आश्चर्य की बात तो यह है कि राहुल गांधी को जयप्रकाश नारायण के समतुल्य साबित करने वाले मोहन प्रकाश स्वयं उस आपातकाल विरोधी छात्र आंदोलन से जुड़े रहे हैं जिसका नेतृत्व जे. पी. ने किया था और जिसके माध्यम से देश की राजनीति ने एक नयी करवट ली थी। वह आंदोलन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की नीतियों के विरुद्ध था और उसकी लहर में उनकी सत्ता उखड़ गई, इसलिए जे. पी. हमेशा के लिए कांग्रेस नेताओं की नजर में खलनायक बन गए। मोहन प्रकाश के वक्तव्य से जे. पी. का महिमामंडन होता था, जिसे कांग्रेस के लिए पचा पाना नामुमकिन था।

वास्तव मंे जयप्रकाश नारायण के बारे में कांग्रेस पार्टी हमेशा असहज स्थिति में रही है। सच यह है कि 1974 के बाद से कांग्रेस जे. पी. से हमेशा बचने की कोषिष करती है। पार्टी में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो जे. पी. को महात्मा गांधी के बाद सच्चे और निःस्वार्थ राजनेता मानते हैं, पर इसे वे व्यक्त नहीं कर सकते, क्योंकि इससे इंदिरा गांधी एवं संजय गांधी तत्कालीन राजनीति के खलनायक साबित हो जाते हैं। इसमंे मोहन प्रकाश का यह कहना कि जयप्रकाश नारायण के बाद राहुल गांधी ही ऐसे नेता है जिन्होंने देश के युवाओं की जरूरतों, आंकाक्षाओं और भविष्य को सही तरीके से समझा है, कांग्रेस की इस परंपरागत सोच के बिल्कुल विपरीत है। आखिर कांग्रेस के नेता जिन नेताओें को अपना आदर्श मानने की घोषणा करते हैं उनमें इंदिरा गांधी का स्थान नेहरू के बाद आता है। अगर जे. पी. द्वारा इंदिरा शासन के खिलाफ आवाज बुलंद करना सही था तो फिर इंदिरा गांधी की नीतियां गलत थीं। हालांकि किसी भी ईमानदार विश्लेषक के लिए यह स्वीकारने में हिचक नहीं होती है, पर कांग्रेस एक पार्टी के तौर पर इसे स्वीकार नहीं कर सकती। हम जानते हैं कि कांग्रेस में यदि अपना प्रभावी अस्तित्व बनाए रखना है तो फिर इस समय सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी की प्रशंसा के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं। मोहन प्रकाश ने यही किया है। कांग्रेस में शामिल होने के लंबे समय बाद उन्हें ऐसी जगह मिली है जिसे सम्मानजनक कहा जा सकता है। इसे बनाए रखने या यहां से प्रोन्नत होने की कोशिश में वे फंस गए।

किंतु इस प्रकरण का पहलू कांग्रेस के नजरिए तक सीमित नहीं है। अगर देश के आम मनोविज्ञान की दृष्टि से देखें तो जे. पी. एवं राहुल गांधी दो ध्रुव भी नहीं है। राहुल का आविर्भाव यदि देश की राजनीति और व्यवस्था के क्षरण से हुआ है तो जे. पी. भारत को सच्चा भारत बनाने और उसके लिए राजनीति को समाज सेवा का सच्चा माध्यम बनाने के प्रतीक हैं। जे. पी. का पूरा जीवन पहले अंग्रेजों से मुक्ति के लिए संघर्ष में लगा तो आजादी के बाद गांधी के सपने का भारत बनाने के लिए भूदान, ग्रामस्वराज्य... के लक्ष्य को समर्पित हो गया। भारत को सच्चे सर्वोदय राज्य में बदलने के सपने को साकार करने में उनका पूरा जीवन लगा। जब इंदिरा गांधी के शासन काल में सत्ता भ्रष्टाचार, अपराध का प्रतीक बन गई, आम युवाओं के सामने अंधकारमय भविष्य का साकार खतरा मंडराने लगा और उन्होेंने जे. पी. से नेतृत्व का अ्राग्रह किया तो वे चुप न रह सके। सबसे बढ़कर जब आपातकाल के रूप में लोकतंत्र के गले पर निरंकुशता का प्रहार हुआ, आम नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों का हरण हो गया तो जे. पी. ही देश के लिए उद्धारक बनकर सामने आए। जे. पी. ने गांधी जी की तरह स्वयं को परिवर्तन का अगुवा बनाया, स्वयं सत्ता पाने की लालसा उन्हें छू तक नहीं सकी। उनकी शक्ति भारत के बारे में उनकी सोच एवं उसे कार्यरूप देने के लिए समर्पित जीवन में निहित थी। राहुल गांधी यदि राजीव गांधी के पुत्र नहीं होते एवं कांग्रेस एक परिवार के नेतृत्व पर निर्भर पार्टी नहीं होती तो वे आज कहां होते इसकी जरा कल्पना करिए। जे. पी. ने अपने कार्यो से साबित किया कि देश की सेवा करने या बदलाव की राजनीति के लिए किसी परिवार या पद की पृष्ठभूमि नहीं केवल और केवल अपनी समझ और कर्तृत्व ही हो सकती है। जे. पी. ने व्यक्तिगत जीवन और सार्वजनिक जीवन में जो आदर्श उपस्थित किया, सामाजिक-राजनीतिक जीवन का जो मापदंड निर्मित किया, राहुल को उसकी तुलना में खड़ा करना वास्तव में मजाक या प्रहसन ही हो सकता है।

