यदि मन्दिर और मस्जिद कोई मुद्दा नहीं बन सका है, तो उसका एक सबसे बड़ा कारण तो यही है कि उससे संबंधित हाई कोर्ट का फैसला ही कुछ ऐसा था कि उससे देश में कोई सांप्रदायिक उत्तेजना नहीं फेली। उस फैसले से संबंघित पक्षों को यदि कोई असंतोष हुआ भी तो, सभी पक्षों के नेताओं ने उस फैसले को अंतिम फैसला न मानते हुए सुप्रीम कोर्ट का विकल्प दिखाकर लोगों में किसी प्रकार की उत्तेजना पैदा होने की संभावना को समाप्त कर दिया।

जाहिर है विवाद के दोनों पक्षों ने समझदारी दिखाई। पर सवाल उठता है कि बिहार के चुनावों में भाग ले रही मुख्य पार्टियों ने उस फैसले को राजनीति में भुनाने के लिए क्या किया? इसका सीधा जवाब है कि बिहार के चुनावों में भाग ले रही पार्टियों ने भी चुनावों में इस फैसले को मुद्दा बनाने का काम नहीं किया है। भारतीय जनता पार्टी हिन्दुत्व के मुद्दे की राजनीति करती रही है। वह चुनावों में हिन्दुत्व के मसले को भुनाने की भरसक कोशिश भी करती रही है, लेकिन वह इस बार बिहार में उस फैसले का जिक्र करने से परहेज कर रही है।

इसका एक स्थानीय कारण भी है। नीतीश कुमार उग्र हिन्दुत्व की राजनीति के द्वारा मतो के ध्रुवीकरण के सख्त खिलाफ हैं। उन्होंने अपने 5 साल के कार्यकाल में मुसलमानों के लिए भी बहुत कुछ किया है और वे अपनी उपलब्धियों का आधार बनाकर मुस्लिम मतदाताओं को भी अपनी ओर खींचने मंे लगे हुए हैं। उनकी सहयोगी भाजपा उनके इस प्रयास पर हिन्दुत्व की राजनीति गर्म कर पानी नहीं फेर सकती। इसलिए भाजपा के नेता अयोध्या के फैसले में अपनी नैतिक विजय पाने का न तो गान करते दिखाई पड़ रहे हैं और न ही अदालती फैसले में एक तिहाई विवादित जमीन मुसलमानों को दिए जाने का विरोध कर रहे हैं।

उग्र हिन्दुत्व की राजनीति करने का एक और खतरा है, जिसे भाजपा के नेता भी अच्छी तरह समझते हैं। बिहार में मुसलमानों की आबादी 2001 की जनगणना के अनुसार साढ़े 16 फीसदी है और यादवों की आबादी 1931 की जनगणना के अनुसार 14 फीसदी। यदि ये दोनों समुदाय एक साथ राजनैतिक रूप से जुड़ जाएं और उसमें रामविलास पासवान के फीसदी पासवान समर्थक आ जाएं, तो उनकी संख्या 35 फीसदी हो जाती है। 35 फीसदी का मत बहुत मायने रखता है और भाजपा भी यह नहीं चाहेगी कि उग्र हिन्दुत्व की राजनीति कर वह मुसलमानों में भय का वातावरण पैदा कर दे। क्योकि भयभीत मुसलमान किसी भी सूरत में राजग हो हराना चाहेगे और उनका ध्रुवीकरण लालू की ओर होने लगेगा। फिर तो लालू को हराना ही मुश्किल हो जाएगा।

