आज किसानों के हक का झंडा उठाने वाले नेताओं ने उस आंदोलन का संज्ञान तक नहीं लिया था। वास्तव में इस समय उत्तर प्रदेश के ये दो जिलें सुर्खियों में अवश्य हैं, पर आर्थिक विकास के नाम पर जमीन का अधिग्रहण, उसका उचित मुआवजा, निजी कंपनियों को विकास के नाम पर मिली छूट....आदि का मामला पूरे देश में ऐसा ही है। इसके पूर्व हमने उत्तर प्रदेश के दादरी, ग्रेटर नोएडा, पश्चिम बंगाल के सिंगूर और नंदीग्राम, उड़ीसा के कलींगनगर.... आदि में देख चुके हैं। ये वे स्थान हैं जिनकी ओर आंदोलन ंिहसक होने के कारण देश का ध्यान गया, अन्यथा देश भर में विकास के नाम पर जमीनों के अधिग्रहण एवं मनमाना मुआवजा तय कर किसानों को उनके हवाले छोड़ देने का उपक्रम चल रहा है।
पहले वर्तमान मामले को समझने की कोशिश की जाए। ताज एक्सप्रेस की कल्पना 2001 में की गई थी एवं 2008 में इसका नाम बदलकर यमुना एक्सप्रेसवे किया गया। माना जाता है कि इससे ग्रेटर नोएडा एवं आगरा के बीच की दूरी तय करने में औसत 100 मिनट कम लगेंगे। इसमें छः जिले गौतमबुद्ध नगर, बुलंदशहर, अलीगढ़, मथुरा, महामायानगर (हाथरस) एवं आगरा आते हैं। इस एक्सप्रेसवे में 334 गांव आते हैं एवं करीब 7 लाख की आबादी प्रभावित हो रही है। यमुना एक्सप्रेस वे का कुल क्षेत्रफल करीब 43000 हेक्टेयर है। लेकिन पूरी योजना केवल यमुना एक्सप्रेसवे तक सीमित नहीं है। इसमें पांच जिलों नोएडा, ग्रेटर नोएडा, अलीगढ़, मथुरा और आगरा में टाउनशिप भी बनाया जाना है। टप्पल उन पांच गांवांे में से है जिन्हें टाउनशिप के लिए अधिग्रहित किया जाना है। ये गांव हैं, जिकारपुर, कन्सारा, जहानगढ़ और कृपालपुर। सरकारें किस प्रकार काम करतीं हैं, इसका उदाहरण लीजिए। एक ही कंपनी को एक्सप्रेस के निर्माण के साथ टाउनशिप बनाने का अधिकार भी दे दिया गया। उसे एक्स्रपेस वे के दोनों ओर 2 करोड़ 50 लाख वर्गफीट भूमि के विकास करने का अधिकार मिला। इसे 36 वर्षों तक टॉल वसूली का भी अधिकार रहेगा। इस पूरे प्रोजेक्ट के लक्ष्य में ही ऐसी बातें निहित हैं, जिनके तहत सरकार ने संबंधित कंपनी को टाउनशिप एवं अन्य अधिकार दिए हैं। इसमंे लिखा है कि यह परियोजना इस क्षेत्र में औद्योगिक एवं नगरीय विकास का रास्ता खोलेगी एवं पर्यटन एवं उससे जुड़े उद्योगों को इससे नई ऊर्जा मिलेगी।
जाहिर है, औद्योगिक एवं नगरीय विकास का रास्ता यदि प्रशस्त करना है तो केवल सड़क बना देने भर से काम नहीं चलेगा। इसलिए सड़क के साथ टाउनशिप एवं विशेष आर्थिक क्षेत्र भी बनाना होगा। परियोजना बनाने वाले हमारे देश के नौकरशाह किसी परियोजना को सही ठहराने एवं दूरगामी लाभवाला साबित करने के लिए उसका ऐसा ही उद्देश्य बताते हैं। उसमें यह बात कभी निहित नहीं होती कि जितनी कृषि योग्य जमीनें उनमें जाएंगी उनसे पैदावार में जो कमी आएगी उसका परिणाम क्या होगा। इसमें यह भी नहीं लिखा जाता कि उन पर निर्भर वर्तमान किसानों एवं उनकी आने वाली पीढ़ियों पर कितना असर होगा। यह भी नहीं होता कि उस पर निर्भर पशुओं का क्या होगा। इसी प्रकार खेती के कारण पर्यावरण संतुलन की जो स्वाभाविक अवस्था है वहां सड़कों एवं उद्योगांे से निकलने वाले धुएं का क्या असर होगा। ये बातें उनकी चिंता की होतीं हीं नहीं। तुर्रा देखिए कि मनमाने तरीके से दाम तय करके किसानों को उसे स्वीकार करने के लिए विवश करते हैं। सरकारें दर किस तरह तय करतीं हैं इसका नजारा देखिए। नोएडा में सरकार का सर्किल दर 15 हजार से 30 हजार प्रति वर्गमीटर है और सरकार ने किसानों को सबसे ज्यादा जो मुआवजा दिया है वह है, 850 रुपया प्रति वर्गमीटर। इसी प्रकार अलीगढ़ में सरकारी सर्किल दर है,4 हजार से 9 हजार रुपया प्रति वर्गमीटर, जबकि सरकार ने किसानों को 434 रुपए प्रति वर्ग मीटर मुआवाजा दिया है। हम आप जानते हैं कि सरकार जो सर्किल दर तय करती है, वह वास्तविक दर से काफी कम होती है।
