पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) देश भर में भारत सरकार की महत्वपूर्ण जनोपयी कल्याणकारी योजनाओं को देश भर में प्रचारित-प्रसारित करने के लिए सालाना 50 लाख रुपये से अधिक के कारोबार वाले पीआर एजेंसियों से निविदा आमंत्रित की है। इस योजना के तहत विभिन्न मीडिया के मार्फत महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार जैसी प्रमुख विकास कार्यक्रमों को जन सूचना अभियान के तहत सुदूर गांवों तक लोगों तक पहुंचाने का जिम्मा देने जैसे कार्यक्रम का ठेका दिया जाएगा। इसमें राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, किसानों के लिए कल्याणकारी उपायों, शहरी और ग्रामीण भारत में कृषि क्षेत्र में प्रोत्साहन, रोजगार और गरीबी उन्मूलन, ग्रामीण सड़कों का ढांचागत विकास, इंदिरा आवास, ग्रामीण विद्युतीकरण आदि भारत निर्माण की योजनाएं भी शामिल हैं। पीआईबी की यह योजना न केवल अदूरदर्शी है बल्कि जिस तरह से निजी क्षेत्र को इस कार्य के लिए लगाया जाएगा वह इस कार्यक्रम को पलीता लगाने के लिए ही है।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि शहर केंद्रित ये इवेंट मैनेजमेंट कंपनियों या संगठनों के पास ऐसे निकायों की जानकारी और प्रचार के प्रसार में पेशेवर विशेषज्ञता नहीं होती है। सरकार को परिमाण चाहिए। इन कंपनियों के पास सार्वजनिक सूचना अभियान के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचे का अभाव है। ये संगठन या इवेंट मैनेजमेंट कंपनियां विवाह समारोह, खानपान, सेट अप जैसे कार्यों में भले ही निपुण हों इन्हें सरकारी योजनाओं के प्रचार-प्रसार का ज्ञान बिल्कुल नहीं होता। सरकारी योजनाओं को प्रेस तक पहुंचाने के लिए उन्हें किसी सेवानिवृत्त पत्रकार या सरकारी अधिकारी को रखने की जरूरत पड़ जाए। आखिर बिल्ली के गले में घंटी बांधने के लिए किसी पत्रकार की जरूरत तो पड़ेगी ही। कहना न होगा कि सरकार ने जिस रणनीति के तहत अपने फ्लैगशिप योजनाओं को जन-जन तक पहुंचाने की योजना बनाई है वह किसी नेता के जलसे का प्रचार-प्रसार तक सिमटकर न रह जाए, इसकी संभावना ज्यादा है। जिन पीआर एजेंसियों को सरकारी योजनाओं को गांवों तक पहुंचाने का ठेका मिला है या मिलेगा वे बहुभाषी मल्टीमीडिया प्रचार-प्रसार में दक्ष नहीं हैं और उनके पास विशेषज्ञता का भी अभाव है।
यही नहीं देश की जो सांस्कृतिक और भाषाई विविधता है, उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि ग्रामीण, आदिवासी, पहाड़ी क्षेत्रों में प्रचार अभियान फिसड्डी साबित होगा। हमारे यहां तीन किलोमीटर पर भाषा और बोली बदल जाती है। पिछड़े और मुफस्सिल इलाकों में बहुभाषी बारीकियों, विविध सांस्कृतिक स्थितियों में प्रचार की आवश्यकताएं बदलती हैं। हर क्षेत्र में लोगों की संवेदनशीलता की पहचान का अभाव और प्रचलित बोलियों में संवादहीनता की वजह से निजी प्रचार कंपनियों के लिए यह कार्य जटिल और कठिन है। विभिन्न क्षेत्रों के लिए वैविध्य सामग्री तैयार करना निश्चित रूप से, एक मुश्किल काम है। इन प्रबंधन संगठनों के लिए इतना आसान नहीं हो सकता जैसे कि एक कप चाय हो।
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत 49 करोड़ रुपये की राशि विभिन्न मंत्रालयों के लिए आवंटित की गयी है। यह राशि इवेंट कंपनियों के माध्यम से देश की योजनाओं की प्रचार का साधन बनेगी। जिसमें ग्रामीण विकास मंत्रालय, कृषि, स्वास्थ्य, शहरी विकास, शहरी गरीबी उन्मूलन, आवास आदि मंत्रालय शामिल है। विवाह-शादी समारोह का प्रबंधन करने वाली इवेंट कंपनियां देश की नब्ज तो दूर उसकी शक्ल भी नहीं पहचान सकती। ऐसे में 49 करोड़ की राशि पानी में ही बहेगा।
