इसके दो मुख्य कारण हैं। पहला कारण तो यही है कि सत्तारूढ़ शिरोमणि अकाली दल में ही फूट पड़ी हुई है। असंतोष के बादल वहां देखे जा सकते हैं। संगठन के अंदर तो बिखराव है ही, सरकार की हालत भी कोई अच्छी नहीं है। राजकोष का घाटा बढ़ता जा रहा है। सरकार का खर्च बहुत ज्यादा बढ़ गया है और राजस्व बढ़ने का नाम नहीं ले रहा है। राज्य सरकार पर कर्ज का बोझ भी बढ़ता जा रहा है।

कर्ज संकट और राजकोषीय संकट के उपजे विवाद के कारण भी अकाली दल में विवाद पैदा हो गए हैं। उसी विवाद के शिकार हुए हैं पूर्व वित्त मंत्री मनप्रीत बादल, जो मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के भतीजे भी हैं। वित्त मंत्री की हैसियत से उन्होंने विधानसभा को संबोधित करते हुए राज्य के वित्तीय संकट से निदान पाने का एक फार्मूला पेश किया था। वह फार्मूला मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल को पसंद नहीं आया। उन्हें पहले तो वित्तमंत्री के पद से हटाया गया और उसके बाद उन्हें पार्टी से ही निकाल दिया गया।

विधानसभा में उनके द्वारा जो फार्मूला सुझाया गया था, उसका संबंध सरकार द्वारा दी जा रही सब्सिडियों को समाप्त करने से था। केन्द्र सरकार से बातचीत करने के बाद उन्हें आश्वासन मिला था कि यदि राज्य सरकार वित्तीय अनुशासन का परिचय दे, तो उसका आधा कर्ज यानी 35 हजार करोड़ रुपए माफ किए जा सकते हैं। उन्होेने केन्द्र के उस प्रस्ताव को विचार के लिए सामने रखा। सुखबीर सिंह बादल को वह प्रस्ताव नागवार गुजरा। प्रकाश सिंह बादल को भी यह अच्छा नहीं लगा कि कर्ज की माफी के लिए केन्द्र सरकार कोई शर्त रखे।

सत्ता में आनें के बाद राज्य सरकार किसानों को मुफ्त बिजली दे रही है। घाटा का सबसे बड़ा कारण यही है। इसे समाप्त करने का पार्टी के अंदर भारी विरोध हो रहा है। कहा जा रहा है कि किसानों को मुफ्त बिजली देना अकाली दल का चुनाव पूर्व वादा था और इस वादे से सरकार पीछे कैसे हट सकती है।

इससे भी बड़ी बात यह है कि ये किसान अकाली दल के मुख्य समर्थक हैं और सरकार को भी उनके हितों की चिंता सबसे ज्यादा है। इसलिए सरकार उन्हे दी जा रही मुफ्त बिजली के निर्णय को वापस नहीं ले सकती। जब चुनाव बहुत नजदीक आ रहे हों, तब तो बिल्कुल ही उन्हें नाराज नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि सब्सिडियों को हटा देने का जबर्दस्त विरोध हुआ और मनप्रीत सिंह बादल को न केवल सरकार से बल्कि दल से भी बाहर का रास्ता देखना पड़ा।

मनप्रीत बादल के सरकार से बाहर जाने के बाद न तो सरकार की समस्या समाप्त हुई है और न ही अकाली दल के अंदर के कलह पर कोई विराम लगा है। और इसके कारण प्रकाश सिंह बादल को अपने बेटे को मुख्यमंत्री बनाने के लिए सही समय के चुनाव में समय लग रहा है।

प्रकाश सिंह बादल की समस्या सिर्फ अपने दल की तरफ से ही नहीं है, बल्कि उनके सहयोगी भाजपा की ओर से भी उन्हें परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। आमचुनाव नजदीक आने के साथ ही दोनों के बीच रस्साकसी तेज हो गई है, जिसके कारण प्रकाश सिंह बादल को अपनी केन्द्रीय भूमिका में बने रहने के लिए बाघ्य होना पड़ रहा है।

भाजपा की ओर से तो समस्या है ही, कांग्रेस ने कैप्टन अमरींदर सिंह को पंजाब कांग्रेस का अघ्यक्ष बनाकर प्रकाश सिंह बादल के लिए नई चुनौती खड़ी कर दी है। उनके नेतृत्व में कांगेस में नया उत्साह पैदा हो रहा है। दूसरी तरफ राजकोषीय संकट के कारण पंजाब में सरकारी कमचारियों को समय पर वेतन मिलने में भी समस्या आ रही है, जिसके कारण उनका असंतोष बढ़ता जा रहा है और वे लगातार आंदोलनात्मक रवैया अपना रहे हैं।

दल से निकाले जाने के बाद मनप्रीत बादल भी चुप नहीं बैठे हुए हैं। उनकी राजनैतिक सक्रियता को रोकने के लिए जिन अलोकतांत्रिक तरीकों का इस्तेमाल किया जा रहा है, उनसे आखिरकार अकाली दल की समस्या गहराने वाली है। इन परिस्थितियों मे पंजाब की सत्ता की बागडोर अपने बेटे सुखबीर सिंह बादल को सौंपने मेे प्रकाश सिंह बादल लगातार विलंब किए जा रहे हैं। (संवाद)