लोगों को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराया जाए, इस बात को लेकर तो सभी लोगों में एकता है। पर इसके वावजूद अनेक किस्म के अगर और मगर भी इसमें शामिल हैं। परिषद और सरकार के बीच इसे लेकर टकराव है। सोनिया के नेतृत्व वाली परिषद को भले ही कुछ लोग सुपर सरकार कहते हों, लेकिन इस मसले पर केन्द्र की मनमोहन सरकार उसकी नहीं सुन रही है। दोनों के बीच कीमतों के निर्धारण को लेकर मतभेद है। खाद्य सुरक्षा के काल में गरीबी रेखा से नीचे और ऊपर के लोगों के लिए अनाज की कीमत एक हो या अलग अलग इस पर दो मत हैं और यदि दोनों के मूल्य अलग अलग हों, तो वे क्या हों, इस पर भी मतभेद है। एक मत के अनुसार गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों को 3 रुपए प्रति किलो की दर से अनाज दिया जाए और गरीबी रेखा से ऊपर के लोगों को समर्थन मूल्य के बराबर की दर से अनाज दी जाए।

इस विधेयक के तहत प्रति परिवार को 35 किलो प्रति महीने अनाज दिया जाए या 25 किलो, इस पर भी एक राय नहीं बन पा रही है। यदि खाद्य सुरक्षा के दायरे में देश के सभी लोगों को लाया जाता है, तो सरकारी खजाने पर प्रत्येक साल 90 हजार करोड़ रुपए का बोझ पड़ेगा, जो नरेगा के कारण सरकारी खजाने पर पड़ रहे बोझ से दोगुना है। लगता है कि सोनिया गांधी सरकार पर बहुत ज्यादा दबाव नहीं डालना चाहती, इसलिए वह चाहती है कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद को खाद्य मंत्रालय से इस मसले पर गहन विचाार मंथन करना चाहिए। वह चाहती है कि विधेयक तैयार करते समय राजकोषीय घाटा पर भी विचार होना चाहिए और इसके कारण खर्च कितना आएगा, इस पर भी विचार किया जाना चाहिए।

कांग्रेस और एनसीपी के बीच की राजनैतिक प्रतिद्वंद्वता भी इस विधेयक के आड़े हाथों आ रही है। कांग्रेस चाहती है कि इस लोकप्रियतावादी कदम का पूरा राजनैतिक लाभ वही उठाए, जबकि केन्द्र में खाद्य मंत्री एनसीपी के शरद पवार हैं। विधेयक को संसद में वही पेश करेंगे और उसका श्रेय ख्ुाद ही लेना चाहेंगे। एक अन्य समस्या उन लोगों की पहचान करने की है, जिन्हें इसका लाभ पहुंचाया जाना है।

भारत में गरीबी के अलग अलग आंकड़े है। खुद केन्द्र सरकार के पास ही गरीबी के एक से ज्यादा आंकड़े हैं। इसका योजना आयोग एक आंकड़ा तैयार करता है और सरकार उसके अनूसार ही अपनी नीतियां तैयार और क्रियान्वित करती हैं। लेकिन सक्सेना कमिटी, तेंदुलकर कमिटी और अर्जुन सेनगुप्ता कमिटी द्वारा तैयार किए गए आंकड़े कुछ और हैं। ये सभी कमिटियां खुद केन्द्र सरकार की बनाई हुई हैं, इसलिए वह उन्हें पेरी तरह नकार भ्ज्ञी नहीं सकती। अब सवाल उठता है कि खाद्य सुरक्षा विधेयक में किस आंकड़े को तरजीह दी जाए।

इस मसले पर राजनीति तो विपक्षी पार्टियां भी करेंगी। खाद्य सुरक्षा गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों को ही दी जाए या सबको इस मसले पर राजनीति की बहुत गुंजायश है। वाम दल तो कहेंगे कि खाद्य सुरक्षा के दायरे में सबको रखा जाय। भारतीय जनता पार्टी इस पर राजनीति करने से बाज नहीं आएगी। राजकोष को घ्यान में रखते हुए यदि सरकार ने सिर्फ गरीबी रेखा से नीचे के लोगों के लिए यह विधेयक तैयार किया, तो भाजपा कहेगी कि इसके दायरे मे सबको लाया जाय। यदि यह कहते हुए भाजपा ने इसका विरोध जारी रखा, तो राज्यसभा से इसे पारित कराना भी कठिन हो जाएगा, क्योंकि सपा, बसपा और राजद तो सबको शामिल करने के लिए हंगामा करेंगे ही।

विपक्षी राजनीति से चुनौती तो सरकार को बाद में मिलेगी, पहले तो उसे राष्ट्रीय सलाहकार परिषद से अपना तालमेल बैठाकर विधेयक पर उसके साथ सहमति बनानी होगी। (संवाद)