इन सभी मंत्रालयों के कार्यक्रमों का प्रचार-प्रसार पीआईबी के माध्यम से ही पूरे देश में किया जा सकता है। अल्पज्ञानी और अयोग्य कर्मियों से भरा पीआईबी अपने कर्तव्य से कितना मुंह चुरा सकता है इसकी मिसाल है वर्तमान प्रिंसिपल डायरेक्टर जेनरल की कार्य प्रणाली। उसने ऐसे अधिकारियों-कर्मचारियों को फ्लैगशिप योजना की पब्लिसिटी के लिए बहाल कर रखा है जिसे दिल्ली की बोली और भाषाओं का भी पूरा ज्ञान नहीं होगा देश की वैविध्य बोली और भाषा की बात तो दीगर है। इसका दुष्प्रभाव यह है कि यह योजना प्रचार से ज्यादा फाइलें बढ़ाने और कागजी कार्यवाही के खेल में उलझ कर रह गयी है। इस निर्णय में पक्षपात की भी बू आ रही है।
इतने बड़े तामझाम के बाद भी प्रचार-प्रसार में खामियों को देखते हुए यूपीए सरकार की आंखें नहीं खुल रही है तो इसे सरकारी असंवेदनशीलता नहीं तो और क्या कहा जाएगा? यदि अब भी सरकार जागती है और अपने विकास कार्यक्रमों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए युद्धस्तरीय अभियान चलाती है तो इसका प्रतिफल अच्छा ही होगा। भारत जैसे विविधतापूर्ण और कम साक्षर देश के लिए प्रचार माध्यम संगीत-नाटक आधारित होना चाहिए जिसमें बहुभाषी पुट हो। दीवार पर प्रचार जिसमें फोटो और अक्षर से प्रचार किया जाता है, को प्रमुखता से अपनाना होगा। यह प्रयोग चीन में खूब सफल हुआ था। 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान भारतीय नेफा क्षेत्र से एक सेवानिवृत्त पीआईबी आफिसर जीएस मिश्रा ने इस वाल पेपर की एक नमूना कॉपी लाए थे । भारत सरकार ने इस प्रस्ताव कोे कूड़ेदान में डाल दिया। इस वाल पेपर योजना को नाकारखाने में डालने में तत्कालीन प्रधान सूचना अधिकारी के साथ ही तत्कालीन सूचना एंव प्रसारण मंत्रालय का एक अकर्मण्य सचिव का पूरा हाथ रहा। अपनी खुन्नस निकालने के लिए इन अधिकारियों ने महत्वपूर्ण योजना को भी कूड़ेदान में डालने में सफल रहे।
सरकार के पास वालपेपर के अलावा अपना संचार नेटवर्क ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन भी है। लेकिन सरकारी लालफीताशाही के चक्कर में सरकारी योजनाओं की प्रस्तुति घटिया और अनाकर्षक की जाती है। बहुभाषी प्रचार-प्रसार के क्षेत्र में पीआईबी ने एक अच्छी पहल की थी जिसमें पीआईबी के प्रधान सूचना अधिकारी क्षेत्रीय अधिकारियों से वार्ता करके नई योजना को अमल में लाने की योजनाएं बनाते थे। यह 1970 के दशक की बात है। उसके बाद यह कार्यक्रम भी बंद कर दिया गया। अब तक भारत सरकार निजी विज्ञापन एजेंसियों से फ्लैगशिप योजनाओं के प्रचार का विज्ञापन बनवाती है। वर्तमान में यह कार्य पंचायती राज संस्थाओं को सौंपा जा सकता है। इसका प्रभाव दूर-दूर तक जाएगा क्योंकि पंचायती राज संस्थाएं अपनी बोली में विज्ञापन कराएंगी या दीवार पर प्रचार-प्रसार की नई विधि अपनाएंगी। आज एफएम और कम्युनिटी रेडियो की महत्ता को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि यदि सरकार इसके माध्यम से जन-जन तक पहुंचना चाहे तो बहुत आसानी से अपनी सभी योजनाओं को लोगों तक पहुंचा सकती है।
सरकार के लिए निजी पीआर कंपनियां कितना कारगर साबित होंगी कहना मुश्किल है, क्योंकि उनके पास किसी प्रकार विशेषज्ञता ही नहीं है। सरकारी धन को लुटाने के लिए भले ही यह योजना सफल हो जाए लेकिन वाल पेपर से लेकर एफएम , कम्युनिटी रेडिया के माध्यम से आम जनता तक जितनी पहुंच कायम की जा सकती है वह किसी भी इवेंट मैनेजमेंट कंपनी के लिए कठिन ही नहीं असंभव है। सरकार एक बार फिर दोबारा सोच सकती है क्योंकि पैसा झोंककर भी यदि फायदा नहीं हुआ तो पीआईबी के अधिकारियों के लिए कोई अफसोस की बात नहीं होगी।
भारत: सरकारी योजनाओं का प्रचार-प्रसार
पीआईबी ने बनाई अजीबोगरीब रणनीति, घातक हो सकता है प्रभाव
एम. वाई. सिद्दीकी - 2010-08-28 11:43
देश की भाषा और बोली में अपनी बात कहने की बजाय अंग्रेजी में अपना प्रचार कराना भारत सरकार को कितनी सफलता दिलाएगा यह तो वक्त ही बताएगा लेकिन अपने परंपरागत स्रोतों को दरकिनार करते हुए निजी क्षेत्र की इवेंट कंपनियों को सरकारी योजनाओं को जन-जन तक पहुंचाने का ठेका, या तो बजट निपटाने का आधार बनेगा या फिर सरकार की विफलता का स्क्रिप्ट लिखेगा।