पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा भी कि यदि वे प्रदेश विधानसभा घेरने का कार्यक्रम करें तो कांग्रेस उसमें पूरी ताकत से साथ देगी। और सपा अजीत सिंह के रालोद के साथ केवल राजनीतिक कारणों से नहीं जा सकती थी। कहने का तात्पर्य यह कि सभी पार्टियां स्वयं को किसानों की हितैशी एवं उनके संघर्ष का साथी साबित कर रही हैं। पूरा परिदृश्य ऐसा बन रहा है मानो केवल प्रदेश की बसपा सरकार ही किसान विरोधी है, उनकी जमीनें जबरन लेना चाहती है और शेष पार्टियांे की तो प्राथमिकता ही किसान एवं उनकी कृषि योग्य जमीनों की रक्षा है। वैसे बसपा सरकार ने भी मुआवजा राशि बढ़ाने के साथ किसानों को कहा है कि वे चाहे तो अपनी जमीनें न दें।

कांग्रेस ने तो सभी पार्टियों से मानो बाजी मारने का निश्चय किया। पार्टी के भावी शिखर नेता एवं वर्तमान महासचिव राहुल गांधी तक अलीगढ़ धरना स्थल पर गए, पुलिस गोली में मारे गए किसानों के परिवारों से मिले। वहां से लौटने के बाद राहुल ने संसद के अधिवेशन के बीच संसद भवन में प्रदेश नेताओं के साथ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात की एवं कहा कि किसानों के साथ अन्याय हुआ है। उसके बाद समाचार यह फैला कि राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री से वहां के किसानों का साथ देने तथा भविष्य को ध्यान में रखते हुए शीघ्र भूमि अधिग्रहण संबंधी एक समग्र कानून बनाने का अनुरोध किया। और सरकार में दूसरे नंबर के नेता वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने तो घोषणा ही कर दी है कि संसद के अगले सत्र में भूमि अधिग्रहण संबंधी विधेयक लाया जाएगा। कांग्रेस के नेता लगातार यह संदेश दे रहे है कि भूमि अधिग्रहण विधेयक पर तेजी से काम चल रहा है एवं इसके लिए उनकी ही हरियाणा सरकार के कानून को मॉडल के रुप में सामने रखा गया है। राहुल की चहलकदमी यहीं तक नहीं रुकी है। उड़ीसा के नियमागिरि के जगन्नाथपुर गांव में एक रैली करके उन्होंने वहां के आदिवासियांे को विजय की बधाई दी एवं स्वयं को उनके संघर्ष का सिपाही बताया। राहुल की रैली वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा नियमागिरि में वेदांता समूह की खनन परियोजना को रद्द करने के दो दिनों बाद आयोजित की गई। पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इस कंपनी की बॉक्साइट खनन परियोजना को हरि झंडी न देने का कारण बताते हुए कहा कि इसने पर्यावरण नियमों का घनघोर उल्लंघन किया है। इसके ठीक दो दिनों पूर्व जयराम रमेश ने ही गंगा के उद्गम स्थल गंगोत्री से उत्तरकाशी तक के क्षेत्र को पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील घोषित कर वहां लोहारी नागपाला जल विद्युत परियोजना रद्द करने की घोषणा की।

इन सबको एक साथ मिलाकर देखिए। कैसी तस्वीर नजर आ रही है? ऐसा लगता है मानो भारत के सभी प्रमुख राजनीतिक दलों को अब यह अहसास हो गया है कि बाजार पूंजीवादी आर्थिक मॉडल में उद्योगांे एवं कारोबार को प्रमुखता देने के कारण सदियांे से संरक्षित प्राकृतिक धरोहर नष्ट हो रहे हैं, कृषि योग्य भूमि इनकी बलि चढ़ रही हैं और इन कारणों से स्थानीय निवासियों, किसानों एवं खेती तथा प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर लोग एकाएक बेसहारा, बेकार हो रहे हैं। इस प्रकार के ईमानदार अहसास के बाद नीतिगत बदलाव स्वाभाविक है। यदि हम लोहारी नागपाला, किसानों के संघर्ष एवं वेदांता प्रस्ताव खारिज करने के निर्णयों को आधार बनाएं तो तात्कालिक निष्कर्ष यह आएगा कि वाकई रजनीतिक दल एवं सरकार अपनी नीतियां बदलने की ओर अग्रसर हो चुकीं हैं। तो क्या वाकई ऐसा ही है? कतई नहीं। आप जरा नजर उठा लीजिए, देश की प्रत्येक सरकारों की प्राथमिकता अधिक से अधिक उद्योग एवं कारोबारी संरचना को प्रोत्साहित करने की ही है। स्वयं कांग्रेस की प्रदेश सरकारें क्या कर रहीं हैं? क्या आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा.....सभी राज्यों में वही नीतियां नहीं हैं? क्या इन सब प्रदेशों में कोई न कोई अंदोलन नहीं चल रहा है? भाजपा की गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल, कर्नाटक सरकारें क्या कर रहीं हैं? सब ओर तथाकथित विकास के नाम पर एक ही तस्वीर है। खेती की जमीनें, पहाड़, जंगल, नदियां, इस तथाकथित विकास की भेंट चढ़ रहे हैं और सरकारें इसे उचित ठहरा रहीं हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तो इस अर्थनीति के प्रणेता हैं और उन्होेंने इसके प्रति अपनी निष्ठा में किंचित भी कमी का संकेत नहीं दिया है।

