वे तीनों वार्ताकार गैरराजनैतिक लोग हैं, जो जमीनी राजनीति को सही तरीके से समझते ही नहीं हैं। कश्मीर की समस्या कोई अकादमिक समस्या नहीं है और उसे समझ पाना किसी एकेडेमिशियन के वश की बात नहीं है। पर केन्द्र सरकार ने एक एकेडमिशियन को वार्ताकार बना दिया। दूसरे वार्ताकार एक अंग्रेजी के पत्रकार को बना दिया। अंग्रेजी की पत्रकारिता वैसे ही देश की जमीनी हकीकत को समझ पाने में विफल है और जिस पत्रकार को वार्ताकार बनाया गया, वे संपादकीय लिखने की विशेषज्ञता रखने वाले पत्रकार हैं। कश्मीर के लोगों से वार्ता करने के लिए तीसरे वार्ताकार एक पूर्व नौकरशाह को बना दिया गया।

यानी तीनों के तीनो वार्ताकार ऐसे हैं, जिनका राजनीति से सीधा संबंध नहीं है और न ही तीनों किसी रूप से सीधे देश की जमीन से जुड़े रहे हैं। लेकिन उन तीनों को एक ऐसा काम दे दिया गया, जिसका संबंध कश्मीर की जमीनी हकीकत से जुड़ा हुआ है। वार्ताकार उन्हें बनाया जाना चाहिए था, जिनसे बातचीत करने में वहां के स्थानीय नेता रुचि लेते हों और वहां के लोग जिन्हें अपना दुख दर्द सुनाने में दिलचस्पी लेते हों। लेकिन वहां के स्थानीय नेताओं ने उनसे बात करने से ही इनकार कर दिया। बात करने से कुछ नेताओं ने तो आल पार्टी के सदस्यों से भी कर दिया था, लेकिन ऑल पार्टी के वे नेता बिन बुलाए मेहमान बनकर उन नेताओं के घरों पर पहुंच गए और उन्हें उनका स्वागत करना पड़ा था। लेकिन यदि ये तीनों वार्ताकार किसी कश्मीरी नेता के घर पर बिन बुलाए मेहमान बन कर पहुंच जाएं, तो वे उन्हें पहचानने से भी इनकार कर देंगे। जाहिर है केन्द्र सरकार ने वार्ताकार चुनने में गलती की। सच कहा जाए तो ये तीनो वहां के लोगों से वार्ता करने में सक्षम ही नहीं हैं।

वार्ता करने में ये भले ही अक्षम हों, लेकिन कश्मीर समस्या के समाधान से संबंधित उनकी अपनी एक सही गलत राय है और उन्होंने अपनी उस राय को कश्मीर पहुंचते ही स्वर देना प्रारंभ कर दिया। एक ने कह दिया कि पाकिस्तान को शामिल किए बिना कश्मीर समस्या का समाधान नहीं निकल सकता। वे वहां गए थे, लोगों से वार्ता करने और यह पता लगाने कि कैसे वहां अमन चैन का माहौल कायम किया जाए, लेकिन लोगों से बात करने के पहले ही वे अपनी यात्रा की निर्रथकता का तराना गाने लगे। उन्हें समस्या के हल के लिए पाकिस्तान की याद आने लगी। उनके उस बयान की आलोचना हुई। उन्होेंने अपने बयान का बचाव किया। बचाव करने के लिए भारत की विदेश नीति की सहायता ली, जिसके तहत भारत पाकिस्तान से कहता रहा है कि कश्मीर समस्या पर दोनों के बीच चल रहे विवाद पर किसी तीसरे पक्ष को बीच में नहीं लाया जाएगा।

हमारे वार्ताकारों को कश्मीर से संबंधी विदेश नीति का ज्ञान पहले से ही है, लेकिन उन्हें विदेश नीति पर किसी प्रकार की सिफारिश करने के लिए नियुक्त नहीं किया गया था। उन्हें तो लोगों की नब्ज पढ़कर यह पता लगाने के लिए भेजा गया था कि उन्हें किस तरह से २शांत रखा जा सकता है। पाकिस्तान कश्मीर की समस्या को हवा दे रहा है। यह सबको पता है। यदि वह कश्मीर के अंदर आग सुलगाना बंद कर दे, फिर कश्मीर की समस्या ही नहीं रह जाएगी, लेकिन पाकिस्तान वैसा क्यों करेगा? भारत का विरोध करते करते पाकिस्तान वजूद में आया है और वह भारत के विरोध में ही अपने वजूद का निरंतर अहसास करता है। जिस दिन वह भारत का विरोध करना बंद कर देगा, उस दिन उसे लगेगा कि उसका वजूद ही समाप्त हो गया है।

लेकिन हमारे वार्ताकार कश्मीर मे जाकर कहते हैं कि पाकिस्तान की सहायता से कश्मीर की समस्या का हल किया जाए। इससे ज्यादा अटपटा बयान कोई हो ही नहीं सकता है। उसके बाद भी बयानो का दौर जारी रहा। कश्मीर के लोगों के आंदोलन को आजादी का आंदोलन तक कहने की ओर हमारे वार्ताकार पहुंचने लगे। पता नहीं वे उस दिशा में अपने पहले के आग्रहों के कारण पहुंच रहे हैं अथवा इसके पीछे उनकी रणनीति उन लोगों तक पहुंचने की है, जो कश्मीर को भारत से अलग करना चाहते हैं। यहां सवाल यह उठता है कि उनतक पहुचकर फिर उन्हीं की भाषा में बोलने का मतलब क्या है?

यह अच्छा हुआ कि केन्द्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम ने उन वार्ताकारों को नसीहत दे डाली है कि वह लोगों के साथ वार्ता करें और बयानबाजी से परहेज रखें। लगता है कि गृहमंत्री की नसीहत का उन पर असर पड़ा है। उसके बाद से वे कोई बयानबाजी से परहेज कर रहे हैं। कश्मीर के दौरे का एक चक्र पूरा कर वे वापस भी आ गए हैं और उन्होंने गृह मंत्रालय को अपनी रिपोर्ट भी दी है और कश्मीर फिर जाने का अपना इरादा भी जताया है। पता नहीं अपनी रिपोर्ट में उन्होंने क्या लिखा है और उनकी रिपोर्ट का गृह मंत्रालय क्या करेगा यह भी स्पष्ट नहीं है।

बराक ओबामा भारत आ रहे हैं। उनकी भारत यात्रा के पहले कश्मीर के पृथकतावादी ज्यादा सक्रिय हो गए हैं। पाकिस्तान भी उनकी सक्रियता को हवा देने लगा है। वह चाहता है कि ओबामा अपनी भारत यात्रा के दौरान कश्मीर मसले का उल्लेख करेे। कश्मीर समस्या पर अमेरिका भारत को कोई नसीहत दे, यह हमें मंजूर नहीं होगा। लेकिन भारत अमेरिका को यह संदेश देना चाहेगा कि भारत कश्मीर समस्या को २शांत करने के लिए बेहद सक्रिय है और वह इसके लिए सैन्य उपाय ही नहीं, बल्कि असैन्य उपाय भी कर रहा है। वार्ताकारों की नियुक्ति को एक उपाय के रूप में दिखाया जा सकता है। लेकिन सवाल उठता है कि इसके लिए गैर राजनैतिक लोगों को वार्ताकार बनाने की क्या जरूरत थी? राजनैतिक पार्टियों के नेताओं को लेकर भी वार्ताकार बनाए जा सकते थे और यही संदेश अमेरिका और दुनिया के अन्य देशों को दिया जा सकता था। (संवाद)