अचरज की बात यह भी है कि आखिर प्रधानमंत्री ने अपने इस सख्त रुख के लिए इसी समय को क्यों चुना? आखिर इस तरह से प्रधानमंत्री के भड़कने के पीछे का कारण क्या है? उनके खिलाफ पिछले कई सप्ताह से आवाज उठ रही है। उनकी सरकार को सभी मोर्चे पर विफल माना जा रहा है। वे मीडिया से खुद बातचीत बहुत कम करते हैं। लगता है इसीलिए उन्होंने संपादकों के सम्मेलन को अपने कड़े रुख का इजहार करने के लिए चुना।
प्रधानमंत्री के दृष्टिकोण से भी देखें तो उनका दूसरा कार्यकाल सही नहीं चल रहा है। पिछले कई महीनों से उनके और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के बीच मतभेद की खबरों की चर्चा मीडिया में हो रही है। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का फिर से गठन किया जाना इसी मतभेद का नतीजा माना जा रहा है। परिषद और सरकार के बीच खाद्य सुरक्षा विधेयक और सांप्रदायिक हिंसा विधेयक को लेकर भी काफी मतभेद है।
लोगांे को आश्चर्य तो उस समय भी हुआ था, जब शिक्षा के अधिकार कानून को पास कराते समय उन्होंने संसद में दिए गए भाषण में सोनिया गांधी का जिक्र नहीं किया था। जब महिला आरक्षण विधेयक राज्य सभा मे पास किया जा रहा था, तो उस समय भी प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में सोनिया गांधी का जिक्र नहीं किया था, जबकि उन्होंने अपनी पार्टी की जयंती नटराजन का जिक्र जरूर किया था। गौरतलग है कि सोनिया गांधी की प्रतिबद्धता के बिना महिला आरखण विधेयक को राज्य सभा से पास कराया ही नहीं जा सकता था। 15 अगस्त को लाल किला से बोलते हुए भी प्रधानमंत्री ने एक बार भी सोनिया गांधी का नाम नहीं लिया।
मनमोहन सिंह की सरकार के पहले कार्यकाल में भी कांग्रेस पार्टी सरकार से अपने को दूर दिखाने की काशिश करती थी। वह सरकार की परेशानियों को तो सरकार के जिम्मे ही छोड़ देती थी, लेकिन उसकी उपलब्धियों को अपनी उपलब्धी के रूप में पेश करती थी। मनमोहन सिंह बाजार के प्रति उदार रवैया अपनाया करते थे और सोनिया गांधी अपना जनोन्मुख चेहरा दिखाया करती थीं। उस समय मनमोहन सरकार दक्षिणपंथी और वामपंथी, दोनों ताकतों को खुश रखना चाहती थी, इसलिए सोनिया गांधी के उनकी व्यवस्था अपने पहले कार्यकाल में ठीकठाक चली।
हालांकि सच यह भी था कि कुछ मसले पर प्रधानमंत्री अपना एक निश्चित दृष्टिकोण रखते हैं और उस पर वे समझौता करने के लिए तैयार नहीं होते। भारत अमेरिका परमाणु करार के मसले पर उन्होंने तो अपनी सरकार को ही दांव पर लगा दिया था। पहले सोनिया गांधी भी उस मसले पर समझौतावादी रुख अख्तियार करना चाहती थीं, लेकिन मनमोहन सिंह के संकल्प ने पार्टी को उनकी लाइन मानने के लिए विवश कर दिया।
अंदा के लोगों का कहना है कि मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के बीच मतभेद पिछले कई महीनों से हैं और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन उस मतभेद के कारण ही हुआ है। खाद्य सुरक्षा और सांप्रदायिक हिंसा से संबंधित विधेयकों पर केन्द्र सरकार का सलाहकार परिषद से भारी मतभेद है। ताजा उदाहरण सड़ रहे अनाजों को गरीबों को बांटने का मसला है। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा करने का आदेश सरकार को दे रखा है, लेकिन सरकार ने आदेश को मानने से इनकार कर दिया है। मनमोहन सिंह ने अपना कड़ा रुख अख्तियार करते हुए सुप्रीम कोर्ट को ही सलाह दे डाली कि वे नीतिगत मसलों से अपने आपको अलग रखे। यह एक तरह से खाद्य सुरक्षा विधेयक को लेकर उनकी शंकाओं की भी अभिव्यक्ति थी।
क्या इसका मतलग यह निकाला जाए कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी ताकत का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करेंगे और 10, जनपथ को नाराज करना चाहेंगे? केन्द्र की सत्ता की कुंजी अभी भी सोनिया गांधी के पास है। उन्हें एक हद से ज्यादा नाराज कर सरकार में कोई नहीं रह सकता। यह प्रधानमंत्री को पता है, लेकिन उन्हे यह भी पता है कि सोनिया उन्हें अब आसानी से हटा नहीं सकती। 2012 में जब राष्ट्रपति के चुनाव चुनाव होगा, तो उसी समय मनमोहन सिंह को राष्ट्रपति पद पर बैठाकर प्रधानमंत्री पद से हटाया जा सकता है। यही कारण है कि अपनी ताकत का इजहार करते हुए प्रधानमंत्री ने कह दिया है कि उनका अपने पद से रिटायर होने का कोई इरादा नहीं है। उनके कहने का मतलब है कि वर्तमान लोकसभा के कार्यकाल पूरे दौर में वे प्रधानमंत्री के पद पर बने रहेंगे। (संवाद)
मनमोहन के मजबूत संकेत
अब सरकार में उन्हीं की चलेगी
कल्याणी शंकर - 2010-09-10 13:17
संपादकों के सम्मेलन में जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कड़ा रुख अख्तियार किया, तो अनेक लोगों की भौहें तन गईं। आखिर इसका मतलब क्या है? उनके खिलाफ विपक्ष ही नहीं बल्कि मीडिया की ओर से खासी आलोचनाएं हो रही हैं। कांग्रेस के अंदर से भी उनकी सरकार के खिलाफ आलोचना के स्वर उठ रहे हैं। क्या यह माना जाए कि इन आलोचनाओं के बीच प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सब्र का बांध टूट चुका है।