पिछले दो दशकों से बिहार में कांग्रेस की स्थिति दयनीय बनी हुई है। पिछली बार 1985 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने बहुमत पाकर अपनी सरकार बनाई थी। उसके बाद कांग्रेस कभी भी बिहार में सत्ता का नेतृत्व नहीं कर सकी, हालांकि उसके बाद भी राबड़ी सरकार में कांग्रेस एक जूनियर पार्टनर के रूप अनेक साल तक शिरकत कर चुकी है। पर राबड़ी सरकार में कांग्रेस का होना उसकी पतन की निशानी थी और उसके कारण भी बिहार की राजनीति में कांग्रेस लगातार हाशिए की ओर बढ़ती रही।

इस बार कांग्रेस ने बिहार विधानसभा की सभी सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया है। इसके पहले के कुड चुनाव कांग्रेस लालू यादव की पार्टी के साथ तालमेल करके लडती रही है। अब वह सभी सीटों पर अपने बूते ही चुनाव लड़ रही है। लालू और उनकी पार्टी से किसी तरह उसका संबंध लोगों को नहीं दिखाई दे, इसलिए झारखंड में कांग्रेस वहां अपने नेतृत्व में सरकार नहीं बना रही है, क्योंकि यदि वह चाहे तो शिबू सोरेन और भाजपा के विधायकों को अलग थलग रखते हुए भी वहां अपने नेतृत्व में सरकार बना सकती है, लेकिन इसके लिए उसे वहंां लालू यादव के दल के 5 विधायकों की सहायता लेनी होगी और उसके कारण वह बिहार के लोगों का लालू के साथ सत्ता की साझीदारी करती दिखाई देगी। और कांग्रेस नहीं चाहती कि लालू विरोधी बिहारी मतदाता उसके कारण उससे दूर भागे।

यानी कांग्रेस ने इस बार विधानसभा के चुनाव में लालू से दूरी बना ली है। राहुल गांधी का चुनावी अभियान की पृष्ठभूमि यही है। पर सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस लालू विरोधी ऊंची जातियों को इस बार अपनी ओर करने मे सफल हो पाएगी? कांग्रेस लालू विरोधी ऊंची जातियों को ही नहीलं, बल्कि लालू समर्थक मुसलमानों को भी अपनी ओर खींचना चाहती है। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद बिहार के मुसलमानों ने कांग्रेस का साथ छोड़ ही दिया था, लेकिन पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान कुछ लोकसभा क्षेत्रों मे मुसलमानों का समर्थन हासिल करने में कांग्रेस सफल रही थी। यही कारण है कि कांग्रेस को लगता है कि मुसलमान इस बार विधानसभा चुनाव में उनकी ओर और भी ज्यादा संख्या में मुखातिब होेगे।

बिहार की अगड़ी जातियों के लोगों की संख्या पूरी आबादी का करीब 10 से 12 फीसदी है। वे कांग्रेस के परंपरागत समर्थक रहे हैं। मुसलमानों, दलितों और गैरकृषक पिछड़ी जातियों के समर्थन से कांग्रेस बिहार में सफलता का स्वाद चखा करती थी। कृषक पिछड़ा वर्ग कांग्रेस के खिलाफ हुआ करता था। पर कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में बिहार में चले पिछड़े आंदोलन के कारण गैरकृषक पिछड़ा वर्ग भी कांग्रेस का विराधी हो गया। बाबू जगजीवन राम के कांग्रेस छोड़ देने के बाद दलितों ने भी कांग्रेस छोड़ना शुरू कर दिया। बाबरी मस्जिद पर कांग्रेस की राजनीति के कारण मुसलमान भी उससे नाराज हो गए। जाहिर है 10 या 12 फीसदी की आबादी वाली अगड़ी जातियां कांग्रेस को जीत दिलाने मे सक्षम नहीं थी। इसके कारण कांग्रेस का पतन होता चला गया। बाद में जब कांग्रेस ने राबड़ी सरकार में मंत्री पद पाना शुरू किया तो अगड़े भी उसके खिलाफ हो गए। इसका फायदा पिछले दो चुनावों में जनता दल(यू) और भाजपा को हुआ। अगड़े उनके साथ चले गए।