तो राजनीतिक दलों का रवैया निस्संदेह पाखंडपूर्ण दिखाई देता है। भारतीय राजनीति और पाखंड का रिश्ता कोई नई परिघटना नहीं है कि किसी को इसमें आश्चर्य का पहलू नजर आए। इस देश की दुर्दशा का सर्वप्रमुख कारण राजनीतिक दलों का पाखंडी चरित्र ही है। किंतु इस समय मामला ऐसे पाखंड से आगे का है। पाखंड अंदर और बाहर में अंतर का पर्याय है। आर्थिक नीतियांे को लेकर ऐसा नहीं है। सच यह है कि राजनीतिक दलों और इनके नेताओं को स्वयं पता नहीं कि क्या होना चाहिए। ये जानते ही नहीं कि कौन सी दिशा भारत के लिए उपयुक्त होगी और कौन सी अनुपयुक्त। नेता जिस विकास की बात करते हैं उसमें उद्योगों, कारोबारों की लहलहाट, कारखानों और बाजारों की बहुलता, बिजली उत्पादन की परियोजनाएं, अच्छी चमचमाती सड़कें, बड़ी सिंचाई परियोजनाएं, .. ही प्राथमिकता में आतीं हैं। आप किसी भी पार्टी के नेता से बात कर लीजिए, सबके विकास की कल्पना एक ही होगी। हां, कुछ कृषि, परंपरागत पेशे, कलाओं आदि के संरक्षण की बात करते हैं, पर केवल इसी पर निर्भरता के पक्षधर वे भी नहीं हैं। वे भी आधुनिक उद्योग एवं कारोबार के साथ इसे संतुलित करने की बात करते हैं।

वास्तव में भारतीय राजनीति आज ऐसे खतरनाक मोड़ पर आकर खड़ी है जहां आर्थिक दिशा के संदर्भ में मुख्यधारा के नेताओं को यह पता ही नहीं कि क्या होना चाहिए। वेदांता खनन परियोजना, या लोहारी नागपाला परियोजना आदि को रद्द करने का कदम बिल्कुल उचित एवं अंतिम रुप से भारत के हित में है, पृथ्वी के हित में है और यह सम्पूर्ण वायुमंडल एवं जीव जगत के हित में है। लेकिन इसका वास्तविक फलितार्थ तभी संभव है जब आर्थिक नीति का यह स्वाभाविक भाग हो जाए। यानी आर्थिक नीति ऐसी हो, जिसमेें ऐसी परियोजनाआंे के लिए कोई स्थान न रहे, जिसमें प्राकृतिक संसाधनांे के नष्ट करने की संभावना बिल्कुल निःशेष हो, जिसमें विकास की नीतियां और योजनाएं स्थानीय जनता की सामूहिक इच्छा और वहां उपस्थित संसाधनों के अनुसार बनें, जिसमें किसी किसान या वनवासी को बगैर उसकी इच्छा के उसकी जमीन से वंिचत न किया जा सके, जिसमें अपनी मांग के लिए किसी भी किसान, आदिवासी, या आम नागरिक को दिल्ली दरबार से गुहार की आवश्यकता न रहे...। आज तो ठीक उल्टी स्थिति है। आर्थिक विकास के नाम पर सभी पार्टियां जहां भी वे शासन में हैं, कदम तो इनके विपरीत उठातीं हैं, पर तत्काल लोकप्रियता के लिए आर्थिक नीतियों के विरुद्ध उभरे असंतोष या प्रस्फुटित संघर्ष के समर्थन में आगे आ जातीं हैं। (संवाद)