अगर जे. पी. की तरह राहुल गांधी युवाओं की सोच, आवश्यकता एवं आकांक्षा को अभिव्यक्ति दे रहे हैं तो फिर उनके साथ भी वैसे ही देश के लिए समर्पित, राजनीति एवं सम्पूर्ण व्यवस्था को बदलने के लिए संकल्पित युवाओं का समूह खड़ा होना चाहिए था। जे. पी. के आह्वान पर तो लाखों छात्रों ने अपने तात्कालिक एवं भावी कैरियर को लात मारकर व्यवस्था परिवर्तन के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया। यह बात दीगर है कि बाद मंे उन्हीं में से कुछ खलनायक साबित हुए एवं राजनीति के शीर्ष पर पहुंचकर वही सारे अपराध किए जिनके खिलाफ जे. पी. ने संघर्ष किया था। किंतु यह अलग से विचार का विषय है। राहुल गांधी तो छोड़िए, कांग्रेस या इस समय मुख्यधारा के जितने दल हैे उनका कोई शीर्ष नेता ऐसा आदर्श उपस्थित करने की स्थिति में नहीं है। राहुल गांधी तो वर्तमान क्षरित व्यवस्था को ही मजबूत करने की राजनीति कर रहे हैं। वे युवाओं के सामने कैरियर और आर्थिक दृष्टि से अधिकाधिक सुखी होने का आदर्श प्रस्तुत कर रहे हैं। जे. पी. का तो पूरा जीवन युवाओं को कैरियर एवं केवल आर्थिक दृष्टि से मजबूत होने की सोच से दूर, देश और समाज के लिए आदर्श जीवन अपनाने की प्रेरणा पर केन्द्रित था।

वास्तव में यह प्रकरण फिर एक बार इस भयावह सच को साबित कर रहा है कि भारत की वर्तमान राजनीति गांधी और जे. पी. के सपनों को रौंदने की दिशा में काफी दूर निकल चुकी है। आखिर देश की राजनीति क्षरण के किस दौर में पहुंच चुकी है, जिसमें छात्र आंदोलन से निकले एक स्वच्छ छवि के राजनेता को अपने आदर्श नेता के समकक्ष ऐसे व्यक्ति को खड़ा करना पड़ता है जिसके बारे में उसके मन के अंदर सम्मान का भाव होने तक का कोई कारण नहीं है! जयप्रकाश नारायण की विचारधारा के सच्चे वाहक को राजनीति की इस दुरवस्था के समूल नाश के उद्देश्य से ही तो काम करना चाहिए। इसके विपरीत वह अपनी हैसियत बनाए रखने के लिए राहुल गांधी में जे. पी. को देखने का सार्वजनिक पाखंड कर रहा है। क्या यह भयावह स्थिति हमारे, आपके अंदर इस व्यवस्था में आमूल बदलाव के लिए काम करने का भाव नहीं जगाती? (संवाद)