एक ताजा अध्ययन के अनुसार पिछली लोकसभा चुनाव मे अपराधि पृष्ठभूमि के लोकसभा सदस्यों की संख्या 128 थी, जो अब बढ़कर 150 हो गई है। उनमें से 72 के खिलाफ तो गंभीर आरोल लगे हुए हैं। यही कारण है कि अब सांसदों का समूह लोगों का सम्मान पहले की तरह नहीं पाता। उनके बारे में धारणा बनी है कि वे समाज सेवा के नाम पर भले राजनीति में होने का दंभ भरते हों, पर उनका असली उद्देश्य पैसा कमाना है।
यही कारण है कि जब वे अपनी ताकत का इस्तेमाल करते हुए अपना वेतन खुद बढ़ा लेते हैं, तो लोगों के मन में उनके प्रति जो खराब छवि बनी हुई है, वह और भी मजबूत होती है। और उसके कारण उनके खिलाफ लोगों का गुस्सा और भी बढ़ता है। उन्होंने अपना वेतन बढाने के लिए जिस तरीके का इस्तेमाल किया, वह तो और भी आपत्तिजनक है।
जब केन्द्र सरकार ने उनका वेतन तीन गुणा बढ़ाने का फैसला किया, तो लालू यादव व मुलायम सिंह यादव ने कुछ अन्य सांसदों की मदद से संसद में अपनी सरकार बनाकर नाटक करने लगे। दोनों संयुक्त रूप से प्रधानमंत्री बन गए। उनके उस नाटक की निंदा बाद में लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने की। लालकृष्ण आडवाणी और वामपंथी नेताओं ने भी उस नाटक की निंदा की।
लेकिन उनका वह नाटक बेकार नहीं गया। उसके द्वारा उन्होंने अपने लिए 10 हजार रुपए महीने का करमुक्त भत्ता अलग से हासिल कर लिया। दोनों यादव नेताओं ने लोकसभा में जो कुछ किया, उससे सदन की मर्यादा को और भी ठेस पहुंची और उसके कारण राजनैतिक वर्ग की छवि और भी खराब हुई। अब सांसदों की सालाना आय 60 लाख रुपए के आसपास हांे चुकी है।
यदि सांसद उस वेतन के योग्य होते तो शायद किसी को इस पर आपत्ति नहीं होती, लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है। हालांकि यह भी सच है कि कुछ सांसद ईमानदार हैं, पर अधिकांश सांसदों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। 150 सांसद तो अपराधी पृष्ठ भूमि के ही हैं। उन्हें तो ईमानदार सांसदों की श्रेणी में रखना उचित नहीं होगा। लोकसभा सांसदों मे 300 तो करोडपति भी हैं। उनके पास पहले से ही बहुत पैसे हैं, इसलिए उन्हें तो वेतन वृद्धि की जरूरत ही नहीं थी।
पिछले लोकसभा मे करोड़पति सांसदों की संख्या 154 थी, जो अब बढ़कर 300 हो गई है। जाहिर है अब राजनीति पैसा बनाने के पेशा के रूप में स्थपित होती जा रही है। अब तो मधुकोड़ा जैसे व्यक्ति भी सांसद हैं। आखिर उनका वेतन बढ़ने का क्या तर्क है?
सवाल यह उठता है कि वैसे धनी और बदनाम किस्म के लोग जब संसद में आ गए हों तो फिर उनका वेतन बढ़ाने का जिम्मा उन्हीं के ऊपर क्यों हो? उक सुझाव आया है कि उनका वेतन बढ़ाने के लिए एक स्वतंत्र आयोग बने, जो समय समय पर उनके वेतन के बारे में अनुशंसा करता रहेगा। देखने मंे तो यह सुणाव अच्छा लगता है, लेकिन कौन मानेगा कि वह स्वतंत्र आयोग वास्तव में स्वतंत्र होगा। अब तो सीबीआई पर भी आरोप लग रहे हैं कि वह सत्ता में बैठे राजनीतिज्ञों के इशारे पर नाचती है। इसलिए वेतन वृद्धि के लिए बनाए गए आयोग की स्वतंत्रता के बारे में भी शुरू से ही संदेह बना रहेगा। इसलिए बेहतर यही होगा कि राजनीतिज्ञ अपने आपको सुधारें। वे अपने आचरण से यह साबित करें कि वे वेतन में की गई ताजा वृद्धि के हकदार हैं। (संवाद)
भारत
सांसदों की वेतन वृद्धि
उसे सही साबित करना भी जरूरी
अमूल्य गांगुली - 2010-08-26 09:29
एक औसत भारतीय सांसदों की वेतन वृद्धि को यदि एक मजाक समझता है, तो उसका उचित कारण भी है। राजनीतिज्ञों ने अपनी छवि ही ऐसी बना ली है। जब से गांधी टोपी राष्ट्रभक्ति नहीं, बल्कि लूठ की प्रतीक बनी है, तभी से राजनीतिज्ञों के बारे में आम जनधारणा खराब हो गई है। पहले तो उनके ऊपर भ्रष्ट होने का ही आरोप लगता था, अब तो उन्हें अपराधी के रूप में भी देखा जाने लगा है।