी ने 12 सीटों पर उम्मीदवार दिए थे, जबकि लालू की पार्टी के 28 उम्मीदवार थे। लोकसभा के चुनाव में इस मोर्चे की करारी हार हुई थी। राम विलास पासवान की पार्टी को तो कोई जीता ही नहीं। खुद रामविलास पासवान ही चुनाव हार गए थे। लालू यादव भी एक सीट से चुनाव हार गए थे। उनके सिर्फ 4 उम्मीदवार ही जीते।

इसलिए यदि लोकसभा चुनाव के नतीजों से कोई संकेत लिया जाय, तो लालू - पासवान की जोड़ी बिहार में कुछ खास हासिल करती नहीं दिखाई पड़ रही है। लेकिन बिहार में लोकसभा चुनाव के बाद भी चुनाव हुए हैं। बिधानसभा की 18 सीटों पर उपचुनाव हुए थे और उसमें लालू- पासवान गठबंधन ने 9 सीटों पर जीत हासिल कर लोकसभा चुनाव के नतीजों को मुह चिढ़ा दिया था। सबसे गौर करने की बात यही है कि वे उपचुनाव लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद ही हुए थे और ज्यादातर सीटें लोकसभा चुनाव लड़ने वाले विधायकों के इस्तीफे से ही खाली हुई थी।

यानी लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त खाने के बाद विधानसभा सीटों के उपचुनावों में आघी सीटों पर विजय हासिल कर लाल- पासवान की जोड़ी ने बिहार की राजनीति में अपनी संभावना को कमजोर होने नहीं दिया है। उपचुनावों की वह हार नीतीश कुमार के लिए किसी दुःस्वपत से कम नहीं थी। विधानसभा के अगले आमचुनाव के प्रचार के दौरान भी श्री कुमार को वह दुःस्वप्न सताता रहेगा और अपनी जीत के प्रति उन्हें शायद आश्वस्त होने नहीं देगा।

बिहार का चुनाव जाति समीकरणों की लड़ाई होती है। लालू यादव की चुनावी हार इसीलिए हुई, क्योंकि उनका जाति समीकरण बिगड़ गया। जबतक उन्हें पिछड़े वर्गों का समर्थन मिलता रहा, वे जीतते रहे। लेकिन गैर यादव पिछड़े उनसे नाराज होकर उनके खिलाफ हो गए। उसके बाद उनकी हार होने लगी। गैर यादव पिछड़ों का समर्थन नीतीश के साथ हो गया। उसके बाद बिहार की राजनीति में नीतीश लालू से भारी हो गए।

अगले चुनाव में भी नीतीश का मुख्य जनाधार गैरयादव पिछड़ा वर्ग ही होगा, क्योंकि इन वर्गों में लालू की छवि खराब बनी हुई है। गैरयादव पिछड़े वर्गो को लगता है कि लालू यादववादी नेता है और सत्ता में रहकर सिर्फ अपनी जाति के बारे में ही सोचतें हैं। लालू के जमाने में अपराधीकरण का जबर्दस्त बोलबाला था और उस अपराधीकरण के शिकार भी मुख्य रूप से समाज के कमजोर और पिछड़े वर्ग ही थे। इसलिए वे लालू राज को बिहार में एक बार फिर नहीं देखना चाहेंगे। गैर यादव हिंदू पिछड़ो की संख्या करीब 45 फीसदी होगी और नीतीश को ज्यादा मत इन्हीं वर्गों से मिलेंगे, क्योंकि अब अगड़े भी उनके खिलाफ हो गए हैं।

लालू यादव ने नीतीश कुमार के इस समर्थक समुदाय के खिलाफ चौरंगी समीकरण तैयार किया है। उनके समीकरण का नाम है पीएमआरवाई - यानी पासवान, मुसलमान, राजपूत और यादव। यादव और मुसलमानों के अतिरिक्त उनकी नजर राजपूतांे पर है। पिछले लोकसभा चुनावों में राजपूतों ने उनके राजपूत उम्मीदवारों को मत डाले थे। इसके कारण उनकी पार्टी के 4 लोकसभा सांसदों में 3 तो राजपूत जाति के ही हैं। उसके बाद तो मजाक में उनके आरजेडी को राजपूत जनता दल भी कहा जाने लगा है। लालू यादव ने राजपूतों का ज्यादा से ज्यादा समर्थन हासिल करने के लिए प्रभुनाथ सिंह को भी अपनी पार्टी में मिला लिया है। जेल में बंद आनंद मोहन का भी समर्थन हासिल कर लिया है। मुसलमानों को तो वे अपना मतदाता मानते ही हैं।

