अगर उनके खर्चे बढ़ रहे हैं, सुविधाएं बढ़ रही है तो जिस जनता की संपत्ति से वह अपना सुरसा मुख भरना चाह रहे हैं वह क्यों गरीबी के दलदल में दिन प्रतिदिन ज्यादा धंस रही है। मूलभूत अधिकारों, मानवीय जरूरतों भर की पूर्ति से भी जो वंचित है, उसका धन किस अधिकार से अपने ‘‘सुख सुविधाओं’’ पर बेहपाई की हद पार कर भी खर्च किया जा रहा है जिसका धन है उसे न्यूनतम मानवीय जरूरत भर की भी पूर्ति की व्यवस्था न मिले और उसके प्रतिनिधि खुद ही सुख सुविधाओं पर बढ़ा चढ़ाकर खर्च पर आमादा हो जाएं तो धिक्कार है।
जनता को समझ लेना चाहिए कि चुनाव के वक्त हाथ जोड़कर द्वार पर वोट मांगने आने वाला व्यक्ति उसके प्रतिनिधि नहीं निधिहंता भर है। जिसे देश की जनता का कार्यभार सौंपा जाता है वह व्यक्तिगत भार के वहन पर उस जनता का धन खर्च करता है।
देश की आजादी का नींव डालने वाले नेता से महात्मा की पदवी हासिल करने वाले गांधी जी ने अपने चेलों को निर्देश दिया था कि समाज के अंतिम पायदान पर खड़े आदमी को देखो, चाहे कोई भी योजना बनानी हो, निर्णय लेना हो और उन चेलांे ने गुरू बनकर सबसे ऊपरी पायदान पर खड़े लोगों को देखना ही नहीं शुरू किया उनका हर तरह से ख्याल रखना और अब अपनी तुलना भी शुरू कर दी है। साफ मतलब है कि यह कथित जनप्रतिनिधि येन केन प्रकारेण धन अर्जित कर धनाढ्य वर्ग के समकक्ष पहुंच चुका है और उन्ही से अपनी तुलना कर खुद को उनका प्रतिनिधि घोषित कर दिया है।
महान समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया की चेतावनी उस जमाने में नजरअंदाज करना भी इसकी एक मिसाल है। उन्होंने कहा था कि जिस देश का आम आदमी तीन आना रोज (उस जमाने 60 के दशक में ) पर गुजर करता हो उस देश के प्रधानमंत्री खुद पर 25,000 रुपए प्रतिदिन खर्च करें, इसका क्या औचित्य है। इस पर जबरदस्त लहर उठी भी लोग उद्वेलित हो उठे थे। आज उनके चेले ताल ठोंक ठांेक कर वेतन बढ़वाने की दलीलें पेश कर रहे हैं।
देश को अगर परिवार मान लें तो ऐसे राजनीतिक बापों से परिवार के सदस्य क्या उम्मीद करें जो मक्खन मलाई उड़ाने में लगे हैं और घर में बच्चे भूख-प्यासे नंगे घूम रहे हैं। शर्म भी नहीं आती ये खाए अघाए नेता उसी नंगी भूखी जनता की चाय, पानी और देखने जाने के नाम पर होने वाले खर्च बढ़ जाने की दलीलें भी वेतन बढ़ाए जाने के नाम पर पेश कर रहे हैंं।
जनता के नाम पर बनाई जाने वाली योजनाओं का हश्र तो रोज अखबारों में छपते कारमानों से जनता के सामने आता ही रहता है। खुद देश के कर्ताधर्ता प्रधानमंत्री पद पर बैठे लोग एक के बाद एक स्वीकार कर चुके हैं कि योजनाओं पर खर्च हो रही राशि का 15 या 10 प्रतिशत हिस्सा ही जनता तक पहुंच पाता है। बीच का धन यानि 85 या 90 प्रतिशत राशि किन लोगों के बीच बंटती है। इस पर संज्ञा या नाम देने लेने की जरूरत नहीं है।
