इसके कारण देश के निर्यातकों की रूह कांप रही है और बीपीओं कंपनियों की हालत भी खराब हो रही है। वित्तीय संस्थागत निवेशक शेयर बाजार में गजब ढा रहे हैं। चालू साल में उन्होंने 25 अरब डालर भारत के शेयर बाजारों में झोंक डाले हैं। इसके कारण संवेदनशील सूचकांक पिछले 33 महीनो के अपने उच्चतम स्तर पर पहुंचा हुआ है। डर लग रहा है कि कहीं यह धराशाई न होने लगे।

यह देश की अर्थव्यवस्था के लिए कोई अच्छी बात नहीं है। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया व अन्य व्यवस्थावादी अर्थशास्त्री दावा कर रहे हैं कि दिसंबर के अंत तक मुद्रास्फीति की दर साढ़े 5 फीसदी तक आ जाएगी। लेकिन उस पर कौन विश्वास करेगा? पिछले महीने भारतीय रिजर्व बैंक ने एक हाउसहोल्ड सर्वे की रिपोर्ट जारी कि जिसके अनुसार हमारे देश के लोगों को लग रहा है कि मुद्रास्फीति की दर बढ़कर 12 फीसदी तक जा सकती है। यानी केन्द्र सरकार की बातों पर लोगों का विश्वास अब नहीं रहा। सच कहा जाए तो देश की अर्थव्यवस्था एक ऐसे चक्रव्यूह में फंस गई है, जिससे निकलने का कोई रास्ता नहीं दिखाई दे रहा है।

विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा भारी पैमाने पर शेयर बाजारों में निवेश किए जाने के कारण डॉलर की बहुलता हो गई है और उसके कारण रुपया मजबूत हो गया है। निर्यातक त्राहि त्राहि कर रहे हैं। रुपया को कमजोर करने का तरीका यही है कि रिजर्व बैंक बाजार से डालर खरीद ले। लेकिन यदि ऐसा किया जाता है, तो महंगाई और भी बढ़ने लगेगी। इसका कारण यह है कि डॉलर खरीदने के लिए रिजर्व बैंक का रुपये का इस्तेमाल करना पड़ेगा। तब बाजार में रुपया ज्यादा हो जाएगा। ज्यादा रुपया का मतलब चीजों का महंगा हो जाना होता है। महंगाई पर रोक लगाने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक के पास ब्याज दर ऊंची करने का विकल्प होता है, लेकिन देश के उद्योगपति रिजर्व बैंक के इस कदम का विरोध कर रहे हैं। इसके लिए वह केन्द्र सरकार पर दबाव डालते हैं और केन्द्र सरकार उनके दबाव में आकर रिजर्व बैंक को ब्याज दर बढ़ाने की इजाजत नहीं देती।

ब्याज दर बढ़ाने का यह कहते हुए विरोध किया जाता है कि इससे विकास दर प्रभावित होगी। ब्याज दर बढ़ने से कर्ज महंगा हो जाएगा और उस कर्ज से लिए गए पैसे के इस्तेमाल से हो रहे उत्पादन की लागत बढ़ जाएगी। इस तरह से औद्योगिक विकास पर असर पड़ेगा। यही कारण है कि हमारे देश के नीति निर्माता भारतीय रिजर्व बैंक का ब्याज दर बढ़ाने की इजाजत नहीं दे रहे। ब्याज दर बढ़ाने में एक और खतरा है। वह खतरा है कि इसके कारण देश मे विदेशी मुद्रा की आपूर्ति और बढ़ सकती है, क्योंकि घरेलु कर्ज महंगा होने से हमारे देश के उद्यमी विदेशों से कम दर पर कर्ज लेना प्रारंभ कर देंगे और फिर देश में डॉलर ज्यादा आने से रुपया फिर कमजोर होने लगेगा। यदि रिजर्व बैंक डालर खरीदता है, तो फिर ज्यादा रुपया बाजार में आने के कीमतें बढ़ने लगेगीं।

इस तरह एक ऐसा चक्रव्यूह बन गया है, जिससे निकलना आसान नहीं दिखाई देता। एक रास्ता है जिससे इस चक्रव्यूह को तोड़ा जा सकता है। वह रास्ता है विदेशी संस्थागत निवेशकों के शेयर बाजार में निवेश करने पर अंकुश लगाने का। पर केन्द्र सरकार इसके लिए भी तैयार नहीं लगती। उसे लगता है कि विदेशी निवेशक हमारे शेयर बाजारों में भारी पैमाने पर निवेश करके हमारी अर्थव्यव्यवस्था की मजबूती का हमें प्रमाणपत्र दे रहे हैं। अब यदि यह चक्रव्यूह बना रहा, तो भारत की जनता महंगाई से पिसती रहेगी और हमारे निर्यातकों के अरमानों पर भी पानी फिरता रहेगा। (संवाद)