वैसे पिछले लोकसभा चुनावों में मुसलमानों ने लालू- पासवान के उम्मीदवारों को एक मुश्त वोट नहीं डाले थे। उनकी प्राथमिकता किसी भी पार्टी के खड़े मुस्लिम उम्मीदवार का जिताने की थी। इसके कारण उनके समर्थन से भाजपा का भी एक उम्मीदवार जीता और जनता दल(यू) का भी एक उम्मीदवार मुस्लिम मत पाकर जीतने में सफल हुआ। उन्होेने कांग्रेस और बसपा के मुस्लिम उम्मीदवारों को भी लालू के उम्मीदवारों की अपेक्षा ज्यादा पसंद किया। इस तरह से मुस्लिम मत बिखर गए थे।

लालू यादव कोशिश करेंगे कि मुस्लिम मत नहीं बिखरे, लेकिन उनकी समस्या यह है कि मुसलमान अब पहले की तरह भाजपा से भयभीत नहीं होते। अब भाजपा का भय दिखाकर पहले की तरह उनके मत एक मुश्त नहीं लिए जा सकते। यदि लोकसभा चुनाव की तरह ही मुसलमानों की पहली पसंद कोई पार्टी न होकर मुस्लिम उम्मीदवार रहा, तो इस बार भी उनके वोट बटेंगें। उनके वोट लालू- पासवान के अलावा कांग्रेस, बसपा, जद(यू) और भाजपा तक में जा सकते हैं। उनका वोट पाने के लिए नीतीश कुमार ने बहुत जतन ेिकए हैं। वे अपनी सरकार द्वारा किए गए कामों का हवाला देकर वे उनका मत पाना चाहेंगे। नीतीश में मुसलमानों के बीच पिछड़ा और अगड़ा का भी भेद खड़ा किया और उन्हें लगता है कि मुसलमानों के पिछड़े वर्गों को वे अपनी ओर खींच सकते हैं।

बिहार के चुनाव में कांग्रेस भी एक फैक्टर बन कर उभर रही थी, लेकिन प्रदेश कांग्रेस की अंदरूनी कलह ने उसका भारी नुकसान किया है। अनिल शर्मा के नेतृत्व में कांग्रेस में नया जोश दिखाई पड़ रहा था, लेकिन पार्टी कें अंदर के पुराने नेताओ से ही उनकी नहीं बनी और उन्हें अध्यक्ष पद से ही हटा दिया गया। उसके बाद कांग्रेस में पहले जैसा उत्साह नहीं दिखाई दे रहा है। केन्द्र सरकार की विफलताएं एक के बाद एक लोगों के सामने आ रही है, उसके कारण भी बिहार में कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनने में कठिनाई आ रही है। महंगाई के कारण जनता त्रस्त है। उसका सारा दोष कांग्रेस के सिर पर ही जा रहा है। बिहार के चुनाव में भले ही कश्मीर में केन्द्र सरकार की विफलता और राष्ट्रमंडल खेलों का भ्रष्टाचार कोई बड़ा मुद्दा नहीं हो, लेकिन महंगाई तो मुद्दा रहेगा ही और उसका नुकसान सिर्फ कांग्रेस को होगा।

कांग्रेस की ओर लोकसभा चुनाव के बाद तेजी से आ रहे थे, लेकिन महिला आरक्षण विधेयक ने इस पर ब्रेक लगा दिया। मुसलमान वर्तमान रूप में महिला आरक्षण विधेयक के घोर विराधी हैं। उस विधेयक के प्रति सोनिया गांधी के लगाव के कारण मुसलमान फिर भावनात्मक रूप से अपने आपको लालू के साथ पा रहे हैं।

नीतीश कुमार की नजर गैर पासवान दलित जातियों के ऊपर भी है। उन्होंने इन जातियों को महादलित का नाम दे दिया है। रविदास जाति की पहली पसंद तो मायावती की बसपा ही है, शेष दलित जातियों का समर्थन नीतीश को मिल सकता है। कहने को तो वोट पाने के लिए नीतीश विकास को मुद्दा बनाएंगे लेकिन उन्हें पता है कि लोग मतदान जाति के आधार पर करते हैं। इसलिए लालू के पीएमआरवाई समीकरण के खिलाफ उन्होंने भी अपने पक्ष में पिछड़ी और महादलित जातियों की गोलबंदी कर ली है और पिछड़े मुसलमानों पर भी उनकी नजर है। जाहिर है चुनाव जो पार्टी के आधार पर लड़े जाएंगे, लेकिन वोट जाति के आधार पर मांगे जाएंगे। (संवाद)