लेकिन नीतीश कुमार के 5 साल के शासन के दौरान अगड़ों का एक बड़ा वर्ग राजद के खिलाफ हो गया है। उसे लगता है कि लालू को सत्ता से हटाने की उनकी महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद नीतीश सरकार में उन्हें अचित महत्व नहीं मिल रहा। इसलिए वे एक बार फिर कांग्रेस की ओर झुक रहे हैं। उनका वह झुकाव लोकसभा के चुनावों में भी देखने को मिला था। मुसलमानों की तरह अगड़ी जातियों के लोगों ने भी कुछ सीटों पर कांग्रेस को वोट डाले थे। कांग्रेस को उस चुनाव में सीटें तो सिर्फ दो ही मिली थीं, लेकिन उसका मत प्रतिशत बढ़ गया था। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने मतप्रतिशत के साथ अपनी लोकसभा सीटों की संख्या भी काफी बढ़ा ली थी। बिहार की राजनीति उत्तर प्रदेश की राजनीति से ज्यादा अलग नहीं है, इसलिए कांग्रेस को लगता है कि वह वहां भी उत्तर प्रदेश की तरह सफल हो सकती है।

राज्य की अगड़ी जातियों के मतों पर लालू की भी नजर है। राजपूत नेताओं को अपनी तरफ करने मं उन्हें सफलता भी मिली है। नीतीश के कथित भूमि सुधार का हौव्वा खड़ाकर वह उनका ज्यादा से ज्यादा समर्थन हासिल करना चाहते हैं। लालू को पता है कि गैर यादव पिछड़े वर्गों के बीच उनकी विश्वसनीयता और लोकप्रियता समाप्त हो चुकी है। वे उन्हें पिछड़े वर्गो ंका नेता नहीं, बल्कि सिर्फ यादवों का नेता मानते हैं। इसलिए लालू यादव अब अगड़ों को अपनी ओर करने में लगे हुए है। इन्हीं प्रयासों के तहत उन्होंने पिछले दिनों कह दिया कि अब कोई अगड़ा बिहार का मुख्यमंत्री बन ही नहीं सकता। दरअसल, लालू यादव अगड़ों को यह बताना चाहते थे कि यदि उन्हें नीतीश और उनके (लालू) के बीच किसी एक को चुनना है तो वे उन्हें ही चुनें, क्योंकि किसी अगड़े को तो मुख्यमंत्री बनना नहीं है। पर लालू की बातों को मीडिया ने कुछ इस तरह पेश कर दिया, जिससे लगा कि लालू ने राज्य में अगड़ों की सत्ता ही खत्म कर डाली। बहरहाल, उस बयान के कारण लालू के प्रति अगड़ी जाति के लोगों में गुस्सा जरूर आया है, लेकिन राजद सुप्रीमो अभी भी अगड़ी जातियों के एक वर्ग को अपनी ओर खींचने में सफल होते दिखाई दे रहे है।

मुसलमानों पर लालू की पकड़ ढीली होती जा रही है। दरअसल मुसलमानों में एक प्रवृति सत्ता की ओर झुकने की होती है। जो सत्ता से बाहर होता है, मुसलमान उसके साथ दिखाई पड़ने में झिझकते हैं। केन्द्र में कांग्रेस सत्ता में है। इसके कारण कांग्रेस मुसलमानों का समर्थन हासिल करने मे सफल हो सकती है। इसी आकलन को ध्यान में रखतें हुए कांग्रेस ने बिहार प्रदेश का अध्यक्ष एक मुसलमान को बना दिया है।

कांग्रेस की समस्या यह है कि केन्द्र की उसकी सरकार की लोकप्रियता का ग्राफ गिरता जा रहा है। महंगाई के कारण लोगों में उसके प्रति गुस्सा पैदा हो रहा है। केन्द्र सरकार के खिलाफ महंगाई के मसले पर दो बार बिहार में बंद के आयोजन हो चुके हैं। लोकसभा के सत्र के दौरान विपक्ष कांग्रेस पर भारी पड़ जाता है। राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रष्टाचार का मसला हो अथवा कश्मीर का मसला, कांग्रेस एक पार्टी के रूप में अपनी तस्वीर धंुधली करती दिखाई दे रही है। बिहार विधानसभा के चुनाव में इसका भी असर पड़ेगा और इसके कारण कांग्रेस अगड़ी जातियों और मुसलमानों का समर्थन हासिल करने में भी एड़ी चोटी का पसीना एक करना पड़ेगा। लोकप्रियता के गिरते राष्ट्रव्यापी ग्राफ के बीच बिहार में अपनी चुनावी सफलता हासिल करना कांग्रेस के लिए गेहद ही कठिन होगा। (संवाद)