ये किसान केवल नोएडा की दर की ही तो मांग कर रहे थे। स्वयं नोएडा की निर्धारित दर ही कम है। यह दर इतना ज्यादा नहीं है कि किसानों को दे देने से कोई आफत आ जाती। सरकार की इस नीति के कारण देश में पिछले लंबे समय से बड़ी निर्माता कंपनियांे और इस व्यवसाय से जुड़े लोगों ने जमकर कमाई की है। आप इसी परियोजना को देखिए। टाउनशिप के लिए सरकार ने मुआवजे की राशि तय की एवं किसानों पर इसे स्वीकारने के लिए दबाव बनाया। पुलिस और प्रशासन यहां एक निजी कपंनी के रक्षक बन गए और किसान बेचारे बेसहारा। टाउनशिप विकसित करने वाली कंपनी वहां जमीन एवं भवनों की क्या दर तय करेगी, इसकी उसे आजादी होती है। इस पर सरकार का नियंत्रण नहीं होता। और बेचारे किसान एक बार मुआवजा लेने के बाद मूकदर्शक की भूमिका के अलावा कुछ नहीं कर सकते हैं। देश भर में यही हो रहा है।
इस प्रकार मुआवजे की राशि का उचित निर्धारण तो महत्वपूर्ण मुद्दा है ही, किंतु यह यहीं तक सीमित नहीं है। यदि टाउनशिप निर्माता कंपनियां अपना मूल्य स्वयं निर्धारित कर सकतीं हैं तो यही कार्य किसान क्यों नहीं कर सकते? दूसरे, यदि सड़कें बनाने वाली कपंनियां टॉल करों के रुप में इतने लंबे समय तक मोटी कमाई कर सकतीं हैं तो उसमें जमीन देने वाले किसानों का हिस्सा क्यों नहीं होना चाहिए? तीसरा, जिन किसानों की जमीन पर उद्योग या अन्य करोबार खड़े होते हैं या भवन बनते हैं उनको कमाई का एक हिस्सा क्यों नहीं मिलना चाहिए? सबसे बढ़कर उनकी जमीन के उपयोग में उनका मत क्यांे नहीं लिया जाना चाहिए? किसानों एवं जमीन मालिकों के साथ यह व्यवहार दासता की याद दिलाता है। यानी जिस प्रकार दास की इच्छा-अनिच्छा का कोई अर्थ नहीं था, वैसा ही किसानों के साथ है। तो सबसे पहले सत्ता प्रतिष्ठान की सोच बदलने की आवश्यकता है। जैसे ही सोच बदल जाएगी, यह समस्या भी समाप्त हो जाएगी। आखिर जब तक किसी जमीन पर खेती होती है तब तक उसका मूल्य कम और खेती के चरित्र से बाहर आते ही उसका मूल्य कई गुणा कैेसे बढ़ जाता है और क्यों? वहां सरकारी तंत्र कहां चला जाता है? ऐसा लगता ही नही गांव, किसान और खेती सरकार की प्राथमिकता में हैं। सत्ता प्रतिष्ठान की इसी गंदी मानसिंकता ने खेती को असम्मान एवं मजबूरी का काम बना दिया है। कुछ बड़े फार्म हाउसनुमा खेती को छोड़ दे ंतो देश में शायद ही कोई ऐसा हो जो बिल्कुल इच्छा से खेती करना चाहता हो। खेती मजबूरी का पर्याय बन चुकी है। जिस किसी को भी जीवनयापन का दूसरा आधार मिलता है, वह तुरत स्वयं को खेती से अलग करना चाहता है। गांवों को इन तथाकथित विकास परियोजनाओं मंे कितना नजरअंदाज किया जाता है उसका उदहारण हमारे यहां विकसित की गईं सड़कें हैं। ये अधिकांशतः गुजरतीं तो गांवों से हैं, पर गांवों के निवासियों के लिए सड़क पार करने, उनके पैदल चलने, साइकिल से चलने, जानवरों के चलने, बैलगाड़ी आदि के लिए कोई व्यवस्था ही नहीं है। उन्हें भगवान के भरोेसे छोड़ दिया गया है। आप का भाग्य, या तो आप चलकर अपने गंतव्य तक पहुंचिए, या फिर कुचलकर मर जाइए। भारत जैसे देश के लिए ये स्थितियां भयावह भविष्य की सूचक है। (संवाद)
उत्तर प्रदेश में किसान आन्दोलन: केवल मुआवजा राशि तय करने तक सीमित नहीं है मुद्दा
अवधेश कुमार - 2010-08-21 11:22
उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ एवं मथुरा के आंदोलनकारी किसानों ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा और राजनीतिक दबाव में केन्द्र सरकार ने भूमि अधिग्रहण संबंधी नया विधेयक लाने तथा राज्य सरकार ने उनके मुआवजे की राशि बढ़ाने व जमीन देने के मामले में किसानों की इच्छा को ही सर्वोपरि मानने की घोषणा की है। हालांकि जब तक ये घोषणाएं अमल में आतीं नहीं दिखतीं, यह विश्वास करना कठिन है कि वाकई सरकारें ऐसा करेगी। आखिर किसान इतने दिनों से आंदोलनरत थे और उनकी कहीं सुनवाई नहीं हो रही थी। जबतक वे हिंसक नहीं हुए और हिंसा में जानें नहीं गईं, सरकार की तो छोड़िए, अन्य राजनीतिक दलों का भी ध्यान उस ओर नहीं आया।