यही कारण है कि भाजपा उग्र हिन्दुत्व अथवा मुस्लिम विरोध की राजनीति बिहार के इस चुनाव में नहीं रही है। अब सवाल रहा फैसले पर मुस्लिम राजनीति करने का। लालू यादव और रामविलास पासवान की जोड़ी मुसलमानों में राजनैतिक उत्तेजना पैदा कर उनके मत प्राप्त करने की राजनीति कर सकती है। अभी भी लालू यादव मुसलमानों को अपना आधार मानते हैं। रामविलास पासवान भी मुसलमानों के खैरख्वाह होने का दावा करते रहते हैं। लेकिन अयोध्या पर फैसला आने के बाद भी उन्होंने अबतक ऐसा कुछ नहीं कहा है जिससे मुसलमानों में वे आक्रोश पैदा करें और उनके आक्रंोश को अपने लिए मतों का गोदाम बना दें। फैसले के बाद लालू की प्रतिक्रिया उसके स्वागत की ही रही है। रामविलास पासवान ने भी फैसले के खिलाफ बोलते हुए मुसलमानों की भावनाओं का भड़काने का काम नहीं किया है।

यदि लालू और रामविलास पासवान ने बिहार में मुलायम की भाषा में बात नहीं की, तो उसका भी कारण है। दरअसल रामविलास पासवान और लालू यादव अगड़े हिन्दुओं का मत पाने की भी राजनीति कर रहे हैं। उनका मानना है कि अगड़े लोगों का नीतीश और भाजपा से मोह भंग हो गया है और सत्तारूढ़ गठबंधन को हराने के लिए वे उन्हें ही मत देंगे। मन्दिर मस्जिद की राजनीति करने से अगड़े मत फिर से भाजपा और नीतीश की झोली मे जा सकते हैं। यही डर लालू यादव और रामविलास पासवान को बिहार में उस स्वर में भाषण करने की इजाजत नहीं देता, जिस स्वर में मुलायम सिंह ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले का विरोध किया था और कहा था कि मुसलमान उस फैसले से ठगे महसूस कर रहे हैं।

बिहार के ुचुनाव में कांग्रेस भी इस बार एक फैक्टर बन कर उभर रही है। बहुत चुनावों के बाद उसने सभी विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया है। मुसलमान अब उनकी तरफ मुखातिब हो रहे हैं और अगड़ी जातियों के मतदाताओ का भी रुझान उनकी तरफ हो रहा है। अयोध्या फैसले पर किसी तरह की राजनीति से सबसे ज्यादा परहेज तो कांग्रेस ही कर रही है। यह स्वाभाविक भी है। कांग्रेस बाबरी मस्जिद और राम मन्दिर विवाद में पड़कर पहले ही अपना बहुत नुकसान करवा चुकी है। वह तो यही चाहेगी कि मन्दिर मस्जिद कभी चुनावी मुद्दा ही नहीं बने। अब जब बिहार में दूसरी प्रमुख पार्टियां इसे मुद्दा नहीं बना रही हैं, तो फिर कांग्रेस को क्या पड़ी है कि वह इसे तूल दे।

समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव ने जिस लहजे में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के लखनऊ बेच के फैसले की आलोचना कीख् वह लहजा निश्चय ही मुसलमानों को भड़काने वाला था। हो सकता है कि बिहार के चुनावों में मुलायम सिंह उसी भाषा का इस्तेमाल करें, पर मुलायम की समस्या यह है कि वहां उनकी पार्टी का कोई वजूद ही नहीं है। उनके पास लड़ाने के लिए अपने उम्मीदवार ही नहीं हैं। अपनी पार्टियों से टिकट न मिलने से नाराज और कुछ शौकिया टाइप के चुनावबाज उनकी पार्टी से चुनाव लड़ रह हैं। इसलिए बिहार के चुनावों में मुलायम क्या बोलते हैं इसका कोई असर पड़ने वाला ही नहीं है। सच तो यह है कि मुलायम को सुनने वालो की संख्या भी नाममात्र की ही होगी।

यह लोकतंत्र के लिए एक अच्ठा संकेत है कि अयोध्या पर आए एक संवेदनशील फैसले पर राजनीति करने से पड़ोस के बिहार राज्य में परहेज किया जा रहा है। इसका श्रेय मुसलमानों को भी देना पड़ेगा, जो आज भयभीत मानसिकता से ग्रस्त नहीं हैं और भावनानात्मक तूफान में बहने के लिए तैयार भी नहीं हैं। (संवाद)