अब तो यह भी स्पष्ट है कि उन्हीं योजनाओं पर सरकारी मंत्रालय और विभाग काम कर रहे हैं जिसके सहारे आसानी से जनता का धन निकाल कर वारा-न्यारा किया जा सके। अधिकारी योजना तैयार करते हैं, नेता योजना के फायदे गिना जनता को भरमाते हैं और ठेकेदार या कारपोरेट सेक्टर के जरिए योजना लागू करने के नाम पर धन निकासी कर बंदरबांट हो जाती है। बड़े बड़े घपले घोटालों की संख्या और आकार दोनों में वृद्धि हो रही है, ताकि बाद के जांच पड़ताल अधिकारियों को भी समेटा जा सके। थोड़े बहुत ईमानदार देशभक्त अधिकारी या नेता है तो उन्हें कोने कचरे में सीमित कर दिया जाता है।
सरेआम सत्ताधारी दल ऐसे विभागाध्यक्ष बदल डालता है, जो उसके खिलाफ हों, किसी जगह शीर्ष पर अकेला बैठा आदमी मुसीबत करे तो शीर्ष पर तीन को बैठा कर संतुलन कायम किया जाता है। घोटाला उजागर करने वाले सबके सामने मार दिए जाते हैं। हर विभाग में रिश्वतखोरी चरम पर है और जनता की आंख में सरकार बड़े बड़े विज्ञापन देकर धूल झोंकती है वह भी दरअसल मीडिया का मुंह भरने का प्रयास भर होता है।
कहां जाए आम आदमी, कोई उसके बराबर खड़ा होना नहीं चाहता है। समकक्ष मानना तो दूर पैरों तले रौंदना चाहता है। फिर भला उसके बराबर आय, सोचने भर से बेहोशी छा जाएगी इन नेताआंे पर। इतना पैसा तो उनके नौकर के नौकर भी गिनना तक जरूरी नहीं समझते हैं अरे भाई 20 रुपए की एक चाय भी शहर के अच्छे रेस्तरां में नहीं मिलेगी फिर 20 रुपए में पूरा दिन गुजारना यह तो जनता के बस की ही बात है।
जबकि इन्हीं नेताओं और अधिकारियों का सारा तामझाम जनता के पैसे पर ही टिका है। जनता के पैसे का जनता के हित में सही इस्तेमाल हुआ होता तो आज यह दिन ही क्यों देखना पड़ता? भिखारियों का देश तो यह नही बनता! लोग सक्षम होते तो शायद ज्यादा धन भी सरकारी कोष मे होता। कम से कम इतना बड़ा अंतर जनता और समर्थ वर्ग में नहीं होता।
अंतर समझना है तो चुनाव आयोग में दाखिल सांसदों की संपत्ति का ब्यौरा ही देख डालिए। अरे छोड़िए, इन चमकते दमकते सांसदों को ध्यान से देखिए। राजनीति में पद हासिल करने के बाद से बहुगुणित यानी दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती इनकी संपत्ति का आकलन कीजिए। आम जनता गश खाकर गिर पड़ेगी। उसकी कल्पना के पंख झड़ जाएंगे तो भी वह उस धन का आंकलन नहीं कर पाएगा।
अब सोचिए, ध्यान से सोचिए, दिल पर हाथ रखकर बोलिए क्या इनको वेतन वृद्धि की जरूरत है!
भारत
आम जनता 20 पर उसके प्रतिनिधि 20 हजार पर काट रहे हैं दिन
कुमार अमिताभ - 2010-08-30 13:24
जिस देश की दो तिहाई से भी ज्यादा आबादी मात्र 20 रुपए प्रतिदिन पर गुजारा करती हो, लगभग आधी जनता गरीबी के चपेट में हो, वहीं के सांसद यानि जनप्रतिनिधि, नौकरशाहों और व्यावसायिक पदों की तुलना में वेतन बढ़वा लें तो वह किस वर्ग के प्रतिनिधि कहलाएंगे यह उन्हें स्पष्ट कर देना चाहिए। कम से कम जन के प्रतिनिधि वह कतई नहीं हो सकते हैं।